27 जून, 2012

आचार्य चाणक्य

 

 आचार्य चाणक्य एक ऐसी महान विभूति थे, जिन्होंने अपनी विद्वत्ता और क्षमताओं के बल पर भारतीय इतिहास की धारा को बदल दिया। मौर्य साम्राज्य के संस्थापक चाणक्य कुशल राजनीतिज्ञ, चतुर कूटनीतिज्ञ, प्रकांड अर्थशास्त्री के रूप में भी विश्वविख्‍यात हुए। 


इतनी सदियाँ गुजरने के बाद आज भी यदि चाणक्य के द्वारा बताए गए सिद्धांत ‍और नीतियाँ प्रासंगिक हैं तो मात्र इसलिए क्योंकि उन्होंने अपने गहन अध्‍ययन, चिंतन और जीवानानुभवों से अर्जित अमूल्य ज्ञान को, पूरी तरह नि:स्वार्थ होकर मानवीय कल्याण के उद्‍देश्य से अभिव्यक्त किया।

वर्तमान दौर की सामाजिक संरचना, भूमंडलीकृत अर्थव्यवस्था और शासन-प्रशासन को सुचारू ढंग से बताई गई ‍नीतियाँ और सूत्र अत्यधिक कारगर सिद्ध हो सकते हैं। चाणक्य नीति के द्वितीय अध्याय से यहाँ प्रस्तुत हैं कुछ अंश -

1. जिस प्रकार सभी पर्वतों पर मणि नहीं मिलती, सभी हाथियों के मस्तक में मोती उत्पन्न नहीं होता, सभी वनों में चंदन का वृक्ष नहीं होता, उसी प्रकार सज्जन पुरुष सभी जगहों पर नहीं मिलते हैं।

2. झूठ बोलना, उतावलापन दिखाना, दुस्साहस करना, छल-कपट करना, मूर्खतापूर्ण कार्य करना, लोभ करना, अपवित्रता और निर्दयता - ये सभी स्त्रियों के स्वाभाविक दोष हैं। चाणक्य उपर्युक्त दोषों कस्त्रियों का स्वाभाविक गुण मानते हैं। हालाँकि वर्तमान दौर की शिक्षित स्त्रियों में इन दोषों का होना सही नहीं कहा जा सकता है।

3. भोजन के लिए अच्छे पदार्थों का उपलब्ध होना, उन्हें पचाने की शक्ति का होना, सुंदर स्त्री के साथ संसर्ग के लिए कामशक्ति का होना, प्रचुर धन के साथ-साथ धन देने की इच्छा होना। ये सभी सुख मनुष्य को बहुत कठिनता से प्राप्त होते हैं।

4. चाणक्य कहते हैं कि जिस व्यक्ति का पुत्र उसके नियंत्रण में रहता है, जिसकी पत्नी आज्ञा के अनुसार आचरण करती है और जो व्यक्ति अपने कमाए धन से पूरी तरह संतुष्ट रहता है। ऐसे मनुष्य के लिए यह संसार ही स्वर्ग के समान है।

5. चाणक्य का मानना है कि वही गृहस्थी सुखी है, जिसकी संतान उनकी आज्ञा का पालन करती है। पिता का भी कर्तव्य है कि वह पुत्रों का पालन-पोषण अच्छी तरह से करे। इसी प्रकार ऐसे व्यक्ति को मित्र नहीं कहा जा सकता है, जिस पर विश्वास नहीं किया जा सके और ऐसी पत्नी व्यर्थ है जिससे किसी प्रकार का सुख प्राप्त न हो।

6. जो मित्र आपके सामने चिकनी-चुपड़ी बातें करता हो और पीठ पीछे आपके कार्य को बिगाड़ देता हो, उसे त्याग देने में ही भलाई है। चाणक्य कहते हैं कि वह उस बर्तन के समान है, जिसके ऊपर के हिस्से में दूध लगा है परंतु अंदर विष भरा हुआ होता है।

7. जिस प्रकार पत्नी के वियोग का दुख, अपने भाई-बंधुओं से प्राप्त अपमान का दुख असहनीय होता है, उसी प्रकार कर्ज से दबा व्यक्ति भी हर समय दुखी रहता है। दुष्ट राजा की सेवा में रहने वाला नौकर भी दुखी रहता है। निर्धनता का अभिशाप भी मनुष्य कभी नहीं भुला पाता। इनसे व्यक्ति की आत्मा अंदर ही अंदर जलती रहती है।

8. ब्राह्मणों का बल विद्या है, राजाओं का बल उनकी सेना है, वैश्यों का बल उनका धन है और शूद्रों का बल दूसरों की सेवा करना है। ब्राह्मणों का कर्तव्य है कि वे विद्या ग्रहण करें। राजा का कर्तव्य है कि वे सैनिकों द्वारा अपने बल को बढ़ाते रहें। वैश्यों का कर्तव्य है कि वे व्यापार द्वारा धन बढ़ाएँ, शूद्रों का कर्तव्य श्रेष्ठ लोगों की सेवा करना है।

9. चाणक्य का कहना है कि मूर्खता के समान यौवन भी दुखदायी होता है क्योंकि जवानी में व्यक्ति कामवासना के आवेग में कोई भी मूर्खतापूर्ण कार्य कर सकता है। परंतु इनसे भी अधिक कष्टदायक है दूसरों पर आश्रित रहना।

10. चाणक्य कहते हैं कि बचपन में संतान को जैसी शिक्षा दी जाती है, उनका विकास उसी प्रकार होता है। इसलिए माता-पिता का कर्तव्य है कि वे उन्हें ऐसे मार्ग पर चलाएँ, जिससे उनमें उत्तम चरित्र का विकास हो क्योंकि गुणी व्यक्तियों से ही कुल की शोभा बढ़ती है।

11. वे माता-पिता अपने बच्चों के लिए शत्रु के समान हैं, जिन्होंने बच्चों को ‍अच्छी शिक्षा नहीं दी। क्योंकि अनपढ़ बालक का विद्वानों के समूह में उसी प्रकार अपमान होता है जैसे हंसों के झुंड में बगुले की स्थिति होती है। शिक्षा विहीन मनुष्य बिना पूँछ के जानवर जैसा होता है, इसलिए माता-पिता का कर्तव्य है कि वे बच्चों को ऐसी शिक्षा दें जिससे वे समाज को सुशोभित करें।

12. चाणक्य कहते हैं कि अधिक लाड़ प्यार करने से बच्चों में अनेक दोष उत्पन्न हो जाते हैं। इसलिए यदि वे कोई गलत काम करते हैं तो उसे नजरअंदाज करके लाड़-प्यार करना उचित नहीं है। बच्चे को डाँटना भी आवश्यक है।

13. शिक्षा और अध्ययन की महत्ता बताते हुए चाणक्य कहते हैं कि मनुष्य का जन्म बहुत सौभाग्य से मिलता है, इसलिए हमें अपने अधिकाधिक समय का वे‍दादि शास्त्रों के अध्ययन में तथा दान जैसे अच्छे कार्यों में ही सदुपयोग करना चाहिए।

14. चाणक्य कहते हैकि जो व्यक्ति अच्छा मित्र नहीं है उस पर तो विश्वास नहीं करना चाहिए, परंतु इसके साथ ही अच्छे मित्र के संबंद में भी पूरा विश्वास नहीं करना चाहिए, क्योंकि यदि वह नाराज हो गया तो आपके सारे भेद खोल सकता है। अत: सावधानी अत्यंत आवश्यक है।

चाणक्य का मानना है कि व्यक्ति को कभी अपने मन का भेद नहीं खोलना चाहिए। उसे जो भी कार्य करना है, उसे अपने मन में रखे और पूरी तन्मयता के साथ समय आने पर उसे पूरा करना चाहिए।

15. चाणक्य के अनुसानदी के किनारे स्थित वृक्षों का जीवन अनिश्चित होता है, क्योंकि नदियाँ बाढ़ के समय अपने किनारे के पेड़ों को उजाड़ देती हैं। इसी प्रकार दूसरे के घरों में रहने वाली स्त्री भी किसी समय पतन के मार्ग पर जा सकती है। इसी तरह जिस राजा के पास अच्छी सलाह देने वाले मंत्री नहीं होते, वह भी बहुत समय तक सुरक्षित नहीं रह सकता। इसमें जरा भी संदेह नहीं करना चाहिए।

17. चाणक्य कहते हैं कि जिस तरह वेश्या धन के समाप्त होने पर पुरुष से मुँह मोड़ लेती है। उसी तरह जब राजा शक्तिहीन हो जाता है तो प्रजा उसका साथ छोड़ देती है। इसी प्रकार वृक्षों पर रहने वाले पक्षी भी तभी तक किसी वृक्ष पर बसेरा रखते हैं, जब तक वहाँ से उन्हें फल प्राप्त होते रहते हैं। अतिथि का जब पूरा स्वागत-सत्कार कर दिया जाता है तो वह भी उस घर को छोड़ देता है।

18. बुरे चरित्र वाले, अकारण दूसरों को हानि पहुँचाने वाले तथा अशुद्ध स्थान पर रहने वाले व्यक्ति के साथ जो पुरुष मित्रता करता है, वह शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। आचार्य चाणक्य का कहना है मनुष्य को कुसंगति से बचना चाहिए। वे कहते हैं कि मनुष्य की भलाई इसी में है कि वह जितनी जल्दी हो सके, दुष्ट व्यक्ति का साथ छोड़ दे।

19. चाणक्य कहते हैं कि मित्रता, बराबरी वाले व्यक्तियों में ही करना ठीक रहता है। सरकारी नौकरी सर्वोत्तम होती है और अच्छे व्यापार के लिए व्यवहारकुशल होना आवश्यक है। इसी तरह सुंदर व सुशील स्त्री घर में ही शोभा देती है।
विश्व भर के शिक्षकों तथा राजनीतिज्ञों के लिए चाणक्य का व्यक्तित्व अनुकरणीय एवं आदर्श है। उनके चरित्र के पीछे उनकी महानता, कर्मनिष्ठा और दृढप्रतिज्ञता तथा साहस नजर आता है।

चाणक्य भारतीय राजनीति और अर्थशास्त्र के पहले विचारक माने जाते हैं। तक्षशिला विश्वविद्यालय में आचार्य रहे चाणक्य राजनीति के चतुर खिलाड़ी थे। इसी वजह से उनकी नीति व्यावहारिक ज्ञान और उनके आदर्शों पर टिकी है। आइए जानते हैं उनके आदर्श और व्यावहारिक गुणों से संबंधित कुछ खास बातें :-

* किसी भी प्रकार की मित्रता के पीछे भी कुछ न कुछ स्वार्थ जरूर छिपा होता है।

* अपने रहस्यों को किसी पर भी उजागर मत करो। यह आदत स्वयं के लिए ही घातक सिद्ध होगी।

* जब आपका बच्चा जवानी की दहलीज पर पैर रखें यानी कि सोलह-सत्रह वर्ष का होने लगे तब आप संभल जाए और उसके साथ एक दोस्त की तरह व्यवहार करें। यह बहुत जरूरी है।

* टीनएज बच्चों के साथ हमेशा दोस्ती का व्यवहार करने से वे आपके सबसे अच्छे दोस्त होते हैं।

* अपने ईमान और धर्म बेचकर कर कमाया गया धन अपने किसी काम का नहीं होता। अत: उसका त्याग करें। आपके लिए यही उत्तम है।

* जो लोग हमेशा दूसरों की बुराई करके खुश होते हो। ऐसे लोगों से दूर ही रहें। क्योंकि वे कभी भी आपके साथ धोखा कर सकते है। जो किसी और का ना हुआ वो भला आपका क्या होगा।

* जीवन में पुरानी बातों को भुला देना ही उचित होता है। अत: अपनी गलत बातों को भुलाकर वर्तमान को सुधारते हुए जीना चाहिए।

* जीवन काल में बहुत जरूरी है कि अपने ऊपर आने वाले संकट के लिए कुछ धन हमेशा बचाकर रखें। बुरे समय में यही आपका रक्षाकवच बनेगा।

* किसी भी व्यक्ति को जरूरत से ज्यादा ईमानदार नहीं होना चाहिए। बहुत ज्यादा ईमानदार लोगों को ही सबसे ज्यादा कष्ट उठाने पड़ते हैं।

* अगर कोई व्यक्ति कमजोर है तब भी उसे हर समय अपनी कमजोरी का प्रदर्शन नहीं करना चाहिए।

26 जून, 2012

पद्म भूषण श्री पंडित रामकिंकर उपाध्याय जी महाराज





पद्म  भूषण श्री पंडित  रामकिंकर  उपाध्याय  जी महाराज -

मानस मर्मज्ञ


वर्ष  1984 में बिरला मंदिर , नयी दिल्ली के प्रांगण में  बिरला अकादमी आफ आर्ट एंड कल्चर के तत्वावधान में आयोजित मानस प्रवचन के सत्र में  महाराज श्री को सुनाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था. पूज्य   श्री कपिल देव त्रिपाठी जी  के साथ हम नियमित जाते थे . कथा सुनते सुनते श्रोताओं का आत्म विभोर हो जाना एक सहज अध्यात्मिक प्रक्रिया लगाती थी. नव रात्र प्रवचन का कार्य क्रम कब बीत गया पता ही नहीं चला.चाहकर भी यह संयोग नहीं बन  पाता था.पुणे में उनके कार्यक्रम की  उम्मीद बहुत कम लगती थी.

दैव योग से जून  2000 में  महाराज श्री का कार्य क्रम बना पुणे आने के लिए बना . यह जान कर अभूतपूर्व प्रसन्नता की अनुभूति हुई. 16 जून 2000   को  नेहरु मेमोरिअल हाल उनका प्रवचन सुनाने का सौभाग्य मिला.पुरानी बातें भी हुयीं.  महाराज श्री महाराज श्री को जब   मैंने बताया की 1984  के बाद अब मन की इक्छा पुनः सुनने की पूरी हुई है, उन्हें बड़ा अच्छा लगा और आशीर्वाद भी मिला I
 वह  पुस्तक मानस प्रवचन -जीवन पथ सप्तम पुष्प  भी मिल गयी जिसमें नौ दिन तक ....
राम सप्रेम कहेउ मुनि पाहीं ।
नाथ कहिअ हम कही मग जाहीं ॥
मुनि मन बिहँसी   राम सन कहहीं।
सुगम सकल मग तुम्ह कहूँ अहहीं ॥
.......... का विषद विश्लेषण प्रतिदिन एक नविन रूप में श्रवण करने का सौभाग्य मिला  था.



Pt.Ram Kinkar Upadhyay was  a noted scholar on Indian scriptures and a recipient of Padma Bhushan - the third highest civil award of India - in 1999. He hails from Uttar Pradesh. He was born on 1st of Nov 1924 in Jabalpur but his ancestors were from village Barainin in UP. He left for his heavenly abode on 9 August 2002.From the age of 19 to 78, he wrote about 84 books - mainly on Ramcharitmanas. He used to place his point of view without disturbing or insulting any person holding totally contrasting view. Now his thoughts and preachings are brought forward by his shishya Umashankar Byas and MaithiliSharan (Bhai Ji).Umashanker Jee leave his home in age of 13 in charan vandana of Gurujee. Latter Umashankar jee's brother in law Bhai jee also joined.


आज वेब साईट महाराज श्री पर जानकारी पा  कर बड़ा आनंद आया http://ramkinker.co. in   से  साभार प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहा हूँ ;


" प्रभु की कृपा और प्रभु की वाणी का यदि कोई सार्थक पर्यायवाची शब्द ढूंढा जाए, तो वह हैं - प्रज्ञापुरूष, भक्तित्व द्रष्टा, सन्त प्रवर, ‘परमपूज्य महाराजश्री रामकिंकर जी उपाध्याय।’ अपनी अमृतमयी, धीर, गम्भीर-वाणी-माधुर्य द्वारा भक्ति रसाभिलाषी-चातकों को, जनसाधारण एवं बुद्धिजीवियों को, नानापुराण निगमागम षट्शास्त्र वेदों का दिव्य रसपान कराकर रससिक्त करते हुए, प्रतिपल निज व्यक्तित्व व चरित्र में श्रीरामचरितमानस के ब्रह्म राम की कृपामयी विभूति एवं दिव्यलीला का भावात्मक साक्षात्कार कराने वाले पूज्य महाराज श्री आधुनिक युग के परम तेजस्वी मनीषी, मानस के अद्भुत शिल्पकार, रामकथा के अद्वितीय अधिकारी व्याख्याकार थे ।

भक्त-हृदय, रामानुरागी पूज्य महाराजश्री ने अपने अनवरत अध्यवसाय से श्रीरामचरितमानस की मर्मस्पर्शी भावभागीरथी बहाकर अखिल विश्व को अनुप्राणित कर दिया है। आपने शास्त्रदर्शन, मानस के अध्ययन के लिये जो नवीन दृष्टि और दिशा प्रदान की है, वह इस युग की एक दुर्लभ अद्वितीय उपलब्धि है - 
धेनवः सन्तु पन्थानः दोग्धा हुलसिनन्दनः।
दिव्यराम-कथा दुग्धं प्रस्तोता रामकिंकर।।

जन्म से ही होनहार व प्रखर बुद्धि के आप स्वामी रहे हैं। आपकी शिक्षा-दीक्षा जबलपुर व काशी में हुई। स्वभाव से ही अत्यन्त संकोची एवं शान्त प्रकृति के बालक रामकिंकर अपनी अवस्था के बच्चों की अपेक्षा कुछ अधिक गम्भीर थे। एकान्तप्रिय, चिन्तनरत, विलक्षण प्रतिभावाले सरल बालक अपनी शाला में अध्यापकों के भी अत्यन्त प्रिय पात्र थे। बाल्यावस्था से ही आपकी मेधाशक्ति इतनी विकसित थी कि क्लिष्ट एवं गम्भीर लेखन, देश-विदेश का विशद साहित्य अल्पकालीन अध्ययन में ही आपके स्मृति पटल पर अमिट रूप से अंकित हो जाता था। प्रारम्भ से ही पृष्ठभूमि के रूप में माता-पिता के धार्मिक विचार एवं संस्कारों का प्रभाव आप पर पड़ा। परन्तु परम्परानुसार पिता के अनुगामी वक्ता बनने का न तो कोई संकल्प था, न कोई अभिरूचि।

कालान्तर में विद्यार्थी जीवन में पूज्य महाराजश्री के साथ एक ऐसी चामत्कारिक घटना हुई कि जिसके फलस्वरूप आपके जीवन ने एक नया मोड़ लिया। 18 वर्ष की अल्प अवस्था में जब पूज्य महाराजश्री अध्ययनरत थे, तब अपने कुलदेवता श्री हनुमानजी महाराज का आपको अलौकिक स्वप्नदर्शन हुआ, जिसमें उन्होंने आपको वटवृक्ष के नीचे शुभासीन करके दिव्य तिलक कर आशीर्वाद देकर कथा सुनाने का आदेश दिया। स्थूल रूप में इस समय आप बिलासपुर में अपने पूज्य पिता के साथ छुट्टियाँ मना रहे थे। यहाँ पिताश्री की कथा चल रही थी। ईश्वरीय संकल्पनानुसार परिस्थिति भी अचानक कुछ ऐसी बन गई कि अनायास ही, पूज्य महाराजश्री के श्रीमुख से भी पिताजी के स्थान पर कथा कहने का प्रस्ताव एकाएक निकल गया।
आपके द्वारा श्रोता समाज के सम्मुख यह प्रथम भाव प्रस्तुति थी। किन्तु कथन शैली व वैचारिक श्रृंखला कुछ ऐसी मनोहर बनी कि श्रोतासमाज विमुग्ध होकर, तन-मन व सुध-बुध खोकर उसमें अनायास ही बँध गया। आप तो रामरस की भावमाधुरी की बानगी बनाकर, वाणी का जादू कर मौन थे, किन्तु श्रोता समाज आनन्दमग्न होने पर भी अतृप्त था। इस प्रकार प्रथम प्रवचन से ही मानस प्रेमियों के अन्तर में गहरे पैठकर आपने अभिन्नता स्थापित कर ली।

ऐसा भी कहा जाता है कि 20 वर्ष की अल्प अवस्था में आपने एक और स्वप्न देखा, जिसकी प्रेरणा से गोस्वामी तुलसीदास के ग्रन्थों के प्रचार एवं उनकी खोजपूर्ण व्याख्या में ही अपना समस्त जीवन समर्पित कर देने का दृढ़ संकल्प कर लिया। यह बात अकाट्य है कि प्रभु की प्रेरणा और संकल्प से जिस कार्य का शुभारम्भ होता है, वह मानवीय स्तर से कुछ अलग ही गति-प्रगति वाला होता है। शैली की नवीनता व चिन्तनप्रधान विचारधारा के फलस्वरूप आप शीघ्र ही विशिष्टतः आध्यात्मिक जगत में अत्यधिक लोकप्रिय हो गए।



ज्ञान-विज्ञान पथ में पूज्यपाद महाराजश्री की जितनी गहरी पैठ थी, उतना ही प्रबल पक्ष, भक्ति साधना का, उनके जीवन में दर्शित होता है। वैसे तो अपने संकोची स्वभाव के कारण उन्होंने अपने जीवन की दिव्य अनुभूतियों का रहस्योद्घाटन अपने श्रीमुख से बहुत आग्रह के बावजूद नहीं किया। पर कहीं-कहीं उनके जीवन के इस पक्ष की पुष्टि दूसरों के द्वारा जहाँ-तहाँ प्राप्त होती रही। उसी क्रम में उत्तराखण्ड की दिव्य भूमि ऋषिकेश में श्रीहनुमानजी महाराज का प्रत्यक्ष साक्षात्कार, निष्काम भाव से किए गए, एक छोटे से अनुष्ठान के फलस्वरूप हुआ। वैसे ही श्री चित्रकूट धाम की दिव्य भूमि में अनेकानेक अलौकिक घटनाएँ परम पूज्य महाराजश्री के साथ घटित हुईं। जिनका वर्णन महाराजश्री के निकटस्थ भक्तों के द्वारा सुनने को मिला। परमपूज्य महाराजश्री अपने स्वभाव के अनुकूल ही इस विषय में सदैव मौन रहे।



प्रारम्भ में भगवान् श्रीकृष्ण की दिव्य लीलाभूमि वृन्दावन धाम के परमपूज्य महाराज श्री, ब्रह्मलीन स्वामी श्रीअखण्डानन्दजी महाराज के आदेश पर आप वहाँ कथा सुनाने गए। वहाँ एक सप्ताह तक रहने का संकल्प था। पर यहाँ के भक्त एवं साधु-सन्त समाज में आप इतने लोकप्रिय हुए कि उस तीर्थधाम ने आपको ग्यारह माह तक रोक लिया। उन्हीं दिनों में आपको वहाँ के महान् सन्त अवधूत श्रीउड़िया बाबाजी महाराज, भक्त शिरोमणि श्रीहरिबाबाजी महाराज, स्वामी श्रीअखण्डानन्दजी महाराज को भी कथा सुनाने का सौभाग्य मिला। कहा जाता है कि अवधूत पूज्य श्रीउड़िया बाबा, इस होनहार बालक के श्रीमुख से निःसृत, विस्मित कर देने वाली वाणी से इतने अधिक प्रभावित थे कि वे यह मानते थे कि यह किसी पुरूषार्थ या प्रतिभा का परिणाम न होकर के शुद्ध भगवत्कृपा प्रसाद है। उनके शब्दों में - “क्या तुम समझते हो, कि यह बालक बोल रहा है? इसके माध्यम से तो साक्षात् ईश्वरीय वाणी का अवतरण हुआ है।”



इसी बीच अवधूत श्रीउड़िया बाबा से सन्यास दीक्षा ग्रहण करने का संकल्प आपके हृदय में उदित हुआ और परमपूज्य बाबा के समक्ष अपनी इच्छा प्रकट करने पर बाबा के द्वारा लोक एवं समाज के कल्याण हेतु शुद्ध सन्यास वृत्ति से जनमानस सेवा की आज्ञा मिली।

सन्त आदेशानुसार एवं ईश्वरीय संकल्पानुसार मानस प्रचार-प्रसार की सेवा दिन-प्रतिदिन चारों दिशाओं में व्यापक होती गई। उसी बीच काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से आपका सम्पर्क हुआ। काशी में प्रवचन चल रहा था। उस गोष्ठी में एक दिन भारतीय पुरातत्व और साहित्य के प्रकाण्ड विद्वान एवं चिन्तक श्री वासुदेव शरण अग्रवाल आपकी कथा सुनने के लिये आए और आपकी विलक्षण एवं नवीन चिन्तन शैली से इतने अधिक प्रभावित हुए कि उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के कुलपति श्री वेणीशंकर झा एवं रजिस्ट्रार श्री शिवनन्दनजी दर से च्तवकपहपने (विलक्षण प्रतिभायुक्त) प्रवक्ता के प्रवचन का आयोजन विश्वविद्यालय प्रांगण में रखने का आग्रह किया। आपकी विद्वत्ता इन विद्वानों के मनोमस्तिष्क को ऐसे उद्वेलित कर गई कि आपको अगले वर्ष से ‘विजिटिंग प्रोफेसर’ के नाते काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में व्याख्यान देने के लिये निमन्त्रित किया गया। इसी प्रकार काशी में आपका अनेक सुप्रसिद्ध साहित्यकार जैसे श्री हजारी प्रसाद द्विवेदी, श्री महादेवी वर्मा से साक्षात्कार एवं शीर्षस्थ सन्तप्रवर का सान्निध्य भी प्राप्त हुआ।



पूज्य महाराजश्री परम्परागत कथावाचक नहीं हैं, क्योंकि कथा उनका साध्य नहीं, साधन है। उनका उद्देश्य है भारतीय जीवन पद्धति की समग्र खोज अर्थात् भारतीय मानस का साक्षात्कार। उन्होंने अपने विवेक प्रदीप्त मस्तिष्क से, विशाल परिकल्पना से श्रीरामचरितमानस के अन्तर्रहस्यों का उद्घाटन किया है। आपने जो अभूतपूर्व एवं अनूठी दिव्य दृष्टि प्रदान की है, जो भक्ति-ज्ञान का विश्लेषण तथा समन्वय, शब्द ब्रह्म के माध्यम से विश्व के सम्मुख रखा है, उस प्रकाध स्तम्भ के दिग्दर्शन में आज सारे इष्ट मार्ग आलोकित हो रहे हैं। आपके अनुपम शास्त्रीय पाण्डित्य द्वारा, न केवल आस्तिकों का ही ज्ञानवर्धन होता है अपितु नयी पीढ़ी के शंकालु युवकों में भी धर्म और कर्म का भाव संचित हो जाता है। ‘कीरति भनिति भूति भली सोई’ ........ के अनुरूप ही आपने ज्ञान की सुरसरि अपने उदार व्यक्तित्व से प्रबुद्ध और साधारण सभी प्रकार के लोगों में प्रवाहित करके ‘बुध विश्राम’ के साथ-साथ सकल जन रंजनी बनाने में आप यज्ञरत हैं। मानस सागर में बिखरे हुए विभिन्न रत्नों को संजोकर आपने अनेक आभूषण रूपी ग्रन्थों की सृष्टि की है। मानस-मन्थन, मानस-चिन्तन, मानस-दर्पण, मानस-मुक्तावली, मानस-चरितावली जैसी आपकी अनेकानेक अमृतमयी अमर कृतियाँ हैं जो दिग्दिगन्तर तक प्रचलित रहेंगी। आज भी वह लाखों लोगों को रामकथा का अनुपम पीयूष वितरण कर रही हैं और भविष्य में भी अनुप्राणित एवं पे्ररित करती रहेंगी। तदुपरान्त अन्तर्राष्ट्रीय रामायण सम्मेलन नामक अन्तर्राष्ट्रीय संस्था के भी आप अध्यक्ष रहे।


निष्कर्षतः आप अपने प्रवचन, लेखन और सम्प्रति शिष्य परम्परा द्वारा जिस रामकथा पीयूष का मुक्तहस्त से वितरण कर रहे हैं, वह जन-जन के तप्त एवं शुष्क मानस में नवशक्ति का सिंचन कर रही है, शान्ति प्रदान कर समाज में आध्यात्मिक एवं दार्शनिक चेतना जाग्रत् कर रही है।
परमपूज्य महाराजश्री का स्वर उसी वंशी के समान है, जो ‘स्वर सन्धान’ कर सभी को मन्त्रमुग्ध कर देती है। वंशी में भगवान् का स्वर ही गूँजता है। उसका कोई अपना स्वर नहीं होता। परमपूज्य महाराजश्री भी एक ऐसी वंशी हैं, जिसमें भगवान् के स्वर का स्पन्दन होता है। साथ-साथ उनकी वाणी के तरकश से निकले, वे तीक्ष्ण विवेक के बाण अज्ञान-मोह-जन्य पीड़ित जीवों की भ्रान्तियों, दुर्वृत्तियों एवं दोषो का संहार करते हैं। यों आप श्रद्धा और भक्ति की निर्मल मन्दाकिनी प्रवाहित करते हुए महान् लोक-कल्याणकारी कार्य सम्पन्न कर रहे हैं।



रामायणम् आश्रम अयोध्या जहाँ महाराजश्री ने 9 अगस्त सन् 2002 को समाधि ली वहाँ पर अनेकों मत-मतान्तरों वाले लोग जब साहित्य प्राप्त करने आते हैं तो महाराजश्री के प्रति वे ऐसी भावनाएँ उड़ेलते हैं कि मन होता है कि महाराजश्री को इन्हीं की दृष्टि से देखना चाहिए। वे अपना सबकुछ न्यौछावर करना चाहते हैं उनके चिन्तन पर। महाराजश्री के चिन्तन ने रामचरितमानस के पूरे घटनाक्रम को और प्रत्येक पात्र की मानसिकता को जिस तरह से प्रस्तुत किया है उसको पढ़कर आपको ऐसा लगेगा कि आप उस युग के एक नागरिक हैं और वे घटनाएँ आपके जीवन का सत्य हैं।

हम उन सभी श्रेष्ठ वक्ताओं के प्रति भी अपनी हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करते हैं तो महाराजश्री के चिन्तन को पढ़कर प्रवचन करते हैं और मंच से उनका नाम बोलकर उनकी भावनात्मक आरती उतारकर अपने बड़प्पन का परिचय देते हैं।
रामायणम् ट्रस्ट के सभी ट्रस्टीगण इस भावना से ओत-प्रोत हैं कि ट्रस्ट की सबसे प्रमुख सेवा यही होनी चाहिए कि वह एक स्वस्थ चिन्तन के प्रचार-प्रसार में जनता को दिशा एवं दृष्टि दे और ऐसा सन्तुलित चिन्तन परम पूज्य श्रीरामकिंकरजी महाराज में प्रकाशित होता और प्रकाशित करता दिखता है। सभी पाठकों के प्रति मेरी हार्दिक मंगलकामनाएँ।
हम चाकर रघुवीर के, पटौ लिखो दरबार।
अब तुलसी का होइंगे, नर के मनसबदार ।।
जब गोस्वामी तुलसी दास को सम्राट अकबर ने अपनी मनसबदारी प्रदान करी तब उन्होंने इन पंक्तियों के माध्यम से स्वयं को रघुवीर अर्थात् श्रीराम का दास बताया एवं किसी और के अधीन कार्य करने को मना कर दिया। सही भी है प्रभुराम की चाकरी से अच्छा क्या हो सकता है। श्रीराम के सेवक को ही रामकिंकर कहते हैं।
पूज्य महाराज श्री रामकिंकर जी उपाध्याय ने राम कथा के हर पहलू को अपने ही ढंग से परिभाषित किया है वे वास्तव में युग तुलसी ही हैं।
पूज्य महाराज श्री के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को जन साधारण तक पहुंचाने के उद्देष्य से हम सभी ने इस बेवसाइट का निर्माण किया है। हम आशांवित हैं कि हमें आप सभी का सहयोग प्राप्त होगा।
- मंदाकिनी श्री रामकिंकर "






रामायणम् ट्रस्ट परम पूज्य महाराजश्री रामकिंकरजी द्वारा संस्थापित एक ऐसी संस्था है जो तुलसी साहित्य और उसके महत् उद्देश्यों को समर्पित है। मेरा मानना है कि परम पूज्य महाराजश्री की लेखनी से ही तुलसीदासजी को पढ़ा जा सकता है। महाराजश्री के साहित्य और चिन्तन को समझे बिना तुलसीदासजी के हृदय को समझ पाना असम्भव है।

16 जून, 2012

घाघ की कहावतें !!!





घाघ की कहावतें !!!

बचपन में अपने बुजुर्गों से  भिन्न भिन्न अवसरों पर भिन्न भिन्न घाघ की कहावतें सुना करता था । घाघ का अनुभव पर आधारित गूढ़ ज्ञान निश्चय ही अचंभित करने वाला था। जब भी मौसम में कुछ बदलाव प्रतीत होता था , हमारे पूज्य पितामह पंडित सीता राम तिवारी घाघ की कोई न कोई कहावत सुना देते थे ,लोग सहज ही भविष्य का अनुमान लगा लेते थे।बाल्य काल में अल्प बुद्धि के कारन बातें तो समझ में नहीं आती थीं , लेकिन लगता था कुछ बात जरूर है, बहुत अच्छा लगता था.
आज के समय में टीवी व रेडियो पर मौसम संबंधी जानकारी मिल जाती है। लेकिन सदियों पहले न टीवी-रेडियो थे, न सरकारी मौसम विभाग। ऐसे समय में महान किसान कवि घाघ व भड्डरी की कहावतें खेतिहर समाज का पीढि़यों से पथप्रदर्शन करते आयी हैं। बिहार व उत्‍तरप्रदेश के गांवों में ये कहावतें आज भी काफी लोकप्रिय हैं। जहां वैज्ञानिकों के मौसम संबंधी अनुमान भी गलत हो जाते हैं, ग्रामीणों की धारणा है कि घाघ की कहावतें प्राय: सत्‍य साबित होती हैं।
शहंशाह अकबर के दरबार के शान घाघ विद्वान पुरुष थे. घाघ अपनी कहावतों के लिए प्रसिद्ध हैं. घाघ ने मानव जीवन के अनुभवों का सूक्ष्म निरीक्षण कर बहुत सी प्रासंगिक बातें अपनी कहावतों के रूप में कहीं जो समाज में चलती रहीं. घाघ के द्वारा कही गई बहुत सी कहावतें आज भी विज्ञान सम्मत और सही प्रतीत होती हैं.
घाघ के कृषिज्ञान का पूरा पूरा परिचय उनकी कहावतों से मिलता है। उनका यह ज्ञान खादों के विभिन्न रूपों, गहरी जोत, मेंड़ बाँधने, फसलों के बोने के समय, बीज की मात्रा, दालों की खेती के महत्व एवं ज्योतिष ज्ञान, शीर्षकों के अंतर्गत विभाजित किया जा सकता है।
स्वास्थ्य  एवं  सामान्य ज्ञान


1 रहै निरोगी जो कम खाय
बिगरे न काम जो गम खाय

2 प्रातकाल खटिया ते उठि के पियइ तुरते पानी

कबहूँ घर में वैद न अइहैं बात घाघ के जानी

3 मार के टरि रहू

खाइ के परि रहू

4 ओछे बैठक ओछे काम

ओछी बातें आठो जाम
घाघ बताए तीनो निकाम
भूलि न लीजे इनकौ नाम

5 ना अति बरखा ना अति धूप

ना अति बक्ता न अति चूप

6 माघ-पूस की बादरी और कुवारा घाम

ये दोनों जो कोऊ सहे करे पराया काम

7 चींटी संचय तीतर खाय

पापी को धन पर ले जाय

8 धान पान अरू केरा

तीनों पानी के चेरा

9 बाड़ी में बाड़ी करे करे ईख में ईख

वे घर यों ही जाएंगे सुने पराई सीख

10 जेकर खेत पड़ा नहीं गोबर

वही किसान को जानो दूबर

11 जेठ मास जो तपे निरासा

तो जानो बरखा की आसा

12 दिन में गरमी रात में ओस

कहे घाघ बरखा सौ कोस

कृषि
**-**

घाघ का अभिमत था कि कृषि सबसे उत्तम व्यवसाय है, जिसमें किसान भूमि को स्वयं जोतता है :
उत्तम खेती मध्यम बान, निकृष्ट चाकरी, भीख निदान।1।
खेती करै बनिज को धावै, ऐसा डूबै थाह न पावै।2।
उत्तम खेती जो हर गहा, मध्यम खेती जो सँग रहा।3।

अथवा-


जो हल जोतै खेती वाकी, और नहीं तो जाकी ताकी।1।

खादों के संबंध में घाघ के विचार अत्यंत पुष्ट थे। उन्होंने गोबर, कूड़ा, हड्डी, नील, सनई, आदि की खादों को कृषि में प्रयुक्त किए जाने के लिये वैसा ही सराहनीय प्रयास किया जैसा कि 1840 ई. के आसपास जर्मनी के सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक लिबिग ने यूरोप में कृत्रिम उर्वरकों के संबंध में किया था। घाघ की निम्नलिखित कहावतें अत्यंत सारगर्भित हैं :

खाद पड़े तो खेत, नहीं तो कूड़ा रेत।5।

गोबर राखी पाती सड़ै, फिर खेती में दाना पड़ै।6।

सन के डंठल खेत छिटावै, तिनते लाभ चौगुनो पावै।7।


गोबर, मैला, नीम की खली, या से खेती दुनी फली।8।


वही किसानों में है पूरा, जो छोड़ै हड्डी का चूरा 9।

घाघ ने गहरी जुताई को सर्वश्रेष्ठ जुताई बताया। यदि खाद छोड़कर गहरी जोत कर दी जाय तो खेती को बड़ा लाभ पहुँचता है :

छोड़ै खाद जोत गहराई, फिर खेती का मजा दिखाई।10।


बांध न बाँधने से भूमि के आवश्यक तत्व घुल जाते और उपज घट जाती है। इसलिये किसानों को चाहिए कि खेतों में बाँध अथवा मेंड़ बाँधे,

सौ की जोत पचासै जोतै, ऊँच के बाँधै बारी
जो पचास का सौ न तुलै, दव घाघ को गारी।11।

घाघ ने फसलों के बोने का उचित काल एवं बीज की मात्रा का भी निर्देश किया है। उनके अनुसार प्रति बीघे में पाँच पसेरी गेहूँ तथा जौ, छ: पसेरी मटर, तीन पसेरी चना, दो सेर मोथी, अरहर और मास, तथा डेढ़ सेर कपास, बजरा बजरी, साँवाँ कोदों और अंजुली भर सरसों बोकर किसान दूना लाभ उठा सकते हैं। यही नहीं, उन्होंने बीज बोते समय बीजों के बीच की दूरी का भी उल्लेख किया है, जैसे घना-घना सन, मेंढ़क की छलांग पर ज्वार, पग पग पर बाजरा और कपास; हिरन की छँलाग पर ककड़ी और पास पास ऊख को बोना चाहिए। कच्चे खेत को नहीं जोतना चाहिए, नहीं तो बीज में अंकुर नहीं आते। यदि खेत में ढेले हों, तो उन्हें तोड़ देना चाहिए।

आजकल दालों की खेती पर विशेष बल दिया जाता है, क्योंकि उनसे खेतों में नाइट्रोजन की वृद्धि होती है। घाघ ने सनई, नील, उर्द, मोथी आदि द्विदलों को खेत में जोतकर खेतों की उर्वरता बढ़ाने का स्पष्ट उल्लेख किया है। खेतों की उचित समय पर सिंचाई की ओर भी उनका ध्यान था। घाघ को खेती के साथ-साथ लोक समाज की व्यावहारिक बातों का भी बहुत अच्छा ज्ञान था। उनकी कहावतें लोकजीवन में आज भी लोगों की जवान पर रहती हँ I

ज्योतिष ज्ञान पर आधारित  मौसम -भविष्य वाणी ...
सर्व तपै जो रोहिनी, सर्व तपै जो मूर।
परिवा तपै जो जेठ की, उपजै सातो तूर।।

यदि रोहिणी भर तपे और मूल भी पूरा तपे तथा जेठ की प्रतिपदा तपे तो सातों प्रकार के अन्न पैदा होंगे।
शुक्रवार की बादरी, रही सनीचर छाय।
तो यों भाखै भड्डरी, बिन बरसे ना जाए।।

यदि शुक्रवार के बादल शनिवार को छाए रह जाएं, तो भड्डरी कहते हैं कि वह बादल बिना पानी बरसे नहीं जाएगा।
भादों की छठ चांदनी, जो अनुराधा होय।
ऊबड़ खाबड़ बोय दे, अन्न घनेरा होय।।

यदि भादो सुदी छठ को अनुराधा नक्षत्र पड़े तो ऊबड़-खाबड़ जमीन में भी उस दिन अन्न बो देने से बहुत पैदावार होती है।
अद्रा भद्रा कृत्तिका, अद्र रेख जु मघाहि।
चंदा ऊगै दूज को सुख से नरा अघाहि।।

यदि द्वितीया का चन्द्रमा आर्द्रा नक्षत्र, कृत्तिका, श्लेषा या मघा में अथवा भद्रा में उगे तो मनुष्य सुखी रहेंगे।
सोम सुक्र सुरगुरु दिवस, पौष अमावस होय।
घर घर बजे बधावनो, दुखी न दीखै कोय।।

यदि पूस की अमावस्या को सोमवार, शुक्रवार बृहस्पतिवार पड़े तो घर घर बधाई बजेगी-कोई दुखी न दिखाई पड़ेगा।
सावन पहिले पाख में, दसमी रोहिनी होय।
महंग नाज अरु स्वल्प जल, विरला विलसै कोय।।

यदि श्रावण कृष्ण पक्ष में दशमी तिथि को रोहिणी हो तो समझ लेना चाहिए अनाज महंगा होगा और वर्षा स्वल्प होगी, विरले ही लोग सुखी रहेंगे।
पूस मास दसमी अंधियारी।
बदली घोर होय अधिकारी।
सावन बदि दसमी के दिवसे।
भरे मेघ चारो दिसि बरसे।।

यदि पूस बदी दसमी को घनघोर घटा छायी हो तो सावन बदी दसमी को चारों दिशाओं में वर्षा होगी। कहीं कहीं इसे यों भी कहते हैं-‘काहे पंडित पढ़ि पढ़ि भरो, पूस अमावस की सुधि करो।
पूस उजेली सप्तमी, अष्टमी नौमी जाज।
मेघ होय तो जान लो, अब सुभ होइहै काज।।

यदि पूस सुदी सप्तमी, अष्टमी और नवमी को बदली और गर्जना हो तो सब काम सुफल होगा अर्थात् सुकाल होगा।
अखै तीज तिथि के दिना, गुरु होवे संजूत।
तो भाखैं यों भड्डरी, उपजै नाज बहूत।।

यदि वैशाख में अक्षम तृतीया को गुरुवार पड़े तो खूब अन्न पैदा होगा।

सावन सुक्ला सप्तमी, जो गरजै अधिरात।
बरसै तो झुरा परै, नाहीं समौ सुकाल।।

यदि सावन सुदी सप्तमी को आधी रात के समय बादल गरजे और पानी बरसे तो झुरा पड़ेगा; न बरसे तो समय अच्छा बीतेगा।
असुनी नलिया अन्त विनासै।
गली रेवती जल को नासै।। भरनी नासै तृनौ सहूतो।
कृतिका बरसै अन्त बहूतो।।

यदि चैत मास में अश्विनी नक्षत्र बरसे तो वर्षा ऋतु के अन्त में झुरा पड़ेगा; रेतवी नक्षत्र बरसे तो वर्षा नाममात्र की होगी; भरणी नक्षत्र बरसे तो घास भी सूख जाएगी और कृतिका नक्षत्र बरसे तो अच्छी वर्षा होगी।
आसाढ़ी पूनो दिना, गाज बीजु बरसंत।
नासे लच्छन काल का, आनंद मानो सत।।

आषाढ़ की पूणिमा को यदि बादल गरजे, बिजली चमके और पानी बरसे तो वह वर्ष बहुत सुखद बीतेगा।

२१ शताब्दी में जन्मे बच्चे अवश्य इस पर आश्चर्य करेंगे और उन्हें अपने महान पूर्वजों के ज्ञान और अनुभव पर गर्व भी होगा ।आवश्यकता है भोजपुरी भाषा और साहित्य को उचित सम्मान मिले तथा पद्य क्रमों के माध्यम से उन्हें अवगत कराया जाय , इसका बिलुप्त होना हम सब के लिए बड़े दुःख की बात होगी ।





13 जून, 2012

Tairia,SOHNAG,Deoria, Uttar Pradesh

SOHNAG  (सोहनाग )


 My native place TAIRIA is very close to Sohnag which is also known as PARASURAM DHAM SOHNAG which was in Gorakhpur District ,now DEORIA DISTRICT OF UTTAR PRADESH.
Post Office : Sohnag B.O
Pincode : 274509
Status : Branch Office (Delivery)
Head Office : Deoria H.O
Location : SALEMPUR Taluk of DEORIA District
Postal Department Office : DEORIA Division GORAKHPUR Region UTTAR PRADESH Circle
VSAT : GORAKHPUR
VSAT PINCODE : 273001
SPCC : DEORIA
SPCC PINCODE : 274001
Locality : SOHNAG, TILAULI, PRAYAGPUR, JOGAPUR MAFI, LOHRA BABHNAULI,TAIRIA,LOHRAULI.
Map - Sohnag B.O Post Office, SALEMPUR, DEORIA, Uttar Pradesh



 I have got some reference in  The Journal of the Royal Asiatic Society...

(The Journal of the Royal Asiatic Society of Great Britain and Ireland ) . I too please to submit the same.


 

The Journal of the Royal Asiatic Society of Great Britain and Ireland Publication Info

Coverage: 1835-1990 (Vol. 2 - New Series, No. 2)
Note: The content for Vol. 1 (1834) will be released as soon as the issues become available to JSTOR.

Al

Tairia Population - Deoria, Uttar Pradesh

Tairia is a small village located in Salempur of Deoria district, Uttar Pradesh with total 29 families residing. The Tairia village has population of 145 of which 66 are males while 79 are females as per Population Census 2011. 

In Tairia village population of children with age 0-6 is 10 which makes up 6.90 % of total population of village. Average Sex Ratio of Tairia village is 1197 which is higher than Uttar Pradesh state average of 912. Child Sex Ratio for the Tairia as per census is 429, lower than Uttar Pradesh average of 902. 

Tairia village has higher literacy rate compared to Uttar Pradesh. In 2011, literacy rate of Tairia village was 80.00 % compared to 67.68 % of Uttar Pradesh. In Tairia Male literacy stands at 88.14 % while female literacy rate was 73.68 %. 

As per constitution of India and Panchyati Raaj Act, Tairia village is administrated by Sarpanch (Head of Village) who is elected representative of village. 


http://ourhero.in/villages/tairia-191351



04 जून, 2012

(SATTU) सत्तू भारतीय खानपान का एक प्रकार का मशहूर व्यंजन

(SATTU)
सत्तू भारतीय खानपान का एक प्रकार का मशहूर व्यंजन है जो भूने हुए चने को पीसने से बनाया जाता है । बिहार, उत्तर प्रदेश  में यह काफी लोकप्रिय है और कई रूपों में प्रयुक्त होता है । सामान्यतया यह चूर्ण के रूप में रहता है जिसे पानी में घोलकर या अन्य रूपों में खाया अथवा पीया जाता है । सत्तू के सूखे (चूर्ण) तथा घोल दोनो ही रूप को सत्तू कहते हैं ।
सर्वप्रथम चने को भूना जाता है । इसके बाद इसे भूने हुए मसालों, यथा जीरा, काली मिर्च इत्यादि के साथ पीसा जाता है ।
इसे बनाने की आसान विधियां, पौष्टिकता और ज़ायका ही इसे सबसे खास बनाता है। यही वजह है कि आम आदमी का दाल-बाटी, दाल-बाफले या
लिट्टी-चोखा जैसे व्यंजन फुटपाथ से लेकर फाइवस्टार होटलों तक बनते और परोसे जाते हैं। सत्तू अपने आप में पूरा आहार है। खासतौर पर अपने सुपाच्य गुण और ठंडी तासीर के चलते गर्मियों की शुरुआत से ही घरों में सत्तू का प्रयोग शुरू हो जाता है। भुने हुए अनाज जैसे गेहूं, जौ, मक्का के साथ भुने हुए चने को पीस कर बनाए गए चूर्ण को 
सत्तू कहते हैं। गांव-देहात की रसोई की अनिवार्य वस्तु है सत्तू। समझदार गृहस्थों के यहां सत्तू एक ज़रूरी आहार है। पोहा, उपमा से भी ज्यादा गुणवान और जल्दी बननेवाला इंडियन फास्टफूड या चटपट रसोई। डब्बे में से सत्तू पाऊडर निकालिए, पानी मिलाइये फिर नमक या शकर मिलाइये और पी जाइये। किसी ज़माने में राहगीरों-बटोहियों का पसंदीदा आहार होता था सत्तू। साथ में पानी का गिलास और चम्मच रखने भर से काम हो जाता था। जहां कहीं ठौर मिला, सत्तू घोलकर पिया और सुस्ताने लगे। कहीं पढ़ा है कि मगध की सेनाओं नें सत्तू के भरोसे कई मोर्चे फतह कर लिए थे।     फौज के लिए सत्तू से ज्यादा मुफीद भोजन भला और क्या हो सकता था। नासा वाले चाहें तो अंतरिक्ष यात्रियों के लिए सत्तू जैसे भोजन पर विचार कर सकते हैं।सत्तू का इस्तेमाल लगभग समूचे भारत में होता रहा है। हिन्दी, मराठी और पंजाबी में इसे सत्तू कहते है।  भोजपुरी समेत पूर्वी बोलियों में इसे  सतुआ भी कहते हैं। सत्तू बना है संस्कृत के सक्तु या सक्तुकः से जिसका अर्थ है अनाज को भूनने के बाद उसे पीस कर बनाया गया आटा। प्राचीनकाल में भारत में जौ का प्रचलन अधिक था। गेहूं का इस्तेमाल बढ़ने के बाद सत्तू में इसकी अनिवार्यता भी बढ़ गई। गेहूं के स्थान पर मकई का प्रयोग भी होता है। सामान्यतौर पर एक भाग चना और आधा भाग गेहूं और चौथाई भाग जौ को पानी में कुछ घंटों भिगाने के बाद सुखाया जाता है। फिर उसे भून कर पीस लेते हैं। यह मिश्रण ही सत्तू कहलाता है।  सत्तू घोलकर, उसे ठण्डा कर आइस्क्रीम की तरह भी खाया जाने लगा है। पारम्परिक तरीकों में सत्तू के गाढ़े या पतले घोल में नमक, जीरावण डालकर पिया जाता है। ऊपर से नीम्बू भी डाल लें तो आनंदम् आनंदम्। गुड़ या शक्कर डालकर इसका जायका बदला जाता है। लिट्टी चोखा का
भरावन (स्टफिंग) भी सत्तू से ही होती है। सत्तू की पीठी की कचौरी या परांठा भी बनता है। वैसे सत्तू देश के पूर्वांचल में ज्यादा खाया जाता है
जहां के लोक जीवन में बतौर फटाफट आहार इसके विविध रूप हैं। सत्तू में जब तक चने का अनुपात और अनाज की सिंकाई सही न हो, स्वाद नहीं आता। बाजार के सत्तू में चने का अनुपात सही नहीं मिलता। 
लिट्टी चोखा एक प्रकार का व्यंजन है जो से लिट्टी तथा चोखे - दो अलग व्यंजनों के साथ-साथ खाने को कहते हैं । यह बिहार के विशेष व्यंजनो में से एक है ।
आटे को पानी के साथ गूंथा जाता है जिसके बाद उसमें पहले से तैयार सत्तू और मसाले के मिश्रण को बीच में डाल कर गोल बना लिया जाता है । इस पहले से तैयार मिश्रण में, सत्तू को तेल, नींबू के रस, प्याज के कटे टुकड़े, लहसुन इत्यादि के साथ मिला कर थोड़ा रूखा गूंथा जाता है ।
आलू और् बैंगन(जिसका चोखा बनाना है) को उबाला अथवा आग में पका लिया जाता है । इसके बाद इसके छिलके को हटा कर उसे नमक, तेल, हरी मिर्च, प्याज, लहसुन इत्यादि के साथ गूंथ लिया जाता है ।
पौष्टिकता और ज़ायका ही इसे सबसे खास बनाता है। यही वजह है कि आम आदमी का सत्तू , दाल-बाटी, दाल-बाफले या लिट्टी-चोखा जैसे व्यंजन फुटपाथ से लेकर फाइवस्टार होटलों  तक बनते और परोसे जाते हैं। सत्तू अपने आप में पूरा आहार है। खासतौर पर अपने सुपाच्य गुण और ठंडी तासीर के चलते गर्मियों की शुरुआत से ही घरों में सत्तू का प्रयोग शुरू हो जाता है। भुने हुए अनाज जैसे गेहूं, जौ, मक्का के साथ भुने हुए चने को पीस कर बनाए गए चूर्ण को सत्तू कहते हैं।
गांव-देहात की रसोई की अनिवार्य वस्तु है,  सत्तू। समझदार गृहस्थों के यहां सत्तू एक ज़रूरी आहार है। जल्दी बननेवाला इंडियन फास्टफूड या चटपट रसोई। डब्बे में से सत्तू पाऊडर निकालिए, पानी मिलाइये फिर नमक या शकर मिलाइये और पी जाइये।
किसी ज़माने में राहगीरों-बटोहियों का पसंदीदा
आहार होता था
। साथ में पानी का गिलास और चम्मच रखने भर से काम हो जाता था। जहां कहीं ठौर मिला, सत्तू घोलकर पिया और सुस्ताने लगे। कहीं पढ़ा है कि मगध की सेनाओं नें सत्तू के भरोसे कई मोर्चे फतह कर लिए थे। फौज के लिए सत्तू से ज्यादा मुफीद भोजन भला और क्या हो सकता था।
नासा वाले चाहें तो अंतरिक्ष यात्रियों के लिए सत्तू जैसे भोजन पर विचार कर सकते हैं।सत्तू का इस्तेमाल लगभग समूचे भारत में होता रहा है। हिन्दी, मराठी और पंजाबी में इसे
सत्तू कहते है। सांतु भोजपुरी समेत पूर्वी बोलियों में इसे सतुआ भी कहते हैं। सत्तू बना है संस्कृत के सक्तु या सक्तुकः से जिसका अर्थ है अनाज को भूनने के बाद उसे पीस कर बनाया गया आटा। प्राचीनकाल में भारत में जौ का प्रचलन अधिक था। गेहूं का इस्तेमाल बढ़ने के बाद सत्तू में इसकी अनिवार्यता भी बढ़ गई। गेहूं के स्थान पर मकई का प्रयोग भी होता है। सामान्यतौर पर एक भाग चना और आधा भाग गेहूं और चौथाई भाग जौ को पानी में कुछ घंटों भिगाने के बाद सुखाया जाता है। फिर उसे भून कर पीस लेते हैं। यह मिश्रण ही सत्तू कहलाता है।

ओम या ॐ के 10 रहस्य और चमत्कार

ओम या ॐ के 10 रहस्य और चमत्कार 1.  अनहद  नाद :  इस ध्वनि को  अनाहत  कहते हैं। अनाहत अर्थात जो किसी आहत या टकराहट से पैदा नहीं होती...