के तत्वावधान में आयोजित मानस प्रवचन के सत्र में महाराज श्री को सुनाने का
सौभाग्य प्राप्त हुआ था. पूज्य श्री कपिल देव त्रिपाठी जी के साथ हम
नियमित जाते थे . कथा सुनते सुनते श्रोताओं का आत्म विभोर हो जाना एक सहज
अध्यात्मिक प्रक्रिया लगाती थी. नव रात्र प्रवचन का कार्य क्रम कब बीत गया
पता ही नहीं चला.चाहकर भी यह संयोग नहीं बन पाता था.पुणे में उनके कार्यक्रम की उम्मीद बहुत कम लगती थी.
दैव योग से जून 2000 में महाराज श्री का कार्य क्रम बना पुणे आने के लिए बना . यह जान कर अभूतपूर्व प्रसन्नता की अनुभूति हुई.
वह पुस्तक मानस प्रवचन -जीवन पथ सप्तम पुष्प भी
मिल गयी जिसमें नौ दिन तक ....
" प्रभु की कृपा और प्रभु की वाणी का यदि कोई सार्थक पर्यायवाची शब्द ढूंढा जाए, तो वह हैं - प्रज्ञापुरूष, भक्तित्व द्रष्टा, सन्त प्रवर, ‘परमपूज्य महाराजश्री रामकिंकर जी उपाध्याय।’ अपनी अमृतमयी, धीर, गम्भीर-वाणी-माधुर्य द्वारा भक्ति रसाभिलाषी-चातकों को, जनसाधारण एवं बुद्धिजीवियों को, नानापुराण निगमागम षट्शास्त्र वेदों का दिव्य रसपान कराकर रससिक्त करते हुए, प्रतिपल निज व्यक्तित्व व चरित्र में श्रीरामचरितमानस के ब्रह्म राम की कृपामयी विभूति एवं दिव्यलीला का भावात्मक साक्षात्कार कराने वाले पूज्य महाराज श्री आधुनिक युग के परम तेजस्वी मनीषी, मानस के अद्भुत शिल्पकार, रामकथा के अद्वितीय अधिकारी व्याख्याकार थे ।
भक्त-हृदय, रामानुरागी पूज्य महाराजश्री ने अपने अनवरत अध्यवसाय से श्रीरामचरितमानस की मर्मस्पर्शी भावभागीरथी बहाकर अखिल विश्व को अनुप्राणित कर दिया है। आपने शास्त्रदर्शन, मानस के अध्ययन के लिये जो नवीन दृष्टि और दिशा प्रदान की है, वह इस युग की एक दुर्लभ अद्वितीय उपलब्धि है -
धेनवः सन्तु पन्थानः दोग्धा हुलसिनन्दनः।
दिव्यराम-कथा दुग्धं प्रस्तोता रामकिंकर।।
जन्म से ही होनहार व प्रखर बुद्धि के आप स्वामी रहे हैं। आपकी शिक्षा-दीक्षा जबलपुर व काशी में हुई। स्वभाव से ही अत्यन्त संकोची एवं शान्त प्रकृति के बालक रामकिंकर अपनी अवस्था के बच्चों की अपेक्षा कुछ अधिक गम्भीर थे। एकान्तप्रिय, चिन्तनरत, विलक्षण प्रतिभावाले सरल बालक अपनी शाला में अध्यापकों के भी अत्यन्त प्रिय पात्र थे। बाल्यावस्था से ही आपकी मेधाशक्ति इतनी विकसित थी कि क्लिष्ट एवं गम्भीर लेखन, देश-विदेश का विशद साहित्य अल्पकालीन अध्ययन में ही आपके स्मृति पटल पर अमिट रूप से अंकित हो जाता था। प्रारम्भ से ही पृष्ठभूमि के रूप में माता-पिता के धार्मिक विचार एवं संस्कारों का प्रभाव आप पर पड़ा। परन्तु परम्परानुसार पिता के अनुगामी वक्ता बनने का न तो कोई संकल्प था, न कोई अभिरूचि।
कालान्तर में विद्यार्थी जीवन में पूज्य महाराजश्री के साथ एक ऐसी चामत्कारिक घटना हुई कि जिसके फलस्वरूप आपके जीवन ने एक नया मोड़ लिया। 18 वर्ष की अल्प अवस्था में जब पूज्य महाराजश्री अध्ययनरत थे, तब अपने कुलदेवता श्री हनुमानजी महाराज का आपको अलौकिक स्वप्नदर्शन हुआ, जिसमें उन्होंने आपको वटवृक्ष के नीचे शुभासीन करके दिव्य तिलक कर आशीर्वाद देकर कथा सुनाने का आदेश दिया। स्थूल रूप में इस समय आप बिलासपुर में अपने पूज्य पिता के साथ छुट्टियाँ मना रहे थे। यहाँ पिताश्री की कथा चल रही थी। ईश्वरीय संकल्पनानुसार परिस्थिति भी अचानक कुछ ऐसी बन गई कि अनायास ही, पूज्य महाराजश्री के श्रीमुख से भी पिताजी के स्थान पर कथा कहने का प्रस्ताव एकाएक निकल गया।
आपके द्वारा श्रोता समाज के सम्मुख यह प्रथम भाव प्रस्तुति थी। किन्तु कथन शैली व वैचारिक श्रृंखला कुछ ऐसी मनोहर बनी कि श्रोतासमाज विमुग्ध होकर, तन-मन व सुध-बुध खोकर उसमें अनायास ही बँध गया। आप तो रामरस की भावमाधुरी की बानगी बनाकर, वाणी का जादू कर मौन थे, किन्तु श्रोता समाज आनन्दमग्न होने पर भी अतृप्त था। इस प्रकार प्रथम प्रवचन से ही मानस प्रेमियों के अन्तर में गहरे पैठकर आपने अभिन्नता स्थापित कर ली।
ऐसा भी कहा जाता है कि 20 वर्ष की अल्प अवस्था में आपने एक और स्वप्न देखा, जिसकी प्रेरणा से गोस्वामी तुलसीदास के ग्रन्थों के प्रचार एवं उनकी खोजपूर्ण व्याख्या में ही अपना समस्त जीवन समर्पित कर देने का दृढ़ संकल्प कर लिया। यह बात अकाट्य है कि प्रभु की प्रेरणा और संकल्प से जिस कार्य का शुभारम्भ होता है, वह मानवीय स्तर से कुछ अलग ही गति-प्रगति वाला होता है। शैली की नवीनता व चिन्तनप्रधान विचारधारा के फलस्वरूप आप शीघ्र ही विशिष्टतः आध्यात्मिक जगत में अत्यधिक लोकप्रिय हो गए।
ज्ञान-विज्ञान पथ में
पूज्यपाद महाराजश्री की जितनी गहरी पैठ थी, उतना ही प्रबल पक्ष, भक्ति
साधना का, उनके जीवन में दर्शित होता है। वैसे तो अपने संकोची स्वभाव के
कारण उन्होंने अपने जीवन की दिव्य अनुभूतियों का रहस्योद्घाटन अपने श्रीमुख
से बहुत आग्रह के बावजूद नहीं किया। पर कहीं-कहीं उनके जीवन के इस पक्ष की
पुष्टि दूसरों के द्वारा जहाँ-तहाँ प्राप्त होती रही। उसी क्रम में
उत्तराखण्ड की दिव्य भूमि ऋषिकेश में श्रीहनुमानजी महाराज का प्रत्यक्ष
साक्षात्कार, निष्काम भाव से किए गए, एक छोटे से अनुष्ठान के फलस्वरूप हुआ।
वैसे ही श्री चित्रकूट धाम की दिव्य भूमि में अनेकानेक अलौकिक घटनाएँ परम
पूज्य महाराजश्री के साथ घटित हुईं। जिनका वर्णन महाराजश्री के निकटस्थ
भक्तों के द्वारा सुनने को मिला। परमपूज्य महाराजश्री अपने स्वभाव के
अनुकूल ही इस विषय में सदैव मौन रहे।
प्रारम्भ में भगवान्
श्रीकृष्ण की दिव्य लीलाभूमि वृन्दावन धाम के परमपूज्य महाराज श्री,
ब्रह्मलीन स्वामी श्रीअखण्डानन्दजी महाराज के आदेश पर आप वहाँ कथा सुनाने
गए। वहाँ एक सप्ताह तक रहने का संकल्प था। पर यहाँ के भक्त एवं साधु-सन्त
समाज में आप इतने लोकप्रिय हुए कि उस तीर्थधाम ने आपको ग्यारह माह तक रोक
लिया। उन्हीं दिनों में आपको वहाँ के महान् सन्त अवधूत श्रीउड़िया बाबाजी
महाराज, भक्त शिरोमणि श्रीहरिबाबाजी महाराज, स्वामी श्रीअखण्डानन्दजी
महाराज को भी कथा सुनाने का सौभाग्य मिला। कहा जाता है कि अवधूत पूज्य
श्रीउड़िया बाबा, इस होनहार बालक के श्रीमुख से निःसृत, विस्मित कर देने
वाली वाणी से इतने अधिक प्रभावित थे कि वे यह मानते थे कि यह किसी
पुरूषार्थ या प्रतिभा का परिणाम न होकर के शुद्ध भगवत्कृपा प्रसाद है। उनके
शब्दों में - “क्या तुम समझते हो, कि यह बालक बोल रहा है? इसके माध्यम से
तो साक्षात् ईश्वरीय वाणी का अवतरण हुआ है।”
इसी बीच अवधूत श्रीउड़िया
बाबा से सन्यास दीक्षा ग्रहण करने का संकल्प आपके हृदय में उदित हुआ और
परमपूज्य बाबा के समक्ष अपनी इच्छा प्रकट करने पर बाबा के द्वारा लोक एवं
समाज के कल्याण हेतु शुद्ध सन्यास वृत्ति से जनमानस सेवा की आज्ञा मिली।
सन्त आदेशानुसार एवं
ईश्वरीय संकल्पानुसार मानस प्रचार-प्रसार की सेवा दिन-प्रतिदिन चारों
दिशाओं में व्यापक होती गई। उसी बीच काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से आपका
सम्पर्क हुआ। काशी में प्रवचन चल रहा था। उस गोष्ठी में एक दिन भारतीय
पुरातत्व और साहित्य के प्रकाण्ड विद्वान एवं चिन्तक श्री वासुदेव शरण
अग्रवाल आपकी कथा सुनने के लिये आए और आपकी विलक्षण एवं नवीन चिन्तन शैली
से इतने अधिक प्रभावित हुए कि उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के
कुलपति श्री वेणीशंकर झा एवं रजिस्ट्रार श्री शिवनन्दनजी दर से च्तवकपहपने
(विलक्षण प्रतिभायुक्त) प्रवक्ता के प्रवचन का आयोजन विश्वविद्यालय प्रांगण
में रखने का आग्रह किया। आपकी विद्वत्ता इन विद्वानों के मनोमस्तिष्क को
ऐसे उद्वेलित कर गई कि आपको अगले वर्ष से ‘विजिटिंग प्रोफेसर’ के नाते काशी
हिन्दू विश्वविद्यालय में व्याख्यान देने के लिये निमन्त्रित किया गया।
इसी प्रकार काशी में आपका अनेक सुप्रसिद्ध साहित्यकार जैसे श्री हजारी
प्रसाद द्विवेदी, श्री महादेवी वर्मा से साक्षात्कार एवं शीर्षस्थ
सन्तप्रवर का सान्निध्य भी प्राप्त हुआ।
पूज्य महाराजश्री
परम्परागत कथावाचक नहीं हैं, क्योंकि कथा उनका साध्य नहीं, साधन है। उनका
उद्देश्य है भारतीय जीवन पद्धति की समग्र खोज अर्थात् भारतीय मानस का
साक्षात्कार। उन्होंने अपने विवेक प्रदीप्त मस्तिष्क से, विशाल परिकल्पना
से श्रीरामचरितमानस के अन्तर्रहस्यों का उद्घाटन किया है। आपने जो
अभूतपूर्व एवं अनूठी दिव्य दृष्टि प्रदान की है, जो भक्ति-ज्ञान का
विश्लेषण तथा समन्वय, शब्द ब्रह्म के माध्यम से विश्व के सम्मुख रखा है, उस
प्रकाध स्तम्भ के दिग्दर्शन में आज सारे इष्ट मार्ग आलोकित हो रहे हैं।
आपके अनुपम शास्त्रीय पाण्डित्य द्वारा, न केवल आस्तिकों का ही ज्ञानवर्धन
होता है अपितु नयी पीढ़ी के शंकालु युवकों में भी धर्म और कर्म का भाव संचित
हो जाता है। ‘कीरति भनिति भूति भली सोई’ ........ के अनुरूप ही आपने ज्ञान
की सुरसरि अपने उदार व्यक्तित्व से प्रबुद्ध और साधारण सभी प्रकार के
लोगों में प्रवाहित करके ‘बुध विश्राम’ के साथ-साथ सकल जन रंजनी बनाने में
आप यज्ञरत हैं। मानस सागर में बिखरे हुए विभिन्न रत्नों को संजोकर आपने
अनेक आभूषण रूपी ग्रन्थों की सृष्टि की है। मानस-मन्थन, मानस-चिन्तन,
मानस-दर्पण, मानस-मुक्तावली, मानस-चरितावली जैसी आपकी अनेकानेक अमृतमयी अमर
कृतियाँ हैं जो दिग्दिगन्तर तक प्रचलित रहेंगी। आज भी वह लाखों लोगों को
रामकथा का अनुपम पीयूष वितरण कर रही हैं और भविष्य में भी अनुप्राणित एवं
पे्ररित करती रहेंगी। तदुपरान्त अन्तर्राष्ट्रीय रामायण सम्मेलन नामक
अन्तर्राष्ट्रीय संस्था के भी आप अध्यक्ष रहे।
निष्कर्षतः आप अपने
प्रवचन, लेखन और सम्प्रति शिष्य परम्परा द्वारा जिस रामकथा पीयूष का
मुक्तहस्त से वितरण कर रहे हैं, वह जन-जन के तप्त एवं शुष्क मानस में
नवशक्ति का सिंचन कर रही है, शान्ति प्रदान कर समाज में आध्यात्मिक एवं
दार्शनिक चेतना जाग्रत् कर रही है।
परमपूज्य महाराजश्री का स्वर उसी वंशी के समान है,
जो ‘स्वर सन्धान’ कर सभी को मन्त्रमुग्ध कर देती है। वंशी में भगवान् का
स्वर ही गूँजता है। उसका कोई अपना स्वर नहीं होता। परमपूज्य महाराजश्री भी
एक ऐसी वंशी हैं, जिसमें भगवान् के स्वर का स्पन्दन होता है। साथ-साथ उनकी
वाणी के तरकश से निकले, वे तीक्ष्ण विवेक के बाण अज्ञान-मोह-जन्य पीड़ित
जीवों की भ्रान्तियों, दुर्वृत्तियों एवं दोषो का संहार करते हैं। यों आप
श्रद्धा और भक्ति की निर्मल मन्दाकिनी प्रवाहित करते हुए महान्
लोक-कल्याणकारी कार्य सम्पन्न कर रहे हैं।
रामायणम् आश्रम अयोध्या
जहाँ महाराजश्री ने 9 अगस्त सन् 2002 को समाधि ली वहाँ पर अनेकों
मत-मतान्तरों वाले लोग जब साहित्य प्राप्त करने आते हैं तो महाराजश्री के
प्रति वे ऐसी भावनाएँ उड़ेलते हैं कि मन होता है कि महाराजश्री को इन्हीं की
दृष्टि से देखना चाहिए। वे अपना सबकुछ न्यौछावर करना चाहते हैं उनके
चिन्तन पर। महाराजश्री के चिन्तन ने रामचरितमानस के पूरे घटनाक्रम को और
प्रत्येक पात्र की मानसिकता को जिस तरह से प्रस्तुत किया है उसको पढ़कर आपको
ऐसा लगेगा कि आप उस युग के एक नागरिक हैं और वे घटनाएँ आपके जीवन का सत्य
हैं।
हम उन सभी श्रेष्ठ वक्ताओं के प्रति भी अपनी
हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करते हैं तो महाराजश्री के चिन्तन को पढ़कर प्रवचन
करते हैं और मंच से उनका नाम बोलकर उनकी भावनात्मक आरती उतारकर अपने बड़प्पन
का परिचय देते हैं।
रामायणम् ट्रस्ट के सभी
ट्रस्टीगण इस भावना से ओत-प्रोत हैं कि ट्रस्ट की सबसे प्रमुख सेवा यही
होनी चाहिए कि वह एक स्वस्थ चिन्तन के प्रचार-प्रसार में जनता को दिशा एवं
दृष्टि दे और ऐसा सन्तुलित चिन्तन परम पूज्य श्रीरामकिंकरजी महाराज में
प्रकाशित होता और प्रकाशित करता दिखता है। सभी पाठकों के प्रति मेरी
हार्दिक मंगलकामनाएँ।
हम चाकर रघुवीर के, पटौ लिखो दरबार।
अब तुलसी का होइंगे, नर के मनसबदार ।।
जब
गोस्वामी तुलसी दास को सम्राट अकबर ने अपनी मनसबदारी प्रदान करी तब
उन्होंने इन पंक्तियों के माध्यम से स्वयं को रघुवीर अर्थात् श्रीराम का
दास बताया एवं किसी और के अधीन कार्य करने को मना कर दिया। सही भी है
प्रभुराम की चाकरी से अच्छा क्या हो सकता है। श्रीराम के सेवक को ही
रामकिंकर कहते हैं।
पूज्य महाराज श्री रामकिंकर जी उपाध्याय ने राम
कथा के हर पहलू को अपने ही ढंग से परिभाषित किया है वे वास्तव में युग
तुलसी ही हैं।
पूज्य महाराज श्री के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को
जन साधारण तक पहुंचाने के उद्देष्य से हम सभी ने इस बेवसाइट का निर्माण
किया है। हम आशांवित हैं कि हमें आप सभी का सहयोग प्राप्त होगा।
- मंदाकिनी श्री रामकिंकर "
रामायणम् ट्रस्ट परम पूज्य महाराजश्री रामकिंकरजी द्वारा संस्थापित एक ऐसी संस्था है जो तुलसी साहित्य और उसके महत् उद्देश्यों को समर्पित है। मेरा मानना है कि परम पूज्य महाराजश्री की लेखनी से ही तुलसीदासजी को पढ़ा जा सकता है। महाराजश्री के साहित्य और चिन्तन को समझे बिना तुलसीदासजी के हृदय को समझ पाना असम्भव है।