29 सितंबर, 2012

पिता जी की पुण्य तिथि



Saturday, 29 September 2012







Birth:. 1 July 1940                                                                        Death :29 September 2004

 Saturday, 29 September 2012
स्व.श्री अवधेश कुमार तिवारी



Birth:. 1 July 1940                                                                        Death :29 September 2004


 Saturday, 29 September 2012
स्व.श्री अवधेश कुमार तिवारी
आज मेरे स्वर्गीय पूज्य पिता जी की पुण्य तिथि है.आज ही के दिन,9 वर्ष पूर्व 2004, प्रकृति ने उनके स्थूल शारीर को ब्रह्मांड का अंग बना लिया,अब वे ग्रह नक्षत्रों के बीच मन की कल्पना में समाहित हो लिए। जीवन की तपीस से अगर कहीं बट बृक्ष था तो वह पिताजी थे । जो छांह थी वो अब जाती रही,  सायंकाल उनका गोरखपुर में निधन हो गया था.पुणे से सुबह ही पहुंचा था.दिन भर उनके साथ रहने का योग मिला था.वह दिन मैं प्रतिदिन याद रखना चाहता हूँ , लेकिन ऐषा संभव नहीं हो पता है .  

मै शरीर  की नश्वरता को भी जानता हूँ,किन्तु अचेतन मन में उनके अस्तित्वहीन होने का बोध कभी होता ही नहीं था,अचेतन में पिता जी  अस्तित्वहिन् होने के बोध के बीच की खायी को पाटने का प्रयाश कर रहा हूँ।एक व्यक्ति के रूप में मैंने जब भी मूल्यांकन किया है मै शब्दों में उन्हें संत कह सकता हूँ।शुद्ध अन्तःकरण पिताजी जी ग्रहस्थ जीवन के संत थे,अपनी जागतिक जिम्मेदारियों का निर्वहन सुचिता पूर्वक करते हुए जीवन के युद्ध में घमासान करते रहे और एक अपराजेय योद्ध की तरह वे अपनी परिस्थियों से जूझते रहे।जय पराजय के बोध से मुक्त सिर्फ योद्धा की तरह जीवन संग्राम में अपनी जिजीविषा उद्दाम प्राणवत्ता के साथ दो -दो हाथ करते रहे वे निम्न मध्यवर्गीय परिवार के होते हुए तमाम विपरीत आर्थिक परिस्थितियों के होते हुए भी अपने पुत्रों में अपने जीवन की जीत देखते रहे।जबकि पुत्र के रूप में मेरी भी भूमिका उसी स्वर लय ताल में आबद्ध हुयी जैसी की उनकी खुद की जीवन परिथितियाँ थी,आज जब मै एक पिता के रूप में पिता जी की जगह ले चूका हूँ इस बीच पुत्र से पिता होने की यात्रा कितनी जटिल है ,से परिचित हो रहा हूँ।
 पिताजी एक कविता प्रति क्षण जीवन का रहस्य समझाने  की चेष्टा करती रहती है,




सपना क्या है?

देख रहा हूँ, सपना क्या है?
सपना है ,तो अपना क्या है ?
घिरा हुआ ,अविरल घेरे में ,
कैसे जानूँ , क्या तेरे में ?
बंधन चक्कर, जब अजेय है,
निस वासर, ये तपना क्या है?
देख रहा हूँ, सपना क्या है.
सपना है, तो अपना क्या है?

राजा था ,क्यों रंक हो गया ?
ज्ञानी था, तो कहाँ खो गया ?
पता नहीं ,जब कोई किसी का,
नाम लिए ,और जपना क्या है?
देख रहा हूँ, सपना क्या है........

पाना खोना, खोना पाना,
क्या कैसा है ,किसने जाना ?
सब कुछ है ,और कुछ भी नहीं है ,
ऐसे में ये, कल्पना क्या है ?
देख रहा हूँ ,सपना क्या है.........

क्या जानूँ , की सत्य कौन है ?
समझ न पाऊं, दिष्टि मौन है .
शांति चित्त बन जाये जिस छन ,
अति आनंद बरसना क्या है ?
देख रहा हूँ .............

यह भी मैं, और वह भी मैं हूँ,
जड़ भी मैं ,और चेतन मैं हूँ .
समय चक्र का, फंदा सारा,
सृस्ती जगत , भरमना क्या है ?
देख रहा हूँ ,सपना क्या है,
सपना है तो अपना क्या है ?


-अवधेश कुमार तिवारी
अश्रु पूरित नेत्रों से विनम्र श्रद्धांजलि............अब शब्द नहीं है..........................



There are no words to describe what our family lost on September29, 2004. This man truly understood what fatherhood was all about. Firstly, he loved God and thanked him daily for the blessings he has bestowed upon his life.
Today is the 9th death anniversary of my beloved father Late Shree Awadhesh Kumar Tiwari.
I stood at home, alone, gazing into the distance, thinking of him, his life, and the end that one day comes too soon.
He literally cashed in his life's savings and brought them over to give everything to us.
Here's to us always being true to ourselves, even when we're the last ones standing at the land's end of our own lives.
He was a model of humility, strength, determination, and hope. He died at the age of 64.
We all four brothers deeply thank my father for teaching and demonstrating honesty, faith, courage, strength and endurance.




22 सितंबर, 2012

शेर-ओ-शायरी


शेर-ओ-शायरी


छोड़ दीजे मुझको मेरे हाल पर,
जो गुजरती है गुजर ही जायेगी।

-असर लखनवी
 
तुझे यह नाज कि जन्नत की भीक मांगूगा,
मुझे यह जिद् कि तकाजा मेरा उसूल नहीं।

-मंजूर अहमद मंजूर


दर्द मन्नतकश- ए-दवा न हुआ,
मैं न अच्छा हुआ बुरा न हुआ।
जम्अ करते हो क्यों रकीबों को,
इक तमाशा हुआ, गिला न हुआ।

-मिर्जा 'गालिब'


न पूछो क्या गुजरती है, दिले-खुद्दार पर अक्सर,
किसी बेमेहर को जब मेहरबां कहना ही पड़ता है।

-जगन्नाथ आजाद


सफीना जब तेरे होते हुए भी डूब सकता है,
उठायें फिर तेरे एहसान क्यों ऐ नाखुदा कोई।
-फारिंग सीमाबी


19 सितंबर, 2012

वास्तु शास्त्र.


 वास्तु शास्त्र.


वास्तु शास्त्र वह है जिसके तहत ब्रह्मांड की विभिन्न ऊर्जा जैसे घर्षण, विद्युतचुम्बकीय शक्ति और अलौकिक ऊर्जा के साम्य के साथ मनुष्य जिस वातावरण में रहता है, उसकी बनावट और निर्माण का अध्ययन किया जाता है।

हालांकि वास्तु आधारभूत रूप से फेंग शुई से काफी मिलता जुलता है जिसके अंतर्गत घर के द्वारा ऊर्जा के प्रवाह को अपने अनुरूप करने का प्रयास किया जाता है। हालांकि फेंग शुई घर की वस्तुओं की सजावट, सामान रखने की स्थिती तथा कमरे आदि की बनावट के मामले में वास्तु शास्त्र से भिन्न है।


भूमि- धरती, घर के लिए जमीन
प्रासाद- भूमि पर बनाया गया ढांचा
यान- भूमि पर चलने वाले वाहन
शयन- प्रासाद के अन्दर रखे गए फर्नीचर

ये सभी श्रेणियां वास्तु के नियम दर्शाती हैं, जोकि बड़े स्तर से छोटे स्तर तक होते हैं। इसके अंतर्गत भूमि का चुनाव, भूमि की योजना और अनुस्थापन, क्षेत्र और प्रबन्ध रचना, भवन के विभिन्न हिस्सों के बीच अनुपातिक सम्बन्ध और भवन के गुण आते हैं।


वास्तु शास्त्र, क्षेत्र (सूक्ष्म ऊर्जा) पर आधारित है, जोकि ऐसा गतिशील तत्व है जिस पर पृथ्वी के सभी प्राणी अस्तित्व में आते हैं और वहीं पर समाप्त भी हो जाते हैं। इस ऊर्जा का कंपन प्रकृति के सभी प्राणियों की विशेष लय और समय पर आधारित होता है। वास्तु का मुख्य उद्देश्य प्रकृति के सानिध्य में रहकर भवनों का निर्माण करना है। वास्तु विज्ञान और तकनीकी में निपुण कोई भी भवन निर्माता, भवन का निर्माण इस प्रकार करता है जिससे भवन धारक के जन्म के समय सितारों का कंपन आंकिक रूप से भवन के कंपन के बराबर रहे।


वास्तु पुरुष मंडल:
वास्तु ‘पुरुष मंडल’ वास्तु शास्त्र का अटूट हिस्सा है। इसमें मकान की बनावट की उत्पत्ति गणित और चित्रों के आधार पर की जाती है। जहां ‘पुरुष’ ऊर्जा, आत्मा और ब्रह्मांडीय व्यक्ति का प्रतिनिधित्व करता है। वहीं ‘मंडल’ किसी भी योजना के लिए जातिगत नाम है। वास्तु ‘पुरुष मंडल’ वास्तु शास्त्र में प्रयोग किया जाने वाला विशेष मंडल है। यह किसी भी भवन/मन्दिर/भूमि की आध्यात्मिक योजना है जोकि आकाशीय संरचना और अलौकिक बल को संचालित करती है।


दिशा और देवता:
हर दिशा एक विशेष देव द्वारा संचालित होती है। यह देव हैं:
उत्तरी पूर्व- यह दिशा भगवान शिव द्वारा संचालित की जाती है।
पूर्व- इस दिशा में सूर्य भगवान का वास होता है।
दक्षिण पूर्व- इस दिशा में अग्नि का वास होता है।
दक्षिण- इस दिशा में यम का वास होता है।
दक्षिण पश्चिम- इस दिशा में पूर्वजों का वास होता है।
पश्चिम- वायु देवता का वास होता है।
उत्तर- धन के देवता का वास होता है।
केन्द्र- ब्रह्मांड के उत्पन्नकर्ता का वास होता है।


वास्तु और योग:
वास्तुशास्त्र योग के सिद्धांत से काफी मिलता-जुलता है। जिस प्रकार किसी योगी के शरीर से प्राण (ऊर्जा) मुक्त रूप से प्रवाहित होता है। उसी प्रकार वास्तु गृह भी इस तरह से बनाया जाता है कि उसमें ऊर्जा का मुक्त प्रवाह हो। वास्तु शास्त्र के अनुसार एक आदर्श ढांचा वह होता है जहां ऊर्जा के प्रवाह में गतिशील साम्य हो। यदि यह साम्य नहीं बैठता है तो जीवन में भी उचित तालमेल नहीं बैठ पाता है।
-वास्तु शास्त्र का दृढ़ता से मानना है कि प्रत्येक भवन चाहे वह घर हो, गोदाम हो, फैक्टरी हो या फिर कार्यालय हो, वहां अविवेकपूर्ण विस्तार तथा फेरबदल आदि नहीं होने चाहिए।


मुख्य द्वार:
भवन में ‘प्राण’ (जीवन-ऊर्जा) के प्रवेश के लिए द्वार की स्थिति और उसके खुलने की दिशा वास्तु की विशेष गणना द्वारा चुनी जाती है। इसके सही चयन से सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह बढ़ाया जा सकता है। घर का अगला व पिछला द्वार एक ही सीध में होना चाहिए, जिससे ऊर्जा का प्रवाह बिना किसी रुकावट के चलता रहे।
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ऊर्जा के इस मार्ग को ‘वम्स दंडम’ कहा जाता है जिसका मानवीकरण करने पर उसे रीढ़ की संज्ञा दी जाती है। इसका ताथ्यिक लाभ घर में शुद्ध हवा का आवागमन है, जबकि आत्मिक महत्व के तहत सौर्य ऊर्जा का मुख्य द्वार से प्रवेश और पिछले द्वार से निर्गम होने से, घर में ऊर्जा का प्रवाह बिना रुकावट निरंतर बना रहता है।


घर और वास्तु शास्त्र:
घर केवल रहने की जगह मात्र नहीं होता है। यह हमारे मानसिक पटल का विस्तार और हमारे व्यक्तित्व का दर्पण भी होता है।
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जिस प्रकार हम अपनी पसन्द के अनुसार इसकी बनावट व आकार देते हैं, सजाते और इसकी देखभाल करते हैं, उसी प्रकार यह हमारे स्वभाव, विचार, जैव ऊर्जा, निजी और सामाजिक जीवन, पहचान, व्यावसायिक सफलता और वास्तव में हमारे जीवन के हर पहलू से गहराई से जुड़ा हुआ होता है।


ऑफिस और वास्तु शास्त्र:
जब वास्तु को सही तरह से लागू किया जाता है तो वह व्यापारिक वृद्धि में भी खासा मददगार सिद्ध होता है। भवन विस्तार या जगह का उपयोग करते समय वास्तु को ध्यान में रखना चाहिए, जिससे भवन में आने वाली नकारात्मक ऊर्जा को काफी हद तक कम किया जा सके।


Source : http://bhagwan.hpage.com

श्री गणपतये नमः

  



श्री गणपतये नमः
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यम्‌ भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌॥
ओंकारं बिन्दुसंयुक्तं नित्यं ध्यायन्ति योगिनः। कामदं मोक्षदं चैव ओंकाराय नमो नमः॥
ॐ गणानां त्वा गणपतिं हवामहे कविं कवीनामुपमश्रवस्तमम्‌। ज्येष्ठराजं ब्रह्मणां ब्रह्मणस्पत आ नः श्रृण्वन्नूतिभिः सीदसादनम्‌॥
वक्रतुंड महाकाय कोटिसूर्यसमप्रभ। निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा॥
गजाननं भूतगणादिसेवितं कपित्थजंबूफलसारभक्षितम्‌। उमासुतं शोकविनाशकारणं नमामि विघ्नेश्वरपादपङ्कजम्‌॥
सुमुखश्चैकदंतश्च कपिलो गजकर्णकः। लम्बोदरश्च विकटो विघ्ननाशो गणाधिपः। धूम्रकेतुर्गणाध्यक्षो भालचन्द्रो गजाननः।
द्वादशैतानि नामानि यः पठेच्छृणुयादपि। विद्यारंभे विवाहे च प्रवेशे निर्गमे तथा। संग्रामे संकटे चैव विघ्नस्तस्य न जायते॥
प्रणम्य शिरसा देवं गौरीपुत्रं विनायकम्‌। भक्‍तावासं स्मरेन्नित्यं आयुःकामार्थसिद्धये॥
अगजाननपद्मार्कं गजाननमहर्निशम्‌। अनेकदन्तं भक्तानां एकदन्तमुपास्महे॥
गजवक्त्रं सुरश्रेष्ठं कर्णचामरभूषितम्‌। पाशांकुशधरं देवं वन्देऽहं गणनायकम्‌॥
एकदंतं महाकायं तप्तकाञ्चनसन्निभम्‌। लंबोदरं विशालाक्षं वन्देऽहं गणनायकम्‌॥
गजवदनमचिन्त्यं तीक्ष्णदंष्ट्रं त्रिनेत्रं बृहदुदरमशेषं भूतिराजं पुराणम्‌। अमरवर-सुपूज्यं रक्तवर्णं सुरेशं पशुपतिसुतमीशं विघ्नराजं नमामि॥
कार्यं मे सिद्धिमायातु प्रसन्ने त्वयि धातरि। विघ्नानि नाशमायान्तु सर्वाणि
सुरनायक॥
मूषिकवाहन् मोदकहस्त चामरकर्ण विलम्बित सूत्र। वामनरूप महेश्वरपुत्र विघ्नविनायक पाद नमस्ते॥
एकदंताय विद्महे। वक्रतुंडाय धीमहि। तन्नो दंती प्रचोदयात्‌॥
॥ गणपति होमम् विधि॥
ॐ सर्वेभ्यो गुरुभ्यो नमः॥। ॐ सर्वेभ्यो देवेभ्यो नमः॥। ॐ सर्वेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो नमः॥ प्रारंभ कार्यं निर्विघ्नमस्तु। शुभं शोभनमस्तु। इष्ट देवता कुलदेवता सुप्रसन्ना वरदा भवतु॥ अनुज्ञां देहि॥
ॐ केशवाय स्वाहा।। ॐ नारायणाय स्वाहा।। ॐ माधवाय स्वाहा।।

 ॐ गोविंदाय नमः॥। ॐ विष्णवे नमः॥। ॐ मधुसूदनाय नमः॥। ॐ त्रिविक्रमाय नमः॥। ॐ वामनाय नमः॥। ॐ श्रीधराय नमः॥।
ॐ हृषीकेशाय नमः॥। ॐ पद्मनाभाय नमः॥। ॐ दामोदराय नमः॥। ॐ संकर्षणाय नमः॥। ॐ वासुदेवाय नमः॥। ॐ प्रद्युम्नाय नमः॥।
ॐ अनिरुद्धाय नमः॥। ॐ पुरुषोत्तमाय नमः॥। ॐ अधोक्षजाय नमः॥। ॐ नारसिंहाय नमः॥। ॐ अच्युताय नमः॥। ॐ जनार्दनाय नमः॥।
ॐ उपेंद्राय नमः॥। ॐ हरये नमः॥। श्री कृष्णाय नमः॥
प्राणायामः
ॐ प्रणवस्य परब्रह्म ऋषिः। परमात्मा देवता। दैवी गायत्री छन्दः। प्राणायामे विनियोगः॥

ॐ भूः। ॐ भुवः। ॐ स्वः। ॐ महः। ॐ जनः। ॐ तपः। ॐ सत्यं। ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गोदेवस्य धीमहि धियो योनः प्रचोदयात्॥

ॐ आपोज्योति रसोमृतं ब्रह्म भूर्भुवस्सुवरोम्॥
ॐ श्रीमान् महागणाधिपतये नमः॥
४ संकल्पः

ॐ श्रीमान् महा गणाधिपतये नमः॥। श्री गुरुभ्यो नमः॥। श्री सरस्वत्यै नमः॥। श्री वेदाय नमः॥। श्री वेदपुरुषाय नमः॥। इष्टदेवताभ्यो नमः॥।
कुलदेवताभ्यो नमः॥। स्थान देवताभ्यो नमः॥। ग्राम देवताभ्यो नमः॥। वास्तु देवताभ्यो नमः॥। शचीपुरंदराभ्यां नमः॥। उमामहेश्वराभ्यां नमः॥।
मातापितृभ्यां नमः॥। लक्ष्मीनारायणाभ्यां नमः॥। सर्वेभ्यो देवेभ्यो नमो नमः॥। सर्वेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो नमो नमः॥।
येतद्कर्मप्रधान देवताभ्यो नमो नमः॥
॥ अविघ्नमस्तु॥

शुक्लांबरधरं देवं शशिवर्णं चतुर्भुजम्। प्रसन्नवदनं ध्यायेत् सर्व विघ्नोपशांतये॥
सर्वमंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके। शरण्ये त्रयंबके देवी नारायणी नमोऽस्तुते॥

सर्वदा सर्व कार्येषु नास्ति तेषां अमंगलं। येषां हृदिस्थो भगवान् मंगलायतनो हरिः॥
तदेव लग्नं सुदिनं तदेव ताराबलं चंद्रबलं तदेव। विद्या बलं दैवबलं तदेव लक्ष्मीपतेः तेंघ्रिऽयुगं स्मरामि॥

लाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजयः। येषां इन्दीवर श्यामो हृदयस्थो जनार्दनः॥
विनायकं गुरुं भानुं ब्रह्माविष्णुमहेश्वरान्। सरस्वतीं प्रणम्यादौ सर्व कार्यार्थ सिद्धये॥

श्रीमद् भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञाय प्रवर्तमानस्य अद्य ब्रह्मणोऽद्वितीय परार्धे विष्णुपदे श्री श्वेतवराह कल्पे वैवस्वत मन्वन्तरे भारत वर्षे भरत खंडे जंबूद्वीपे दण्डकारण्य देशे गोदावर्या दक्षिणे तीरे कृष्णवेण्यो उत्तरे तीरे परशुराम क्षेत्रे (AMERICA......)शालिवाहन शके वर्तमाने व्यवहारिके विकरम  नाम संवत्सरे उत्तरायणेदक्षिणायणे अमुक मासे अमुक पक्षे अमुक तिथौ अमुक नक्षत्रे अमुक वासरे सर्व ग्रहेषु यथा राशि स्थान स्थितेषु सत्सु येवं गुणविशेषेण विशिष्टायां शुभपुण्यतिथौ अस्माकं सकुढुम्बानां मम कार्यक वाचिक मानसिक ज्ञात अज्ञात समस्त पापक्षयद्वारा चिन्त शुद्ध्यर्थं करिष्यमाण सकल कार्येषु
निर्विघ्नता पूर्वक सर्वाभिष्ठसिद्ध्यर्थं काम्ना विशेषेतु अमुक काम्ना  Replace with whichever  कन्याः विवाह कार्य  or  वर अन्वेषणे सिद्धयर्थं  or  विध्याभ्यास सफलार्थे or  परदेश गमन सिद्ध्यर्थे  or  मोक्ष सिद्ध्यर्थे श्री महागणपतिं प्रीत्यर्थं श्री महागणपति होमं करिष्ये। तदा आदौ शान्त्यर्थं पुण्याः वाचनं निर्विघ्नता सिद्ध्यर्थं गणपथि पूजनं करिष्ये॥
इदं फलं मयादेव स्थापितं पुरतस्तव। तेनमे सफलावाप्तिर् भवेत् जन्मनि जन्मनि॥
५ आवाहनं

मोदके विघ्नेशं आवाहयामि (put axata/tulasi in Modak)
प्रतुके उर्विं आवाहयामि (put axata/tulasi in Jaggery)
लाजेषु दिनेशं आवाहयामि (put axata/tulasi in Rice flakes)
सत।ह्त्कुनि अग्निं आवाहयामि (put axata/tulasi in Appam)
इक्षौ सोमं आवाहयामि (Put axata/tulasi in Sugarcane)
नालिकेरे ईशानां आवाहयामि (put axata/tulasi in Coconut)
तिले हरिं आवाहयामि (Put axata/tulasi in black sesame)
कदलिफले ब्रह्मणां आवाहयामि (Put axata/tulasi in Bananas)

ध्यायामि। ध्यानं समर्पयामि॥ आवाहनं समर्पयामि। आसनं समर्पयामि॥पाद्यं समर्पयामि। अर्घ्यं समर्पयामि॥ आचमनीयं समर्पयामि। स्नानं समर्पयामि॥
वस्त्रं समर्पयामि। यज्ञोपवीतं समर्पयामि॥ गंधं समर्पयामि। धूपं आघ्रापयामि॥दीपं दर्शयामि। नैवेद्यं निवेदयामि॥ मन्त्रपुष्पं समर्पयामि। सकल पूजार्थे अक्षतान् समर्पयामि॥
मुद्रा
निर्वीषि करणार्थे तार्क्ष मुद्रा   amR^iti karaNArthe dhenu mudrA   पवित्री करणार्थे शंख मुद्रा  saMrakShaNArthe chakra mudrA विपुलमाया करणार्थे मेरु मुद्रा dhUpaM    dIpaM  naivedhyaM 

६ अग्नि पिठ पूजा
बलम वर्धना नमनम्  अग्निम प्रतिस्थापयेतम् ॥

१. ॐ आदार शक्त्यै नमः॥
२. ॐ मूल प्रकृत्यै नमः॥
३. ॐ कूर्माय नमः॥
४. ॐ अनन्ताय नमः॥
५. ॐ पृथिव्यै नमः॥
६. ॐ इक्षु सागराय नमः॥
७. ॐ रत्न दीपाय नमः॥
८. ॐ कल्प वृक्षाय नमः॥
९. ॐ मणि मण्डपाय नमः॥
०. ॐ रत्न सिंहासनाय नमः॥
११. ॐ श्वेत छत्राय नमः॥
१२. ॐ धर्माय नमः॥
१३. ॐ ज्ञानाय नमः॥
१४. ॐ वैराग्याय नमः॥
१५. ॐ ऐश्वर्याय नमः॥
१६. ॐ अधर्माय नमः॥
१७. ॐ अज्ञानाय नमः॥
१८. ॐ अवैराग्याय नमः॥
१९. ॐ अनैश्वर्याय नमः॥
२०. ॐ सर्व तत्व पद्माय नमः॥
२१. ॐ आनन्द कन्दाय नमः॥
२२. ॐ सांविन्नलाय नमः॥
२३. ॐ प्रकृतिमय दलेभ्यो नमः॥
२४. ॐ विकारमय केसरेभ्यो नमः॥
२५. ॐ पञ्चाशद्वर्ण कर्णिकायै नमः॥
२६. ॐ पृथिव्यात्मने परिवेशाय नमः॥
२७. अं अर्क मण्डलाय अर्थप्रद द्वादश कलात्मने नमः॥
२८. उं सोम मण्डलाय कामप्रद षोडष कलात्मने नमः॥
२९. रं वह्नि मण्डलाय धर्मप्रद दश कलात्मने नमः॥
३०. सं सत्वाय नमः॥
३१. रं रजसे नमः॥
३२. तं तमसे नमः॥
३३. मं मायायै नमः॥
३४. विं विध्यायै नमः॥
३५. आं आत्मने नमः॥
३६. अं अन्तरात्मने नमः॥
३७. पं परमात्मने नमः॥
३८. सं सर्वतत्वात्मने नमः॥
३९. ॐ तीव्रायै नमः॥
४०. ॐ ज्वालिन्यै नमः॥
४१. ॐ नन्दायै नमः॥
४२. ॐ भोगदायै नमः॥
४३. ॐ कामरूपिण्यै नमः॥
४४. ॐ उग्रायै नमः॥
४५. ॐ तेजोवत्यै नमः॥
४६. ॐ सत्यायै नमः॥
४७. ॐ विघ्न नाशिन्यै नमः॥
४८. ॐ श्रीं ह्रीं क।ह्लीं ग।ह्लौं गं नमो भगवते सर्व भूतात्मने  सर्व शक्तिर् कमलासनाय नमः॥

७ प्राण प्रथिष्ठा

ॐ एकदन्ताय नमः॥ (pour water thrice)
गणक ऋषिः गायत्रि छन्दः  श्री महागणपतिं देवता
महागणपति प्रीत्यर्थ होमे विनियोगः

॥ ंअहा गणपति न्यास॥

ॐ गणानां त्वा इति मंत्रस्य घृत्समद ऋषिः। गणपतिर्देवता। जगति छंदः॥ महा गणपति न्यासे विनियोगः॥
गणानांत्वेति अंगुष्ठाभ्यां नमः॥ गणपतिं हवामहे इति तर्जनीभ्यां नमः॥ कविं कवीनां इति मध्यमाभ्यां नमः॥उपवश।ह्त्रम इति कनिष्ठिकाभ्यां नमः॥
आन शृण्वन्नूतिभिः सीदसादनमिति करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः॥

॥ एवं हृदयादि न्यासः॥
ॐ भूर्भुवस्सुवरोम्। इति दिग्बन्धः॥

गणानांत्वायै शिरसे स्वाहा। ॥गणपतिमिति ललाटाय नमः॥हवामहे इति मुखाय नमः॥कविं कवीनामिति हृदयाय नमः॥उपमश्रवस्तमम् इति नाभ्यै नमः॥
ज्येष्ठराज्य इति कट।ह्यै नमः॥ब्रह्मणां इति ऊरुभ्यां नमः॥ब्रह्मणस्पत इति जानुभ्यां नमः॥आ नः शृण्वन् इति जठराभ्यां नमः॥नूतिभिः इति गुल।ह्फौभ्यां नमः॥सीदसादनम् इति पादाभ्यां नमः॥

८ दिग्बन्धन

ॐ भूर्भुवस्सुवरोम्। इति दिग्बन्धः।(Snap fingers circle head clockwise and clap hands)

दिशो बद्नामि॥

९ ध्यानं

ॐ  ॐ  श्री गणेशाय नमः॥श्री गणेशाय नमः॥श्री गणेशाय नमः॥

विनायकं हेमवर्षं पाशांकुशधरं विभुं। दययोर् गजाननं देवं भालचंद्र समप्रभं॥

ॐ सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्।स भूमिं विश्वतो वृत्वा अत्यतिष्ठद् दशाङ्गुलम्॥

श्री विनायकाय नमः॥।  ध्यानात् ध्यानं समर्पयामि॥

१० आवाहनं

स्वात्म संस्थं अजं शुद्धं अध्य गणनायक। हरण्यां इव हव्याश्म अग्न्यावा आवाहयाम्यहं॥ ॐ ह।ह्रिं भूर्भुवस्सुवरोम्॥आवाहितो भव। स्थापितो भव। सन्निहितो भव। सन्निरुद्धो भव। अवकुण्ठितो भव। सुप्रीतो भव। सुप्रसन्नो भव। सुमुखो भव। वरदो भव।प्रसीद प्रसीद॥
११ आहुति

१. ॐ मूलं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
२. ॐ औम् स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
३. ॐ मूलं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
४. ॐ श्रीं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
५. ॐ मूलं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
६. ॐ ह्रीं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
७. ॐ मूलं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
८. ॐ क।ह्लीं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
९. ॐ मूलं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
१०. ॐ ग।ह्लौं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
११. ॐ मूलं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
१२. ॐ गं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
१३. ॐ मूलं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
१४. ॐ णं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
१५. ॐ मूलं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
१६. ॐ पं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
१७. ॐ मूलं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
१८. ॐ तं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
१९. ॐ मूलं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
२०. ॐ यें स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
२१. ॐ मूलं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
२२. ॐ वं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
२३. ॐ मूलं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
२४. ॐ रं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
२५. ॐ मूलं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
२६. ॐ वं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
२७. ॐ मूलं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
२८. ॐ रं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
२९. ॐ मूलं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
३०. ॐ सं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
३१. ॐ मूलं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
३२. ॐ र्वं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
३३. ॐ मूलं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
३४. ॐ जं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
३५. ॐ मूलं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
३६. ॐ नं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
३७. ॐ मूलं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
३८. ॐ में स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
३९. ॐ मूलं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
४०. ॐ वं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
४१. ॐ मूलं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
४२. ॐ शं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
४३. ॐ मूलं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
४४. ॐ मां स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
४५. ॐ मूलं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
४६. ॐ नं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
४७. ॐ मूलं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
४८. ॐ यं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
४९. ॐ मूलं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
५०. ॐ स्वां स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
५१. ॐ मूलं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
५२. ॐ हां स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
५३. ॐ मूलं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
५४. ॐ ॐ स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
५५. ॐ मूलं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
५६. ॐ ह्रीं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
५७. ॐ मूलं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
५८. ॐ क।ह्लीं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
५९. ॐ मूलं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
६०. ॐ ग।ह्लौं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
६१. ॐ मूलं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
६२. ॐ गं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
६३. ॐ मूलं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
६४. ॐ गणपतये स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
६५. ॐ मूलं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
६६. ॐ वरं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
६७. ॐ मूलं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
६८. ॐ वरद स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
६९. ॐ मूलं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
७०. ॐ सर्वजनं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
७१. ॐ मूलं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
७२. ॐ में स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
७३. ॐ मूलं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
७४. ॐ वशं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
७५. ॐ मूलं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
७६. ॐ आनयं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
७७. ॐ मूलं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
७८. ॐ स्वाहा।  स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
७९. ॐ मूलं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
८०. ॐ श्रीं रमा रमेशाभ्यां स्वाहा। 
     रमा रमेशौ तर्पयामि॥
८१. ॐ मूलं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
८२. ॐ ह्रीं गिरिजा वृषांकाभ्यां स्वाहा। 
     गिरिजा वृषांकौ तर्पयामि॥
८३. ॐ मूलं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
८४. ॐ क।ह्लीं रतिमदनाभ्यां स्वाहा। 
     रति मदनौ तर्पयामि॥
८५. ॐ मूलं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
८६. ॐ ग।ह्लौं मही वराहाभ्यां स्वाहा। 
     मही वराहौ तर्पयामि॥
८७. ॐ मूलं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
८८. ॐ गं लक्ष्मी गोपनायकाभ्यां स्वाहा। 
     लक्ष्मी गोपनायकौ तर्पयामि॥
८९. ॐ मूलं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
९०. ॐ गं सिद्ध्या मोदाभ्यां स्वाहा। 
     सिद्ध्यामोदौ तर्पयामि॥
९१. ॐ मूलं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
९२. ॐ गं समृद्धि प्रमोदाब्यां स्वाहा। 
     समृद्धि प्रमोदौ तर्पयामि॥
९३. ॐ मूलं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
९४. ॐ गं कान्ति सुमुखाभ्यां स्वाहा। 
     कान्ति सुमुखौ तर्पयामि॥
९५. ॐ मूलं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
९६. ॐ गं मदनावति दुर्मुखाभ्यां स्वाहा। 
     मदनावति दुर्मुखौ तर्पयामि॥
९७. ॐ मूलं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
९८. ॐ गं मदद्रवा विघ्नाब्यां स्वाहा। 
     मदद्रवा विघ्नौ तर्पयामि॥
९९. ॐ मूलं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
१००. ॐ गं द्राविणी विघ्न कर।ह्त्रुब्यां स्वाहा। 
      द्राविणी विघ्न कर्तौ तर्पयामि॥
१०१. ॐ मूलं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
१०२. ॐ गं वसुधारा शङ्खनिधिब्यां स्वाहा। 
      वसुधारा शङ्खनिधिं तर्पयामि॥
१०३. ॐ मूलं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
१०४. ॐ गं वसुमति पुष्पनिधिभ्यां स्वाहा। 
      वसुमति पुष्पनिधिं तर्पयामि॥
१०५. ॐ मूलं स्वाहा।  श्री महागणपतिं तर्पयामि॥
१०६. ॐ कर्मेश्वरार्पणं स्वाहा।
१०७. ॐ ॐ स्वाहा।
१०८. ॐ ॐ श्रीं स्वाहा।
१०९. ॐ ॐ श्रीं ह्रीं स्वाहा।
११०. ॐ ॐ श्रीं ह्रीं क।ह्लीं स्वाहा।
१११. ॐ ॐ श्रीं ह्रीं क।ह्लीं ग।ह्लौं स्वाहा।
११२. ॐ ॐ श्रीं ह्रीं क।ह्लीं ग।ह्लौं गं गणपतये
      स्वाहा।
११३. ॐ ॐ श्रीं ह्रीं क।ह्लीं ग।ह्लौं गं गणपतये
      वरवरद स्वाहा। 
११४. ॐ ॐ श्रीं ह्रीं क।ह्लीं ग।ह्लौं गं गणपतये
      वरवरद सर्वजनं मे स्वाहा। 
११५. ॐ ॐ श्रीं ह्रीं क।ह्लीं ग।ह्लौं गं गणपतये
      वरवरद सर्वजनं मे वशमानय स्वाहा। 
११६. ॐ ॐ श्रीं ह्रीं क।ह्लीं ग।ह्लौं गं गणपतये  वरवरद सर्वजनं मे वशमानय स्वाहा।   स्वाहा॥
ॐ इतः पूर्व प्राण बुद्धि देह धर्मार्धिकारतो जागरत् स्वप्न सुशुप्त्य अवस्तासु मनसा वाचा कर्मणा हस्ताब्यां पद्भ्यां उदरेन शीर्ष्णा यद।ह्कृतं यदुक्तं यत्स्मृतं तत् सर्वं ब्रह्मार्पणं भवतु स्वाहा।  स्वाहा। ॥

ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर् ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्म कर्म समाधिना॥

ॐ लम्बोदराय नमः॥।  तृप्तिरस्तु॥

Ganesh Chaturthi 19 sept 2012

वक्रतुण्ड महाकाये सूर्यकोटिसमप्रभः।निर्विघ्नम् कुरुमे देव सर्वकार्येषु सर्वदा।


श्रीगणेश सदैव हम सब पर अपनी कृपा बनाये रखे। आप सभी को गणेश चतुर्थी की शुभकामनाएँ।    In Hindu mythology Lord Ganesha is known as the lord of beginnings and as the lord of obstacle remover. Hence all auspicious occasions and religious functions begin by invoking his blessings..

04 सितंबर, 2012

हिंदू 'पंचांग'

हिंदू 'पंचांग' की अवधारणा
हिंदू पंचांग की उत्पत्ति वैदिक काल में ही हो चुकी थी। सूर्य को जगत की आत्मा मानकर उक्त काल में सूर्य व नक्षत्र सिद्धांत पर आधारित पंचांग होता था। वैदिक काल के पश्चात् आर्यभट, वराहमिहिर, भास्कर आदि जैसे खगोलशास्त्रियों ने पंचांग को विकसित कर उसमें चंद्र की कलाओं का भी वर्णन किया।

वेदों और अन्य ग्रंथों में सूर्य, चंद्र, पृथ्वी और नक्षत्र सभी की स्थिति, दूरी और गति का वर्णन किया गया है। स्थिति, दूरी और गति के मान से ही पृथ्वी पर होने वाले दिन-रात और अन्य संधिकाल को विभाजित कर एक पूर्ण सटीक पंचांग बनाया गया है। जानते हैं हिंदू पंचांग की अवधारणा क्या है।
पंचांग काल दिन को नामंकित करने की एक प्रणाली है। पंचांग के चक्र को खगोलकीय तत्वों से जोड़ा जाता है। बारह मास का एक वर्ष और 7 दिन का एक सप्ताह रखने का प्रचलन विक्रम संवत से शुरू हुआ। महीने का हिसाब सूर्य व चंद्रमा की गति पर रखा जाता है।

पंचांग की परिभाषा
: पंचांग नाम पाँच प्रमुख भागों से बने होने के कारण है, यह है- तिथि, वार, नक्षत्र, योग और करण। इसकी गणना के आधार पर हिंदू पंचांग की तीन धाराएँ हैं- पहली चंद्र आधारित, दूसरी नक्षत्र आधारित और तीसरी सूर्य आधारित कैलेंडर पद्धति। भिन्न-भिन्न रूप में यह पूरे भारत में माना जाता है। एक साल में 12 महीने होते हैं। प्रत्येक महीने में 15 दिन के दो पक्ष होते हैं- शुक्ल और कृष्ण। प्रत्येक साल में दो अयन होते हैं। इन दो अयनों की राशियों में 27 नक्षत्र भ्रमण करते रहते हैं।
तिथि : एक दिन को तिथि कहा गया है जो पंचांग के आधार पर उन्नीस घंटे से लेकर चौबीस घंटे तक की होती है। चंद्र मास में 30 तिथियाँ होती हैं, जो दो पक्षों में बँटी हैं। शुक्ल पक्ष में 1-14 और फिर पूर्णिमा आती है। पूर्णिमा सहित कुल मिलाकर पंद्रह तिथि। कृष्ण पक्ष में 1-14 और फिर अमावस्या आती है। अमावस्या सहित पंद्रह तिथि।

तिथियों के नाम निम्न
हैं- पूर्णिमा (पूरनमासी), प्रतिपदा (पड़वा), द्वितीया (दूज), तृतीया (तीज), चतुर्थी (चौथ), पंचमी (पंचमी), षष्ठी (छठ), सप्तमी (सातम), अष्टमी (आठम), नवमी (नौमी), दशमी (दसम), एकादशी (ग्यारस), द्वादशी (बारस), त्रयोदशी (तेरस), चतुर्दशी (चौदस) और अमावस्या (अमावस)।
वार : एक सप्ताह में सात दिन होते हैं:- रविवार, सोमवार, मंगलवार, बुधवार, गुरुवार, शुक्रवार और शनिवार।
नक्षत्र : आकाश में तारामंडल के विभिन्न रूपों में दिखाई देने वाले आकार को नक्षत्र कहते हैं। मूलत: नक्षत्र 27 माने गए हैं। ज्योतिषियों द्वारा एक अन्य अभिजित नक्षत्र भी माना जाता है। चंद्रमा उक्त सत्ताईस नक्षत्रों में भ्रमण करता है। नक्षत्रों के नाम नीचे चंद्रमास में दिए गए हैं-
योग : योग 27 प्रकार के होते हैं। सूर्य-चंद्र की विशेष दूरियों की स्थितियों को योग कहते हैं। दूरियों के आधार पर बनने वाले 27 योगों के नाम क्रमश: इस प्रकार हैं:- विष्कुम्भ, प्रीति, आयुष्मान, सौभाग्य, शोभन, अतिगण्ड, सुकर्मा, धृति, शूल, गण्ड, वृद्धि, ध्रुव, व्याघात, हर्षण, वज्र, सिद्धि, व्यातीपात, वरीयान, परिघ, शिव, सिद्ध, साध्य, शुभ, शुक्ल, ब्रह्म, इन्द्र और वैधृति।

27
योगों में से कुल 9 योगों को अशुभ माना जाता है तथा सभी प्रकार के शुभ कामों में इनसे बचने की सलाह दी गई है। ये अशुभ योग हैं: विष्कुम्भ, अतिगण्ड, शूल, गण्ड, व्याघात, वज्र, व्यतीपात, परिघ और वैधृति।
करण : एक तिथि में दो करण होते हैं- एक पूर्वार्ध में तथा एक उत्तरार्ध में। कुल 11 करण होते हैं- बव, बालव, कौलव, तैतिल, गर, वणिज, विष्टि, शकुनि, चतुष्पाद, नाग और किस्तुघ्न। कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी (14) के उत्तरार्ध में शकुनि, अमावस्या के पूर्वार्ध में चतुष्पाद, अमावस्या के उत्तरार्ध में नाग और शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा के पूर्वार्ध में किस्तुघ्न करण होता है। विष्टि करण को भद्रा कहते हैं। भद्रा में शुभ कार्य वर्जित माने गए हैं।
पक्ष को भी जानें : प्रत्येक महीने में तीस दिन होते हैं। तीस दिनों को चंद्रमा की कलाओं के घटने और बढ़ने के आधार पर दो पक्षों यानी शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष में विभाजित किया गया है। एक पक्ष में लगभग पंद्रह दिन या दो सप्ताह होते हैं। एक सप्ताह में सात दिन होते हैं। शुक्ल पक्ष में चंद्र की कलाएँ बढ़ती हैं और कृष्ण पक्ष में घटती हैं।
सौरमास :
सौरमास का आरम्भ सूर्य की संक्रांति से होता है। सूर्य की एक संक्रांति से दूसरी संक्रांति का समय सौरमास कहलाता है। यह मास प्राय: तीस, इकतीस दिन का होता है। कभी-कभी अट्ठाईस और उन्तीस दिन का भी होता है। मूलत: सौरमास (सौर-वर्ष) 365 दिन का होता है।

12
राशियों को बारह सौरमास माना जाता है। जिस दिन सूर्य जिस राशि में प्रवेश करता है उसी दिन की संक्रांति होती है। इस राशि प्रवेश से ही सौरमास का नया महीना ‍शुरू माना गया है। सौर-वर्ष के दो भाग हैं- उत्तरायण छह माह का और दक्षिणायन भी छह मास का। जब सूर्य उत्तरायण होता है तब हिंदू धर्म अनुसार यह तीर्थ यात्रा व उत्सवों का समय होता है। पुराणों अनुसार अश्विन, कार्तिक मास में तीर्थ का महत्व बताया गया है। उत्तरायण के समय पौष-माघ मास चल रहा होता है।
मकर संक्रांति के दिन सूर्य उत्तरायण होता है जबकि सूर्य कुंभ से मकर राशि में प्रवेश करता है। सूर्य कर्क राशि में प्रवेश करता है तब सूर्य दक्षिणायन होता है। दक्षिणायन व्रतों का समय होता है जबकि चंद्रमास अनुसार अषाढ़ या श्रावण मास चल रहा होता है। व्रत से रोग और शोक मिटते हैं।
सौरमास के नाम : मेष, वृषभ, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्‍चिक, धनु, कुंभ, मकर, मीन।
चंद्रमास :
चंद्रमा की कला की घट-बढ़ वाले दो पक्षों (कृष्‍ण और शुक्ल) का जो एक मास होता है वही चंद्रमास कहलाता है। यह दो प्रकार का शुक्ल प्रतिपदा से प्रारंभ होकर अमावस्या को पूर्ण होने वाला 'अमांत' मास मुख्‍य चंद्रमास है। कृष्‍ण प्रतिपदा से 'पूर्णिमात' पूरा होने वाला गौण चंद्रमास है। यह तिथि की घट-बढ़ के अनुसार 29, 30 व 28 एवं 27 दिनों का भी होता है।
पूर्णिमा के दिन, चंद्रमा जिस नक्षत्र में होता है उसी आधार पर महीनों का नामकरण हुआ है। सौर-वर्ष से 11 दिन 3 घटी 48 पल छोटा है चंद्र-वर्ष इसीलिए हर 3 वर्ष में इसमें 1 महीना जोड़ दिया जाता है।
सौरमास 365 दिन का और चंद्रमास 355 दिन का होने से प्रतिवर्ष 10 दिन का अंतर आ जाता है। इन दस दिनों को चंद्रमास ही माना जाता है। फिर भी ऐसे बड़े हुए दिनों को 'मलमास' या 'अधिमास' कहते हैं।
चंद्रमास के नाम : चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, अषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, अश्विन, कार्तिक, अगहन, पौष, माघ और फाल्गुन।
नक्षत्रमास :
आकाश में स्थित तारा-समूह को नक्षत्र कहते हैं। साधारणतः यह चंद्रमा के पथ से जुडे हैं। ऋग्वेद में एक स्थान पर सूर्य को भी नक्षत्र कहा गया है। अन्य नक्षत्रों में सप्तर्षि और अगस्त्य हैं। नक्षत्र से ज्योतिषीय गणना करना वेदांग ज्योतिष का अंग है। नक्षत्र हमारे आकाश मंडल के मील के पत्थरों की तरह हैं जिससे आकाश की व्यापकता का पता चलता है। वैसे नक्षत्र तो 88 हैं किंतु चंद्र पथ पर 27 ही माने गए हैं।

चंद्रमा अश्‍विनी से लेकर रेवती तक के नक्षत्र में विचरण करता है वह काल नक्षत्रमास कहलाता है। यह लगभग 27 दिनों का होता है इसीलिए 27 दिनों का एक नक्षत्रमास कहलाता है।

महीनों के नाम पूर्णिमा के दिन चंद्रमा जिस नक्षत्र में रहता है:
1.चैत्र : चित्रा, स्वाति।
2.वैशाख : विशाखा, अनुराधा।
3.ज्येष्ठ : ज्येष्ठा, मूल।
4.आषाढ़ : पूर्वाषाढ़, उत्तराषाढ़, सतभिषा।
5.श्रावण : श्रवण, धनिष्ठा।
6.भाद्रपद : पूर्वभाद्र, उत्तरभाद्र।
7.आश्विन : अश्विन, रेवती, भरणी।
8.कार्तिक : कृतिका, रोहणी।
9.मार्गशीर्ष : मृगशिरा, उत्तरा।
10.पौष : पुनर्वसु, पुष्य।
11.माघ : मघा, अश्लेशा।
12.फाल्गुन : पूर्वाफाल्गुन, उत्तराफाल्गुन, हस्त।
नक्षत्रों के गृह स्वामी :
केतु : अश्विन, मघा, मूल।
शुक्र : भरणी, पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढ़।
रवि : कार्तिक, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़।
चंद्र : रोहिणी, हस्त, श्रवण।
मंगल : मॄगशिरा, चित्रा, श्रविष्ठा।
राहु : आद्रा, स्वाति, शतभिषा ।
बृहस्पति : पुनर्वसु, विशाखा, पूर्वभाद्रपदा।
शनि . पुष्य, अनुराधा, उत्तरभाद्रपदा।
बुध : अश्लेशा, ज्येष्ठा, रेवती।

ओम या ॐ के 10 रहस्य और चमत्कार

ओम या ॐ के 10 रहस्य और चमत्कार 1.  अनहद  नाद :  इस ध्वनि को  अनाहत  कहते हैं। अनाहत अर्थात जो किसी आहत या टकराहट से पैदा नहीं होती...