रावण संहिता की एक प्रति देवनागरी लिपि में देवरिया जिले के गाँव
गुरूनलिया में सुरक्षित रखी है। जिन ज्योतिषी के पास रावण संहिता है, उनका
नाम श्री बागेश्वरी पाठक है। उनके पितामह ज्योतिष के प्रतिष्ठित विद्वान थे
और उनकी फलित ज्योतिष से सम्बन्धित भविष्यवाणी प्रायः सत्य साबित होती थी।
बागेश्वरी पाठक के ज्येष्ठ भाई को ज्योतिष के ज्ञान की प्रेरणा अपनी दादी
से प्राप्त हुयी और उन्होने पितामह से ज्योतिष शास्त्र की अनेक पुस्तके
पढ़ी परन्तु उनसे उनकी सन्तुष्टि नहीं हुयी, क्योंकि उनके कथनानुसार जो
भविष्यवाणी की जाती थी, उनमें से कुछ तो सही होती थी और कुछ गलत निकलती थी।
पितामह को विशेष जानकरी अथवा कुछ साधना थी जिसके माध्यम से उन्होने अपनी
मृत्यु की भविष्यवाणी कर दी थी। उनकी मृत्यु 36 वर्ष की आयु में हो गयी थी।
उस समय पिता की आयु मात्र 3 वर्ष एंव ज्येष्ठ भाई की आयु बागेश्वरी पाठक
से 10 वर्ष अधिक थी। इस प्रकार ज्येष्ठ भाई को ज्योतिष में रूचि थी जिस
कारण वह अनेक ज्योतिषयों से सम्पर्क करते-रहते रहें और 27 वर्ष की आयु में
घर से भागकर नेपाल चले गये और वहां पर दो साल तक ज्योतिषयों के सम्पर्क में
बने रहें और पुनः जब अपने घर लौटे तो हस्त लिखित कुछ पुस्तके वहां से लाये
थे।
यही रावण संहिता थी। उस हस्त लिखित पोथी के पन्ने इतने जर्जर थे कि उसके
संपादन की आवश्यकता थी। उस रावण संहिता में जब इन्होने अपनी कुण्डली देखी
तो इनकी आयु मात्र 30 वर्ष ही लिखी थी। अतः यह चिन्तित हुये परन्तु फिर भी
ये लिखते-पढ़ते और समझते रहे। इस ग्रन्थ को इन्होने एक वर्ष के अन्तर्गत
उसकी दूसरी प्रतिलिप बनाई। और अपने छोटे भाई बागेश्वरी पाठक को बीच-बीच में
समझाते भी रहे।
इन्होने अपने घर में किसी से यह नहीं बताया कि मेरी आयु मात्र 30 वर्ष ही
है। जब लगभग 1 माह से कम समय बचा तो कुछ उदासीन भाव से यह संहिता बागेश्वरी
पाठक जी को सौंप दी और कहा कि इसको समझकर दूसरों का भविष्य बताना और
रोजी-रोटी के लिए कुछ धन ले लिया करना। मैं अब एक माह से अधिक जीवित नहीं
रहूंगा और अन्ततः उनकी मृत्यु 30 वर्ष की अवस्था में एक क्षुद्र बीमारी के
कारण हो गयी।
तब से यह रावण संहिता बागेश्वरी पाठक जी के पास विद्यमान है। वह इसके
माध्यम से फलादेश करते थे, परन्तु अब शायद नहीं करते है। इसके द्वारा की
गयी भविष्यवाणी 90 प्रतिशत सत्य होती है। यह ग्रन्थ भी अपूर्ण है। इस
ग्रन्थ में न तो लग्न के विभाग किये जाते है और न ही किसी प्रकार की
नाणियों का उल्लेख मिलता है।
केवल जन्मपत्री के मिलने से उसके फलों की चर्चा 20-25 श्लोकों के माध्यम से
की गयी है। फल के काल-कथन में किसी प्रकार की दशाओं का प्रयोग नहीं किया
गया है। आयु के वर्षो के अनुसार फलादेश का वर्णन मिलता है। सभी
जन्मपत्रियों के अन्त में लिखा है। ''इति रावण संहितायां रावण मेघनाद
संवादे अध्यायः।"
27 जून, 2013
25 जून, 2013
देवरिया (Deoria)
देवरिया (Deoria) भारत के उत्तर प्रदेश प्रान्त का एक जिला मुख्यालय है । देवरिया नगर गोरखपुर से क़रीब 50 किमी दक्षिण-पूर्व में स्थित है। देवरिया के पास में बुद्ध की मृत्यु एवं अत्येष्टि के लिए प्रसिद्ध कसिया एक प्रसिद्ध तीर्थस्थल है।
कुछ विद्वान 'देवरिया' की उत्पत्ति 'देवारण्य' या 'देवपुरिया' से मानते हैं । माना जाता है कि इस क्षेत्र में कभी बहुत घने वन हुआ करते थे जिसमें देवताओं का वास था। ।
ऐतिहासिक दृष्टि से देवरिया कौशल राज्य का भाग था । जनपद के विभिन्न भागों में बहुत सारे पुरातात्विक अवशेष मिले हैं जैसे :- मंदिर, मूर्तियाँ, सिक्के, बौद्धस्तूप, मठ आदि । बहुत सारी कथाएँ भी इसकी प्राचीन गतिशील जीवनता को सत्यापित करती हैं । कुशीनगर जनपद जो कुछ साल पहले तक देवरिया जनपद का ही भाग था का पौराणिक नाम कुशावती था और भगवान राम के पुत्र कुश यहाँ राज्य करते थे और भगवान बुद्ध की परिनिर्वाण स्थली भी यही है । देवरिया का पौराणिक और ऐतिहासिक महत्व है । देवरिया जनपद के रुद्रपुर में प्रसिद्ध प्राचीन शिवलिंग है जो बाबा दुग्धेश्वर के नाम से ग्रंथों में वर्णित है और इस क्षेत्र की जनता जनार्दन इनको बाबा दुधनाथ के नाम से पुकारती है । इतिहास की माने तो रुद्रपुर में रुद्रसेन नामक राजा का किला था और इसी कारण यह रुद्रपुर कहलाया पर मेरे विचार से भगवान रुद्र (शिव) की पुरी (नगरी) होने के कारण इसका नाम रुद्रपुर पड़ा होगा । सरयू नदी के तट पर बसे बरहज की धार्मिक महत्ता है । दूर-दूर से श्रद्धालु यहाँ आते हैं । स्वतंत्रता संग्राम में भी देवरिया पीछे नही रहा और अंग्रेजों के विरुद्ध बिगुल फूँक दिया । शहीद रामचंद्र इण्टरमिडिएट कालेज बसंतपुर धूसी (तरकुलवा) के कक्षा आठ का एक छात्र बालक रामचंद्र ने देवरिया में भारतीय तिरंगे को लहराकर शहीद रामचंद्र हो गया और सदा के लिए अमर हो गया ।
देवरिया ब्रह्मर्षि देवरहा बाबा, बाबा राघव दास, आचार्य नरेंद्र देव जैसे महापुरुषों की कर्मभूमि रहा है । गोरखपुर जनपद का यह तहसील १९४६ में पृथक होकर एक जनपद के रूप में अवतरित हुआ और तब से विकास के पथ पर अग्रसर है । देवरिया जनपद लगभग २५२७.२ किलोमीटर में फैला है और कृषि प्रधान क्षेत्र है। घाघरा, राप्ती और गंडक नदियों ने इसकी उपजाऊ क्षमता को बढ़ाया है । इस जनपद की मिट्टी सोना उगलती है ।फसलों में मुख्य रूप से धान, गेहूँ, गन्ना, मक्का, आलू, द्विदलीय अन्न (अरहर, मटर, चना, मूँग इत्यादि), तिलहन (सरसों, राई, तीसी, सूर्यमुखी इत्यादि), खरबूज, तरबूज, ककड़ी, खीरा, हर प्रकार की मौसमी सब्जियाँ (भिंडी, टमाटर, मूली, प्याज, नेनुआ, करैला, तिरोई, कोहड़ा, लौकी, भंटा इत्यादि), सागों में कई प्रकार के साग विशेषकर जैसे पालक,चौंराई (चौराई), सनई, भथुआ इत्यादि । खेतों में ग्रामीण महिलाओं एवं किशोरियों को भथुआ को खोंटते (तोड़ते) हुए देखा जा सकता है । भथुआ को खोंट-खोंटकर ये लोग अपने फाड़ (साड़ी के किनारे या दुपट्टे को कमर में लपेटकर बनाई हुई थैली) में रखती जाती हैं ।
देवरिया जनपद देवरिया सदर, भाटपार रानी, रुद्रपुर,सलेमपुर और बरहज इन ५ तहसीलों में विभाजित है । विकास खंडों की संख्या १६ है:- देवरिया, भटनी, सलेमपुर, भाटपार रानी, बैतालपुर, रुद्रपुर, लार, गौरीबाजार, बनकटा, भागलपुर, देसही देवरिया, भलुवनी, बरहज, रामपुर कारखाना, पथरदेवा और तरकुलवा (हाल में ही तरकुलवा विकास खंड बना है) ।
शिक्षा के मामले में भी देवरिया बहुत आगे है, लगभग १०-१२ डिग्री कालेजों के साथ-साथ कई तकनीकी विद्यालय हैं । दर्शनीय स्थानों में गायत्री मंदिर, हनुमान मंदिर, सोमनाथ मंदिर, देवरही मंदिर (देवरिया शहर में) , मझौली राज का किला (सलेमपुर), मईल, बैकुंठपुर, रुद्रपुर आदि । भगवान बुद्ध की परिनिर्वाण स्थली कुशीनगर, देवरिया शहर से ३४ कि.मी. पर स्थित है ।
देवरिया जनपद : भाषा एवं धर्म
देवरिया जनपद में मुख्य रूप से हिन्दी भाषा बोली जाती है ।देवरिया जनपद की कुल जनसंख्या की लगभग ९६ प्रतिशत जनता हिन्दी, लगभग ३ प्रतिशत जनता उर्दू और एक प्रतिशत जनता के बातचीत का माध्यम अन्य भाषाएँ हैं । बोली की बात करें तो ग्रामीण जनता के साथ-साथ अधिकांश शहरी जनता भी प्रेम की बोली भोजपुरी बोलती है । कुल जनसंख्या की दृष्टि से इस जनपद में लगभग चौरासी प्रतिशत हिन्दू, लगभग पंद्रह प्रतिशत मुस्लिम और एक प्रतिशत अन्य धर्म को मानने वाले हैं । इस जनपद की जनता आपस में प्रेम-भाव से रहते हुए सबके दुख-सुख में सहभागी बनती है । या यूँ कहें "देवरिया जनपद रूपी उपवन को हिंदू, मुस्लिम, सिख, इसाई, बौद्ध आदि पुष्प अपनी सुगंध से महकाते हैं और ये सुगंध आपस में मिलकर पूरे भारत को गमकाती है ।"देवरिया जनपद : मानचित्रित स्थिति
जनपद का मुख्यालय:- देवरिया जनपद का मुख्यालय देवरिया शहर में है जो गोरखपुर से ५२ किलोमीटर पूर्व में विराजमान है । देवरिया शहर पर अगर एक नजर डालें तो पाएँगें कि यह शहर बहुत कम समय में तेजी से विकास किया है । इस शहर में तीन महाविद्यालय (बाबा राघवदास स्नातकोत्तर महाविद्यालय, संत बिनोवा स्नातकोत्तर महाविद्यालय एवं राजकीय महिला महाविद्यालय), ६-७ इंटरमीडिएट कालेज, २-३ तकनीकी विद्यालय और बहुत सारे माध्यमिक एवं प्राथमिक विद्यालय हैं जो इसकी ज्ञान गरिमा को मंडित कर रहे हैं । इस शहर में कई धार्मिक एवं ऐतिहासिक स्थान हैं जो इसकी धार्मिकता एवं ऐतिहासिकता को गौरवान्वित करते हैं । देवरिया रेल द्वारा सीधे गोरखपुर और वाराणसी से जुड़ा हुआ है । देवरिया सदर (रेलवे स्टेशन) से प्रतिदिन दिल्ली, मुम्बई जाने के लिए कई रेलगाड़ियाँ है तथा देश के कुछ अन्य प्रांतों में जाने के लिए भी । देवरिया पूरी तरह से सड़क मार्ग से भी भारत के अन्य भागों से जुड़ा हुआ है । देवरिया शहर के बस स्टेशन से लगभग 10-15 Minute पर गोरखपुर के लिए बसें जाती हैं तथा इसके अलावा बहुत सारी निजी (प्राइवेट) सवारियाँ भी मिल जाएँगी । देवरिया से दिल्ली, बनारस, कानपुर, लखनऊ, अयोध्या आदि के लिए भी प्रतिदिन कई सारी बसें चलती हैं ।
नदियाँ एवं नाले
देवरिया जनपद को मुख्य रूप से घाघरा,राप्ती और छोटी गंडक (नदियाँ) हरा-भरा बनाती हैं पर कभी-कभी इनके रौद्र रूप (बाढ़) में किसानों की खुशहाली (फसलें) बह जाती है । नदी माताओं के रौद्र रूप को शांत करने के लिए इनकी आराधना भी की जाती है । इन नदियों के अलावा कुर्ना, गोर्रा, बथुआ, नकटा आदि नाले भी बरसात में उफन जाते हैं और क्षेत्र की जनता को अपने होने का एहसास कराते हैं ।देवरिया के परिचित कस्बे
देवरिया जनपद के जाने-माने शहरों में देवरिया, बैतालपुर, गौरीबाजार, रामपुर कारखाना, पथरदेवा, तरकुलवा, रुद्रपुर, बरहज (बरहज में चार महान तीर्थों का समावेश है जो "बरहज" नाम में भी अपना बोध करा रहे हैं, ब = बद्रीनाथ, र = रामेश्वरम्, ह = हरिद्वार, ज = जगन्नाथ धाम), भलुअनी, भाटपाररानी, बनकटा, सलेमपुर, लार, भागलपुर, भटनी, महेन, घॎटी आदि हैं ।मौसम
समशीतोष्ण । कुल मिलाकर ठीक-ठाक । जाड़ा, गर्मी, बरसात, तीनों हैं यहाँ बराबर के हिस्सेदार । पर मई-जून की गर्मी और ऊपर से लू । इनसे बचने के लिए सर पर गमछा होना आवश्यक और पेय पदार्थों में बेल का रस और सतुई । जनवरी, फरवरी आदि में अच्छी ठंडक के साथ-साथ कुहा जो कभी-कभी सूर्य को कई-कई दिन तक निकलने ही नहीं देता है और वाहन अपनी बत्ती जलाकर सड़कों पर रेंगते हैं । इस ठंड से बचने के लिए गाँवों में लोग कंबल आदि ओढ़कर या गाँती बाँधकर कौड़ा (आग) तापते हैं और रात में लोग रजाई निकाल लेते है और ओढ़ लेते है12 जून, 2013
East India Company
ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना ३१ दिसम्बर १६०० ईस्वी में हुई थी। इसे यदाकदा जॉन कंपनी के नाम से भी जाना जाता था। इसे ब्रिटेन की महारानी ने भारत के साथ व्यापार करने के लिये २१ सालो तक की छूट दे दी। बाद में कम्पनी ने भारत के लगभग सभी क्षेत्रों पर अपना सैनिक तथा प्रशासनिक अधिपत्य जमा लिया। 1858 में इसका विलय हो गया।
East India Company
In 1757 Mir Jafar,
the commander in chief of the army of the Nawab of Bengal,
along with Jagat Seth,
Maharaja Krishna Nath, Umi Chand and some others, secretly connived with the
British, asking support to overthrow the Nawab in return for trade grants. The
British forces, whose sole duty until then was guarding Companyproperty, were
numerically inferior to the Bengali
armed forces. At the Battle of Plassey on 23 June 1757, fought between the
British under the command of Robert Clive and the Nawab, Mir Jafar's forces betrayed
the Nawab and helped defeat him. Jafar was installed on the throne as a British
subservient ruler.
The battle transformed British perspective as they realised their strength and
potential to conquer smaller Indian kingdoms and marked the beginning of the
imperial or colonial era.
An 1876 political
cartoon of Benjamin Disraeli (1804–1881) making Queen Victoria
Empress of India.
The caption was "New crowns for old ones!"
British policy in
Asia during the 19th century was chiefly concerned with expanding and
protecting its hold on India, viewed as its most important colony and the key
to the rest of Asia.The East India Company drove the expansion of the British Empire
in Asia. The company's army had first joined forces with the Royal Navy
during the Seven Years' War, and the two continued to cooperate in
arenas outside India: the eviction of Napoleon from Egypt (1799),
the capture of Java from
the Netherlands (1811), the acquisition of Singapore (1819) and Malacca
(1824), and the defeat of Burma (1826).
From its base in India, the company had also
been engaged in an increasingly profitable opium export
trade to China since the 1730s. This trade, unlawful in China since it was
outlawed by the Qing dynasty in 1729, helped reverse the trade
imbalances resulting from the British imports of tea, which saw large outflows
of silver from Britain to China. In 1839, the confiscation by the Chinese
authorities at Canton of 20,000 chests of opium led Britain to attack
China in the First Opium War, and the seizure by Britain of the
island of Hong Kong, at that time a minor settlement.
The British had
direct or indirect control over all of present-day India before the middle of
the 19th century. In 1857, a local rebellion by an army of sepoys escalated
into the Rebellion of 1857, which took six months to suppress
with heavy loss of life on both sides. The trigger for the Rebellion has been a
subject of controversy. The resistance, although short-lived, was triggered by
British East India Company attempts to expand its control of India. According
to Olson, several reasons may have triggered the Rebellion. For example, Olson
concludes that the East India Company's attempt to annexe and expand its direct
control of India, by arbitrary laws such as Doctrine of Lapse, combined with
employment discrimination against Indians, contributed to the 1857 Rebellion.The East India Company officers lived like princes, the company finances were
in shambles, and the company's effectiveness in India was examined by the
British crown after 1858. As a result, the East India Company lost its powers
of government and British India formally came under direct British rule,
with an appointed Governor-General of India. The East India Company was
dissolved the following year in 1858. A few years later, Queen Victoria
took the title of Empress of India.
India suffered a
series of serious crop failures in the late 19th century, leading to widespread famines
in which at least 10 million people died. The East India Company had failed to
implement any coordinated policy to deal with the famines during its period of
rule. This changed during the Raj,
in which commissions were set up after each famine to investigate the causes
and implement new policies, which took until the early 1900s to have an effect.
The slow but momentous reform movement
developed gradually into the Indian Independence Movement. During the years of World War I,
the hitherto bourgeois "home-rule" movement was transformed into a
popular mass movement by Mahatma Gandhi, a pacifist.
Apart from Gandhi, other revolutionaries such as Shaheed Bhagat Singh,
Chandrashekar Azad and Subhas Chandra Bose, were not against use of violence to
oppose the British rule. The independence movement attained its objective with
the independence of Pakistan and India on 14 and 15 August 1947 respectively.
Conservative
elements in England consider the independence of India to be the moment that
the British Empire
ceased to be a world power, following Curzon's
dictum that, "[w]hile we hold on to India, we are a first-rate power. If
we lose India, we will decline to a third-rate power."
05 जून, 2013
Tirupati Balaji तिरुपति वेन्कटेशवर मन्दिर
तिरुपति वेन्कटेशवर मन्दिर
तिरुपति मे स्थित एक प्रसिद्ध हिन्दू मन्दिर है । तिरुपति भारत के सबसे प्रसिद्ध तीर्थस्थलों में से एक है। यह आंध्र प्रदेश के चित्तूर जिले में स्थित है। प्रतिवर्ष लाखों की संख्या में दर्शनार्थी यहां आते हैं। समुद्र तल से 3200 फीट ऊंचाई पर स्थिम तिरुमला की पहाड़ियों पर बना श्री वैंकटेश्वर मंदिर यहां का सबसे बड़ा आकर्षण है। कई शताब्दी पूर्व बना यह मंदिर दक्षिण भारतीय वास्तुकला और शिल्प कला का अदभूत उदाहरण हैं।
तमिल के शुरुआती साहित्य में से एक संगम साहित्य में तिरुपति को त्रिवेंगदम कहा गया है। तिरुपति के इतिहास को लेकर इतिहासकारों में मतभेद हैं। लेकिन यह स्पष्ट है कि 5वीं शताब्दी तक यह एक प्रमुख धार्मिक केंद्र के रूप में स्थापित हो चुका था। कहा जाता है कि चोल, होयसल और विजयनगर के राजाओं का आर्थिक रुप से इस मंदिर के निर्माण में खास योगदान था।
यह मंदिर तिरुपति से 40 किमी दूर, नारायणवनम में स्थित है। भगवान श्री वैंकटेश्वरस्वामी और अक्सा महाराज की पुत्री पद्मावती अम्मवरु यही परिणय सूत्र में बंधे थे। यहां मुख्य रूप से श्री कल्याण वैंकटेश्वरस्वामी की पूजा होती है। यहां पांच उपमंदिर भी हैं। श्री पद्मावती अम्मवरी मंदिर, श्री अंदल अम्मवरी मंदिर, समेता रामुलवरी मंदिर, श्री रंगानायकुल मंदिर और श्री सीता लक्ष्मण मंदिर। इसके अलवा मुख्य मंदिर से जुड़े पांच अन्य मंदिर भी हैं। श्री पराशरेश्वर स्वामी मंदिर, श्री वीरभद्र स्वामी मंदिर, श्री शक्ति विनायक स्वामी मंदिर, श्री अगस्थिश्वर स्वामी मंदिर और अवनक्षम्मा मंदिर। वार्षिक ब्रह्मोत्सव मुख्य मंदिर श्री वीरभद्रस्वामी मंदिर और अवनक्शम्मा मंदिर में मनाया जाता है।
इस मंदिर के विषय में एक अनुश्रुति इस प्रकार से है। प्रभु वेंकटेश्वर या बालाजी को भगवान विष्णु का अवतार माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि प्रभु विष्णु ने कुछ समय के लिए स्वामी पुष्करणी नामक तालाब के किनारे निवास किया था। यह तालाब तिरुमाला के पास स्थित है। तिरुमाला- तिरुपति के चारों ओर स्थित पहाड़ियाँ, शेषनाग के सात फनों के आधार पर बनीं 'सप्तगिरि' कहलाती हैं। श्री वेंकटेश्वरैया का यह मंदिर सप्तगिरि की सातवीं पहाड़ी पर स्थित है, जो वेंकटाद्री नाम से प्रसिद्ध है।
वहीं एक दूसरी अनुश्रुति के अनुसार, 11वीं शताब्दी में संत रामानुज ने तिरुपति की इस सातवीं पहाड़ी पर चढ़ाई की थी। प्रभु श्रीनिवास (वेंकटेश्वर का दूसरा नाम) उनके समक्ष प्रकट हुए और उन्हें आशीर्वाद दिया। ऐसा माना जाता है कि प्रभु का आशीर्वाद प्राप्त करने के पश्चात वे 120 वर्ष की आयु तक जीवित रहे और जगह-जगह घूमकर वेंकटेश्वर भगवान की ख्याति फैलाई।
वैकुंठ एकादशी के अवसर पर लोग यहाँ पर प्रभु के दर्शन के लिए आते हैं, जहाँ पर आने के पश्चात उनके सभी पाप धुल जाते हैं। मान्यता है कि यहाँ आने के पश्चात व्यक्ति को जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्ति मिल जाती है।
यह मंदिर तिरुपति से 40 किमी दूर, नारायणवनम में स्थित है। भगवान श्री वैंकटेश्वरस्वामी और अक्सा महाराज की पुत्री पद्मावती अम्मवरु यही परिणय सूत्र में बंधे थे। यहां मुख्य रूप से श्री कल्याण वैंकटेश्वरस्वामी की पूजा होती है। यहां पांच उपमंदिर भी हैं। श्री पद्मावती अम्मवरी मंदिर, श्री अंदल अम्मवरी मंदिर, समेता रामुलवरी मंदिर, श्री रंगानायकुल मंदिर और श्री सीता लक्ष्मण मंदिर। इसके अलवा मुख्य मंदिर से जुड़े पांच अन्य मंदिर भी हैं। श्री पराशरेश्वर स्वामी मंदिर, श्री वीरभद्र स्वामी मंदिर, श्री शक्ति विनायक स्वामी मंदिर, श्री अगस्थिश्वर स्वामी मंदिर और अवनक्षम्मा मंदिर। वार्षिक ब्रह्मोत्सव मुख्य मंदिर श्री वीरभद्रस्वामी मंदिर और अवनक्शम्मा मंदिर में मनाया जाता है।
श्री वेद नारायणस्वामी मंदिर
नगलपुरम का यह मंदिर तिरुपति से 70 किमी दूर है। माना जाता है कि भगवान विष्णु ने मत्स्य अवतार लेकर सोमकुडु नामक राक्षस का यहीं पर संहार किया था। मुख्य गर्भगृह में विष्णु की मत्स्य रूप में प्रतिमा स्थापित है जिनके दोनों ओर श्रीदेवी और भूदेवी विराजमान हैं। भगवान द्वारा धारण किया हुआ सुदर्शन चक्र सबसे अधिक आकर्षक लगता है। इस मंदिर का निर्माण विजयनगर के राजा श्री कृष्णदेव राय ने करवाया था। यह मंदिर विजयनगर की वास्तुकला के दर्शन कराता है। मंदिर में मनाया जाने वाला मुख्य उत्सव ब्रह्मोत्सव और सूर्य पूजा है। यह पूजा फाल्गुन मास की 12वीं, 13वीं और 14वीं तिथि को होती है। इस दौरान सूर्य की किरण प्रात: 6बजे से 6.15 मिनट तक मुख्य प्रतिमा पर पड़ती हैं। ऐसा लगता है मानो सूर्य देव स्वयं भगवान की पूजा कर रहे हों।
श्रीश्री वेणुगोपालस्वामी मंदिर
यह मंदिर तिरुपति से 58 किमी. दूर, कारवेतीनगरम में स्थित है। यहां मुख्य रूप से भगवान वेणुगोपाल की प्रतिमा स्थापित है। उनके साथ उनकी पत्नियां श्री रुक्मणी अम्मवरु और श्री सत्सभामा अम्मवरु की भी प्रतिमा स्थापित हैं। यहां एक उपमंदिर भी है।
श्री प्रसन्ना वैंकटेश्वरस्वामी मंदिर
माना जाता है कि श्री पद्मावती अम्मवरु से विवाह के पश्चात् श्री वैंक्टेश्वरस्वामी अम्मवरु ने यहीं, अप्पलायगुंटा पर श्री सिद्धेश्वर और अन्य शिष्यों को आशीर्वाद दिया था। अंजनेयस्वामी को समर्पित इस मंदिर का निर्माण करवेतीनगर के राजाओं ने करवाया था। कहा जाता है कि आनुवांशिक रोगों से ग्रस्त रोगी अगर यहां आकर वायुदेव की प्रतिमा के आगे प्रार्थना करें तो भगवान जरुर सुनते हैं। यहां देवी पद्मावती और श्री अंदल की मूर्तियां भी हैं। साल में एक बार ब्रह्मोत्सव मनाया जाता है।
श्री चेन्नाकेशवस्वामी मंदिर
तल्लपका तिरुपति से 100 किमी. दूर है। यह श्री अन्नामचार्य (संकीर्तन आचार्य) का जन्मस्थान है। अन्नामचार्य श्री नारायणसूरी और लक्कामअंबा के पुत्र थे। अनूश्रुति के अनुसार करीब 1000 वर्ष पुराने इस मंदिर का निर्माण और प्रबंधन मत्ती राजाओं द्वारा किया गया था।
श्री करिया मणिक्यस्वामी मंदिर
श्री करिया मणिक्यस्वामी मंदिर (इसे श्री पेरुमला स्वामी मंदिर भी कहते हैं) तिरुपति से 51 किमी. दूर नीलगिरी में स्थित है। माना जाता है कि यहीं पर प्रभु महाविष्णु ने मकर को मार कर गजेंद्र नामक हाथी को बचाया था। इस घटना को महाभगवतम में गजेंद्रमोक्षम के नाम से पुकारा गया है।
श्री अन्नपूर्णा-काशी विश्वेश्वरस्वामी
कुशस्थली नदी के किनारे बना यह मंदिर तिरुपति से 56 किमी. की दूरी पर,बग्गा अग्रहरम में स्थित है। यहां मुख्य रूप से श्री काशी विश्वेश्वर, श्री अन्नपूर्णा अम्मवरु, श्री कामाक्षी अम्मवरु और श्री देवी भूदेवी समेत श्री प्रयाग माधव स्वामी की पूजा होती है। महाशिवरात्रि और कार्तिक सोमवार को यहां विशेष्ा आयोजन किया जाता है।
स्वामी पुष्करिणी
इस पवित्र जलकुंड के पानी का प्रयोग केवल मंदिर के कामों के लिए ही किया जा सकता है। जैसे भगवान की प्रतिमा के स्नान के लिए, मंदिर को साफ करने के लिए, मंदिर में रहने वाले परिवारों (पंडित, कर्मचारी) द्वारा आदि। इस पानी का उपयोग मुख्य रूप से यहां आने वाले श्रद्धालुओं द्वारा किया जाता है जो इस कुंड के पवित्र पानी में डुबकी लगाते हैं। कुंड का जल पूरी तरह स्वच्छ और कीटाणुरहित है। यहां इसे पुन:चक्रित किए जाने व्यवस्था की भी व्यवस्था की गई है।
माना जाता है कि वैकुंठ में विष्णु पुष्करिणी कुंड में ही स्नान किया करते थे। इसलिए गरुड़ श्री वैंकटेश्वर के लिए इसे धरती पर लेकर आए थे। यह जलकुंड मंदिर से सटा हुआ है। यह भी कहा जाता है कि पुष्करिणी में स्नान करने से व्यक्ति के सारे पाप धुल जाते हैं और भक्त को सभी सुख प्राप्त होते हैं। मंदिर में प्रवेश करने से पूर्व भक्त यहां डुबकी लगाते हैं। ऐसा करने से शरीर व आत्मा दोनों पवित्र हो जाते हैं।
आकाशगंगा वॉटरफॉल
आकाशगंगा वॉटरफॉल तिरुमला मंदिर से तीन किमी. उत्तर में स्थित है। इसकी प्रसिद्धि का मुख्य कारण यह है कि इसी जल से भगवान को स्नान कराया जाता है। पहाड़ी से निकलता पानी तेजी से नीचे धाटी में गिरता है। बारिश के दिनों में यहां का दृश्य बहुत की मनमोहक लगता है।
श्री वराहस्वामी मंदिर
तिरुमला के उत्तर में स्थित श्री वराहस्वामी का प्रसिद्ध मंदिर पुष्किरिणी के किनारे स्थित है। यह मंदिर भगवान विष्णु के अवतार वराह स्वामी को समर्पित है। ऐसा माना जाता है कि तिरुमला मूल रूप से आदि वराह क्षेत्र था और वराह स्वामी की अनुमति के बाद ही भगवान वैंकटेश्वर ने यहां अपना निवास स्थान बनाया। ब्रह्म पुराण के अनुसार नैवेद्यम सबसे पहले श्री वराहस्वामी को चढ़ाना चाहिए और श्री वैंकटेश्वर मंदिर जाने से पहले यहां दर्शन करने चाहिए। अत्री समहित के अनुसार वराह अवतार की तीन रूपों में पूजा की जाती है: आदि वराह, प्रलय वराह और यजना वराह। तिरुमला के श्री वराहस्वामी मंदिर में इनके आदि वराह रूप में दर्शन होते हैं।
श्री बेदी अंजनेयस्वामी मंदिर
स्वामी पुष्किरिणी के उत्तर पूर्व में स्थित यह मंदिर श्री वराहस्वामी मंदिर के ठीक सामने है। यह मंदिर हनुमान जी को समर्पित है। यहां स्थापित भगवान की प्रतिमा के हाथ प्रार्थना की अवस्था हैं। अभिषेक रविवार के दिन होता है और यहां हनुमान जयंती बड़े धूमधाम से मनाई जाती है।
टीटीडी गार्डन
इस गार्डन का कुल क्षेत्रफल 460 एकड़ है। तिरुमला और तिरुपति के आस-पास बने इन खूबसूरत बगीचों से तिरुमला के मंदिरों के सभी जरुरतों को पुरा किया जाता है। इन फूलों का प्रयोग भगवान और मंडप को सजाने, पंडाल निर्माण में किया जाता है।ध्यान मंदिरम
मूल रूप से यह श्री वैंकटेश्वर संग्रहालय था। जिसकी स्थापना 1980 में की गई थी। पत्थर और लकड़ी की बनी वस्तुएं, पूजा सामग्री, पारंपरिक कला और वास्तुशिल्प से संबंधित वस्तुओं का प्रदर्शन किया गया है।
यहां आने वाले प्रत्येक व्यक्ति की सबसे बड़ी इच्छा भगवान वैंकटेश्वर के दर्शन करने की होती है। भक्तों की लंबी कतारें देखकर सहज की इस मंदिर की प्रसिद्धि का अनुमान लगाया जाता है। मुख्य मंदिर के अलावा यहां अन्य मंदिर भी हैं। तिरुमला और तिरुपति का भक्तिमय वातावरण मन को श्रद्धा और
श्री वेंकटेश्वर का यह पवित्र व प्राचीन मंदिर पर्वत की वेंकटाद्रि नामक सातवीं चोटी पर स्थित है, जो श्री स्वामी पुष्करणी नामक तालाब के किनारे स्थित है। इसी कारण यहाँ पर बालाजी को भगवान वेंकटेश्वर के नाम से जाना जाता है। यह भारत के उन चुनिंदा मंदिरों में से एक है, जिसके पट सभी धर्मानुयायियों के लिए खुले हुए हैं। पुराण व अल्वर के लेख जैसे प्राचीन साहित्य स्रोतों के अनुसार कलियुग में भगवान वेंकटेश्वर का आशीर्वाद प्राप्त करने के पश्चात ही मुक्ति संभव है। पचास हजार से भी अधिक श्रद्धालु इस मंदिर में प्रतिदिन दर्शन के लिए आते हैं। इन तीर्थयात्रियों की देखरेख पूर्णतः टीटीडी के संरक्षण में है।
श्री वैंकटेश्वर का यह प्राचीन मंदिर तिरुपति पहाड़ की सातवीं चोटी (वैंकटचला) पर स्थित है। यह श्री स्वामी पुष्करिणी के दक्षिणी किनारे पर स्थित है। माना जाता है कि वेंकट पहाड़ी का स्वामी होने के कारण ही इन्हें वैंकटेश्वर कहा जाने लगा। इन्हें सात पहाड़ों का भगवान भी कहा जाता है। मंदिर के गर्भगृह में भगवान वैंकटेश्चर की प्रतिमा स्थापित है। यह मुख्य मंदिर के प्रांगण में है। मंदिर परिसर में खूबसूरती से बनाए गए अनेक द्वार, मंडपम और छोटे मंदिर हैं। मंदिर परिसर में मुख्श् दर्शनीय स्थल हैं:पडी कवली महाद्वार संपंग प्रदक्षिणम, कृष्ण देवर्या मंडपम, रंग मंडपम तिरुमला राय मंडपम, आईना महल, ध्वजस्तंभ मंडपम, नदिमी पडी कविली, विमान प्रदक्षिणम, श्री वरदराजस्वामी श्राइन पोटु आदि।
कहा जाता है कि इस मंदिर की उत्पत्ति वैष्णव संप्रदाय से हुई है। यह संप्रदाय समानता और प्रेम के सिद्धांत को मानता है। इस मंदिर की महिमा का वर्णन विभिन्न धार्मिक ग्रंथों में मिलता है। माना जाता है कि भगवान वैंकटेश्वर का दर्शन करने वाले हरेक व्यक्ति को उनकी विशेष कृपा प्राप्त होती है। हालांकि दर्शन करने वाले भक्तों के लिए यहां विभिन्न जगहों तथा बैंकों से एक विशेष्ा पर्ची कटती है। इसी पर्ची के माध्यम से आप यहां भगवान वैंकटेश्वर के दर्शन कर सकते है।
मंदिर की चढ़ाई
पैदल यात्रियों हेतु पहाड़ी पर चढ़ने के लिए तिरुमाला तिरुपति देवस्थानम नामक एक विशेष मार्ग बनाया गया है। इसके द्वारा प्रभु तक पहुँचने की चाह की पूर्ति होती है। साथ ही अलिपिरी से तिरुमाला के लिए भी एक मार्ग है।
अन्य आकर्षण { श्री पद्मावती समोवर मंदिर}
तिरुचनूर (इसे अलमेलुमंगपुरम भी कहते हैं) तिरुपति से पांच किमी. दूर है। यह मंदिर भगवान वैंकटेश्वर की पत्नी श्री पद्मावती को समर्पित है। कहा जाता है कि तिरुमला की यात्रा तब पूरी नहीं हो सकती जब तक इस मंदिर के दर्शन नहीं किए जाते। माना जाता है कि भगवान वैंकटेश्वर विष्णु के अवतार थे और पद्मावती स्वयं लक्ष्मी की अवतार थी। तिरुमला में सुबह 10.30 बजे से दोपहर 12 बजे तक कल्याणोत्सव मनाया जाता है। यहां दर्शन सुबह 6.30 बजे से शुरु हो जाता हैं। शुक्रवार को दर्शन सुबह 8बजे के बाद शुरु होता हैं। तिरुपति से तिरुचनूर के बीच दिनभर बसें चलती हैं।
श्री गोविंदराजस्वामी मंदिर
श्री गोविंदराजस्वामी भगवान बालाजी के बड़े भाई हैं। यह मंदिर तिरुपति का मुख्य आकर्षण है। इसका गोपुरम बहुत ही भव्य है जो दूर से ही दिखाई देता है। इस मंदिर का निर्माण संत रामानुजाचार्य ने 1130 ईसवी में की थी। गोविंदराजस्वामी मंदिर में होने वाले उत्सव और कार्यक्रम वैंकटेश्वर मंदिर के समान ही होते हैं। वार्षिक बह्मोत्सव वैसाख मास में मनाया जाता है। इस मंदिर के प्रांगण में संग्रहालय और छोटे-छोटे मंदिर हैं जिनमें भी पार्थसारथी, गोड़ादेवी आंदल और पुंडरिकावल्ली का मंदिर शामिल है। मंदिर की मुख्य प्रतिमा शयनमूर्ति (भगवान की निंद्रालीन अवस्था) है। दर्शन का समय है- प्रात: 9.30 से दोपहर 12.30, दोपहर 1.00 बजे से शाम 6 बजे तक और शाम 7.00 से रात 8.45 बजे तक
श्री कोदादंरमस्वामी मंदिर
यह मंदिर तिरुपति के मध्य में स्थित है। यहां सीता, राम और लक्ष्मण की पूजा होती है। इस मंदिर का निर्माण चोल राजा ने दसवीं शताब्दी में कराया था। इस मंदिर के ठीक सामने अंजनेयस्वामी का मंदिर है जो श्री कोदादंरमस्वामी मंदिर का ही उपमंदिर है। उगडी और श्री रामनवमी का पर्व यहां बड़े धूमधाम से मनाया जाता है।
श्री कपिलेश्वरस्वामी मंदिर
यह तिरुपति का एकमात्र शिव मंदिर है। यह तिरुपति से तीन किमी.दूर उत्तर में तिरुमला की पहाड़ियों के नीचे स्थित है। यहां पर कपिला तीर्थम नामक पवित्र झरना भी है। इसे अलवर तीर्थम के नाम से भी जाना जाता है। यहां महाबह्मोत्सव, महा शिवरात्रि, स्खंड षष्टी और अन्नभिषेकम बड़े धूमधाम से मनाया जाता हैं। वर्षा ऋतु में झरने के आसपास का वातावरण बहुत ही मनोरम होता है। कपिल तीर्थम जाने के लिए बस और ऑटो रिक्शा यातायात का मुख्य साधन हैं।
श्री कल्याण वैंकटेश्वरस्वामी मंदिर
यह मंदिर तिरुपति से 12 किमी.पश्चिम में श्रीनिवास मंगापुरम में स्थित है। पौराणिक कथाओं के अनुसार श्री पद्मावती से शादी के बाद तिरुमला जाने से पहले भगवान वैंकटेश्वर यहां ठहरे थे। यहां स्थापित भगवान वैंकटेश्वर की पत्थर की विशाल प्रतिमा को रेशमी वस्त्रों, आभूषणों और फूलों से सजाया गया है। वार्षिक ब्रह्मोत्सव और साक्षात्कार वैभवम यहां धूमधाम से मनाया जाता है।
03 जून, 2013
केलकर संग्रहालय , पुणे.
तीस वर्षों से भी अधिक हो गए में डा .केलकर की अमूल्य धरोहर को मैने अनेक बार देखा है , तब भी जब वे जीवित थे और आकर बड़े मनोयोग से संग्रहालय का कामकाज देखते थे .उनके जाने के बाद उनकी स्मृतियां ह्रदय के अंतरंग में अंकित हो गयी हैं .
केलकर संग्रहालय महाराष्ट्र के पुणे शहर में बाजीराव रोड पर प्रसिद्ध अभिनव कला मंदिर के समीप स्थित है। केलकर संग्रहालय को राजा दिनकर केलकर संग्रहालय भी कहा जाता है।
डेक्कन पुणे का सुप्रसिद्ध छेत्र है इससे केलकर संग्रहालय की दूरी दो से तीन किलोमीटर है।
केलकर संग्रहालय की स्थापना 1962 में बाबा दिनकर केलकर ने की थी। लेकिन 1975 में इन्होंने यह संग्रहालय महाराष्ट्र सरकार को सौंप दिया।
राजा दिनकर केलकर ने अपने पुत्र की याद में इस संग्रहालय की स्थापना की थी। जिसकी मृत्यु सात वर्ष की आयु में ही हो गई थी।
केलकर संग्रहालय इमारत की पहली मंज़िल पर घरेलू बर्तनों (18वीं और 19वीं शताब्दी) का अनोखा संग्रह है।
अन्य मंज़िल पर श्री गणेश, शिव और पार्वती की मूर्तियाँ रखी हुई हैं।
इस संग्रहालय में अलग-अलग तरह के बीस हज़ार लेख हैं। बाबा केलकर ने स्वयं पूरे विश्व से इन्हें एकत्रित किया था।
उत्तम जीवन-प्रवंधन
बहुत सरलतम शब्दों में, भूत वह होता है जो बीत गया ( बासे फूल की तरह) ...अर्थात रीत गया ...!! भविष्य वह है, जो अभी खिला नहीं (कली की तरह) ...!!! और वर्तमान हैं, जो हमारे पास है ( ताजे फूल की तरह) ... !!!
भूत और भविष्य दोनों हमें, नहीं की ओर ले जाते हैं, और वर्तमान, पूर्णता के, विस्तार की ओर..!!!!
अतः जीवन का आधार, सिर्फ और सिर्फ, वर्तमान को बनायें ...!!! जिससे भी मिलें, पूरे के पूरे वर्तमान में मिलें, ना भूत का कोई गिला-शिकवा , ना भविष्य की कोई आशा ...!
बस वर्तमान जो घट रहा है, उसे सहजता से घटने दें ...! क्योंकि कोई भी प्रयत्न, असहजता ही पैदा करेगा ...!
जैंसे, स्वांश भी यदि प्रयत्न से लेनी पड़े, तो वह भी रोग (अस्थमा) की ही निशानी हैं ..! अतः, अकर्म की स्थिति (साक्षी-भाव) से शुरुआत करें ., सहजता अपने आप प्रगट होती जायेगी ...!
और जब पूर्ण सहजता में स्थापित होते हैं, तो ज्ञात होता है कि,
जो हुआ वह अच्छा हुआ, जो हो रहा है वह अच्छा हो रहा है, और जो होगा वह भी अच्छा ही होगा ....!!!!!
इससे उत्तम जीवन-प्रवंधन (कर्मठता ) का कोई सूत्र ही नहीं है ....! और वह भी दिलो-दिमाग को पूर्ण ताजा रखे हुये,
क्योंकि यह सूत्र, सहजता के मार्ग में आने वाले , सम्पूर्ण अवरोधों को , सहजता से ही, हटाता जाता है ...!!
फिर तो मित्र-वर :---
चाह गई चिंता गई, मनुआ बेपरवाह,
जाको कछु ना चाहिए, वो ही शाहंशाह ....!!!
29 मई, 2013
मित्र : गोस्वामी तुलसीदास
मित्र
- जे न मित्र दुख होहिं दुखारी। तिन्हहि बिलोकत पातकभारी
- निज दुख गिरि सम रज करि जाना। मित्रक दुख रज मेरु समाना
- जिन्ह कें असि मति सहज न आई। ते सठ कत हठि करत मिताई॥
- कुपथ निवारि सुपंथ चलावा। गुन प्रगटै अवगुनन्हि दुरावा॥
- देत लेत मन संक न धरई। बल अनुमान सदा हित करई॥
- बिपति काल कर सतगुन नेहा। श्रुति कह संत मित्र गुन एहा॥3॥
- आगें कह मृदु बचन बनाई। पाछें अनहित मन कुटिलाई॥
- जाकर िचत अहि गति सम भाई। अस कुमित्र परिहरेहिं भलाई॥4॥
- सेवक सठ नृप कृपन कुनारी। कपटी मित्र सूल सम चारी॥
- सखा सोच त्यागहु बल मोरें। सब बिधि घटब काज मैं तोरें॥
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