25 अगस्त, 2012

कुन्जिका स्तोत्रं

शिवजी बोले – देवी ! सुनो। मैं उत्तम कुंजिकास्तोत्रका उपदेश करुँगा , जिस मन्त्र के प्रभाव से देवीका जप ( पाठ ) सफ़ल होता है ||१||
कवच , अर्गला , कीलक ,रहस्य,सूक्त,ध्यान,न्यास यहाँ तक कि अर्चन भी (आवश्यक ) नहीं हैं ||२||
केवल कुंजिकाके पाठसे दुर्गा-पाठका फल प्राप्त हो जाता है । ( यह कुंजिका) अत्यन्त गुप्त और देवों के लिए भी दुर्लभ है ||३||
हे पार्वती! इसे स्वयोनिकी भाँती प्रयत्नपुर्वक गुप्त रखना चाहिये । यह उत्तम कुंजिकास्तोत्र केवल पाठके द्वारा मारण , मोहन, वशीकरण,स्तंभन और उच्चाटन आदि (आभिचारिक) उद्देश्योंको सिद्ध कर्ता है ||४||
कुन्जिका स्तोत्रं

शिव उवाच
शृणु देवि प्रवक्ष्यामि कुंजिकास्तोत्रमुत्तमम्‌।
येन मन्त्रप्रभावेण चण्डीजापः भवेत्‌॥1॥
न कवचं नार्गलास्तोत्रं कीलकं न रहस्यकम्‌।
न सूक्तं नापि ध्यानं च न न्यासो न च वार्चनम्‌॥2॥
कुंजिकापाठमात्रेण दुर्गापाठफलं लभेत्‌।
अति गुह्यतरं देवि देवानामपि दुर्लभम्‌॥ 3॥
गोपनीयं प्रयत्नेन स्वयोनिरिव पार्वति।
मारणं मोहनं वश्यं स्तम्भनोच्चाटनादिकम्‌।
पाठमात्रेण संसिद्ध्‌येत् कुंजिकास्तोत्रमुत्तमम्‌ ॥4॥
अथ मंत्र
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे। ॐ ग्लौ हुं क्लीं जूं सः
ज्वालय ज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल
ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ज्वल हं सं लं क्षं फट् स्वाह
॥ इति मंत्रः॥
नमस्ते रुद्ररूपिण्यै नमस्ते मधुमर्दिनि।
नमः कैटभहारिण्यै नमस्ते महिषार्दिन ॥1॥
नमस्ते शुम्भहन्त्र्यै च निशुम्भासुरघातिन ॥2॥
जाग्रतं हि महादेवि जपं सिद्धं कुरुष्व मे।
ऐंकारी सृष्टिरूपायै ह्रींकारी प्रतिपालिका॥3॥
क्लींकारी कामरूपिण्यै बीजरूपे नमोऽस्तु ते।
चामुण्डा चण्डघाती च यैकारी वरदायिनी॥ 4॥
विच्चे चाभयदा नित्यं नमस्ते मंत्ररूपिण ॥5॥
धां धीं धू धूर्जटेः पत्नी वां वीं वूं वागधीश्वरी।
क्रां क्रीं क्रूं कालिका देविशां शीं शूं मे शुभं कुरु॥6॥
हुं हु हुंकाररूपिण्यै जं जं जं जम्भनादिनी।
भ्रां भ्रीं भ्रूं भैरवी भद्रे भवान्यै ते नमो नमः॥7॥
अं कं चं टं तं पं यं शं वीं दुं ऐं वीं हं क्षं
धिजाग्रं धिजाग्रं त्रोटय त्रोटय दीप्तं कुरु कुरु स्वाहा॥
पां पीं पूं पार्वती पूर्णा खां खीं खूं खेचरी तथा॥ 8॥
सां सीं सूं सप्तशती देव्या मंत्रसिद्धिंकुरुष्व मे॥
इदंतु कुंजिकास्तोत्रं मंत्रजागर्तिहेतवे।
अभक्ते नैव दातव्यं गोपितं रक्ष पार्वति॥
यस्तु कुंजिकया देविहीनां सप्तशतीं पठेत्‌।
न तस्य जायते सिद्धिररण्ये रोदनं यथा॥
। इतिश्रीरुद्रयामले गौरीतंत्रे शिवपार्वती
संवादे कुंजिकास्तोत्रं संपूर्णम्‌ ।

16 अगस्त, 2012

योगी अरविन्द घोष




 योगी अरविन्द घोष
अरविन्द का जन्म 15 अगस्त 1872 को बंगाल की धरती पर हुआ था। कहते हैं 15 अगस्त के दिन जन्म लेने के कारण उनका स्वतंत्रता दिवस के साथ गहरा नाता था। महर्षि अरविन्द के पिता के डी घोष अंग्रेजी सभ्यता के पोषक तथा अंग्रेजों के प्रशंसक थे। अक्सर यह कहा जाता है कि जैसे मां बाप होते हैं वैसी ही संतान भी होती है परंतु यहां यह बात तो बिल्कुल विपरीत हो गई थी। पिता अंग्रेजों के प
्रशंसक और उनके चारों बेटे अंग्रेजों के लिए यमराज की भांति बन गए थे।

आज का युग वैज्ञानिक युग है और इस युग में योग द्वारा साधना करके अमूल्य सिद्धियां प्राप्त करना अचरज की बात है। अरविन्द घोष जिन्हें लोग महर्षि के रूप में ही जानते थे उन्होंने योग के द्वारा सिद्धियां प्राप्त करके लोगों को बता दिया था कि ऐसी शक्तियां आज भी विद्यमान हैं जो इस जगत की बागडोर को अपने हाथों में रखे हुए हैं। इंसान तो इनकी कृपा का पात्र बन सकता है।

अरविन्द तो योगी नहीं थे। इस योग साधना के पहले वे कुछ और ही थे। जी हां, वे बंगाल के महान क्रांतिकारियों में गिने जाते थे। बंगाल के क्रांतिकारियों को उनकी ही प्रेरणा थी। उन्हीं के आह्वान पर हजारों बंगाली युवकों ने देश की स्वतंत्रता के लिए हंसते हंसते फांसी के फंदों को चूम लिया था। अपने जीवन में उन्होंने किसी अंग्रेज की हत्या तो क्या इसके विषय में सोचा मात्र नहीं था, न ही कभी हथियार का प्रयोग उन्होंने अपने हाथों से किया परंतु यह कटु सत्य है कि सशस्त्र क्रांति के पीछे उनकी ही प्रेरणा थी।

वैसे तो अरविन्द ने अपनी शिक्षा खुलना में पूर्ण की थी लेकिन उच्च शिक्षा प्राप्ति के लिए वे इंग्लैंड चले गए और कई वर्ष वहां रहने के पश्चात कैंब्रिज विश्वविद्यालय से प्राचीन दर्शनशास्त्र की पढ़ाई की। वे आई सी एस अधिकारी बनना चाहते थे जिसके लिए उन्होंने भरपूर कोशिश की पर वे अनुत्तीर्ण हो गए।

एक बार उन्होंने अपने ज्ञान तथा विचारों से गायकवाड़ नरेश को भी मोह लिया। गायकवाड़ नरेश उनसे इतने प्रभावित हुए कि बड़ौदा में उन्होंने अरविंद को अपनी निजी सविच के पद पर नियुक्त कर लिया।

सन् 1906 में जब बंग भंग का आंदोलन चल रहा था तो अरविंद ने बड़ौदा से कलकत्ता की ओर प्रस्थान कर दिया। जनता को जागृत करने के लिए अरविंद ने उत्तेजक भाषण दिए। उन्होंने अपने भाषणों तथा बंदे मांतरम में प्रकाशित लेखों के द्वारा अंग्रेज सरकार की दमन नीति की कड़ी निंदा की थी जिसके फलस्वरूप अंग्रेज सरकार ने उन पर राजद्रोह का मुकद्मा चला कर जेल की सजा सुना दी।

सजा सुन कर अरविंद घबराए नहीं बल्कि उन्होंने कहा था चाहे सरकार क्रांतिकारियों को जेल में बंद करे, फांसी दे या यातनाएं दे पर हम यह सब सहन करेंगे लेकिन यह स्वतंत्रता का आंदोलन कभी रूकेगा नहीं। एक दिन अवश्य आएगा जब अंग्रेजों को हिन्दुस्तान छोड़ कर जाना होगा।

सजा के लिए उन्हें अलीपुर जेल में रखा गया। जेल में अरविन्द का जीवन ही बदल गया। वे जेल की कोठी में ज्यादा से ज्यादा समय साधना और तप में लगाने लगे। वे गीता पढ़ा करते और भगवान श्री कृष्ण की आराधना किया करते। ऐसा करने से उनके जीवन के प्रति विचार ही बदल गए।

जेल से बाहर आकर वे किसी भी आंदोलन में भाग लेने के इच्छुक नहीं थे पर अंग्रेजों के जासूस हर दम उनके पीछे लगे रहते क्योंकि अंग्रेजी सरकार उन्हें अपने लिए मुसीबत का पहाड़ समझती थी। फिर इसके पश्चात अरविन्द गुप्त रूप से पांडिचेरी चले गए क्योंकि वहां फ्रांसीसियों का अधिकार था। अंग्रेज सरकार महर्षि अरविंद को गिरफ्तार न कर सकी।

अरविन्द जी के पांडिचेरी चले जाने की बात मालूम होने पर अंग्रेज सरकार ने एड़ी चोटी का जोर लगाया पर उन्हें बंदी न बना सकी। वहीं पर रहते हुए अरविन्द ने योग द्वारा सिद्धि प्राप्त की और आज के वैज्ञानिकों को बता दिया कि इस जगत को चलाने के लिए एक अन्य जगत और भी है।

5 दिसम्बर 1950 को महर्षि अरविंद निर्वाण प्राप्त कर गए। जब भी क्रांतिकारी आंदोलन का इतिहास लिखा जाएगा तो अरविंद जी के त्याग, साहस तथा यौगिक साधना की चर्चा बड़े गर्व के साथ की जायेगी।

महर्षि अरविंद देशभक्ति एवं राष्ट्रवाद के देवदूत, मानवता के प्रेमी, ज्ञानी, क्रन्तिकारी और महायोगी के रूप में प्रसिद्ध रहे हैं। वे संस्कृत, बंगला आदि स्वदेशी तथा ग्रीक, इतालवी, फ्रेंच, अंग्रेजी आदि भाषाओं के ज्ञाता थे। उन्होंने पूर्व और पश्चिम की आध्यात्मिक विचारधाराओ का यौगिक स्तर से समन्वय किया।
आश्रम में श्री अरविन्द अपने चिंतन और मनन को गंभीरतापूर्वक लिपिबद्ध किया। उनके कृतित्व को चार भागो में बांटा जा सकता है-१.योग एवं आध्यात्म; 2. समाज ,संस्कृति एवं राजनीती ; ३. कविता ,नाटक आदि ; ४.चिट्ठी -पत्री। श्री अरविन्द की रचनाओ का संग्रह 'अरविन्द रचनावली 'के नाम से सन १९७२ में उनके जन्मशती पर तीस खंडो में प्रकाशित हुआ था। बाद में शोधकरतो ने कुछ अन्य रचनाए भी खोज निकाली और उनके १२५ वी जयंती पर सन१९९७ में उनके रचनावली पैतीस खंडो में प्रकाशित हुयी।


24 जुलाई, 2012

Surha-Tal-Bird-Sanctuary, Ballia (U.P.)

Surha-Tal-Bird-Sanctuary, Ballia


Ballia (Bhojpuri: बलिया, Hindi: बलिया) is a city with a municipal board in the Indian state of Uttar Pradesh. The eastern boundary of the city lies at the junction of the Ganges and the Ghaghara. The city is situated from 141 km from Varanasi. Bhojpuri, a dialect of Hindi, is the primary local language.
Ballia is also known as Baghi Ballia (Rebel Ballia) for its significant contribution in India's freedom struggle. During the first Independence War of India in 1857, Ballia came in picture in front of the world and Shree Mangal Pandey was that first freedom fighter of that war who was born in village Nagwa Ballia district of India. During the Quit India Movement of 1942 Ballia gained independence from British rule for a short period of time when the district overthrew the government and installed an independent administration under Chittu Pandey.




LocationAbout 17 km from Ballia bus stand, on the road leading to Maniar & 1 km from Maniar, total distance 18 km from Ballia city, 159 km from Varanasi, in district Ballia, U.P., India
Ideal time to visit Oct.- March
Timings best time morning & evening
Attractions Nature & Wildlife
How to reachBy Road-Ballia is well connected by road from Varanasi & other major cities By Rail- Ballia is located on the Railway line of NERBy Air-Babatpur Airport, Varanasi, 179 km 

This lake was declared as Bird Sanctuary in 1991, covering an area of about 34.32 km2 and comes under Divisional Forest Officer, Kashi Wildlife Division. Ramnagar Nepali King Surat got the digging work done for the lake. Fishing is the main occupation of the local natives (Mallah-the boatman & Bind).
On one end of this lake a big fountain has been built in the memory of freedom fighters with the efforts of Late Prime Minister Mr. Chandrashekhar. Migratory birds from Siberia, and other colder regions, migrate to this lake to spend their winters here. The Bird Sanctuary is worth watching during that period.










23 जुलाई, 2012

नागपंचमी

नागपंचमी

  सोमवार, 23 जुलाई 2012.

आज नागपंचमी है.सुबह सुबह माता जी का फ़ोन आया. आज नाग पंचमी है.नाग देवता को दूध लावा चढ़ा दिया गया.विचार आया नाग पंचमी पर कुछ लिखा जाय.फेस बुक भी इसी से भरा पड़ा है. नया तो  कुछ भी नहीं है, वही है जो सबको मालूम है.फिर भी लिखना है.

यह त्योहार श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी को मनाया जाता है। इस दिन नागों की पूजा की जाती है। इसलिए इस पंचमी को नागपंचमी कहा जाता है। ज्योतिष के अनुसार पंचमी तिथि के स्वामी नाग हैं। अत: पंचमी नागों की तिथि है। सावन माह के शुक्ल पक्ष की पंचमी को ‘नागपंचमी’ का पर्व मनाया जाता है। यह पर्व 23 जुलाई यानी आज सोमवार को है, चूंकि सोमवार को प्रभु महादेव का दिन कहा गया है तो इस बार नागपंचमी का महत्व और भी ज्यादा बढ़ गया है। आज शिव बाबा के साथ नाग देवता की भी आराधना के लिए विशेष अनुष्ठान किए जाएगे।
  • गरुड़ पुराण के अनुसार नागपंचमी के दिन घर के दोनों ओर नाग की मूर्ति खींचकर अनन्त आदि प्रमुख महानागों का पूजन करना चाहिए।
  • स्कन्द पुराण के नगर खण्ड में कहा गया है कि श्रावण पंचमी को चमत्कारपुर में रहने वाले नागों को पूजने से मनोकामना पूरी होती है।
  • नारद पुराण में सर्प के डसने से बचने के लिए कार्तिक शुक्ल चतुर्थी को नाग व्रत करने का विधान बताया गया है। आगे चलकर सुझाव भी दिया गया है कि सर्पदंश से सुरक्षित रहने के लिए परिवार के सभी लोगों को भादों कृष्ण पंचमी को नागों को दूध पिलाना चाहिए।
  • इस व्रत में चतुर्थी के दिन एक बार भोजन करें तथा पंचमी के दिन उपवास करके शाम को भोजन करना चाहिए। इस दिन चांदी, सोने, लकड़ी या मिट्टी की क़लम से हल्दी और चंदन की स्याही से पांच फल वाले पांच नाग बनाएँ और पंचमी के दिन, खीर, कमल, पंचामृत, धूप, नैवेद्य आदि से नागों की विधिवत पूजा करें। पूजा के बाद ब्राह्मणों को लड्डू या खीर का भोजन कराएं।
  • पंचमी को नागपूजा करने वाले व्यक्ति को उस दिन भूमि नहीं खोदनी चाहिए।

पूजन विधि

प्राचीन काल में इस दिन घरों को गोबर में गेरू मिलाकर लीपा जाता था। फिर नाग देवता की पूर्ण विधि-विधान से पूजा की जाती थी। पूजा करने के लिए एक रस्सी में सात गांठें लगाकर रस्सी का सांप बनाकर इसे लकड़ी के पट्टे के ऊपर सांप का रूप मानकर बठाया जाता है। हल्दी, रोली, चावल और फूल चढ़ाकर नाग देवता की पूजा की जाती है। फिर कच्चा दूध, घी, चीनी मिलाकर इसे लकड़ी के पट्टे पर बैठे सर्प देवता को अर्पित करें। पूजन करने के बाद सर्प देवता की आरती करें। इसके बाद कच्चे दूध में शहद, चीनी या थोड़ा-सा गुड़ मिलाकर जहां कहीं भी सांप की बांबी या बिल दिखे उसमें डाल दें और उस बिल की मिट्टी लेकर चक्की लेकर, चूल्हे, दरवाजे के निकट दीवार पर तथा घर के कोनों में सांप बनाएं। इसके बाद भीगे हुए बाजरे,घी और गुड़ से इनकी पूजा करके, दक्षिणा चढ़ाएं तथा घी के दीपक से आरती उतारें। अंत में नागपंचमी की कथा सुनें। यह तो सी जानते हैं कि सांपों के निकलने का समय वर्षा ऋतु है। वर्षा ऋतु में जब बिलों में पानी भर जाता है तो विवश होकर सांपों को बाहर निकलना पड़ता है। इसलिए नागपूजन का सही समय यही माना जाता है। सुगन्धित पुष्प तथा दूध सर्पों को अति प्रिय है। इस दिन ग्रामीण लड़कियां किसी जलाशय में गुड़ियों का विसर्जन करती हैं। ग्रामीण लड़के इन गुड़ियों को डण्डे से ख़ूब पीटते हैं। फिर बहन उन्हें रुपये भेंट करती हैं।

नागपंचमी की कथा

किसी नगर में एक किसान अपने परिवार सहित रहता था। उसके तीन बच्चे थे-दो लड़के और एक लड़की। एक दिन जब वह हल चला रहा था तो उसके हल के फल में बिंधकर सांप के तीन बच्चे मर गए। बच्चों के मर जाने पर मां नागिन विलाप करने लगी और फिर उसने अपने बच्चों को मारने वाले से बदला लेने का प्रण किया। एक रात्रि को जब किसान अपने बच्चों के साथ सो रहा था तो नागिन ने किसान, उसकी पत्नी और उसके दोनों पुत्रों को डस लिया। दूसरे दिन जब नागिन किसान की पुत्री की डसने आई तो उस कन्या ने डरकर नागिन के सामने दूध का कटोरा रख दिया और हाथ जोड़कर क्षमा मांगने लगी। उस दिन नागपंचमी थी। नागिन ने प्रसन्न होकर कन्या से वर मांगने को कहा। लड़की बोली-'मेरे माता-पिता और भाई जीवित हो जाएं और आज के दिन जो भी नागों की पूजा करे उसे नाग कभी न डसे। नागिन तथास्तु कहकर चली गई और किसान का परिवार जीवित हो गया। उस दिन से नागपंचमी को खेत में हल चलाना और साग काटना निषिद्ध हो गया।
पुराणों के अनुसार नागपंचमी के दिन नाग के दर्शन व पूजन का विशेष फल मिलता है। जो भी इस दिन नाग की पूजा करता है उसे कभी सांप का भय नहीं होता और न ही उसके परिवार में किसी को नागों द्वारा काटे जाने का भय सताता है।
कालसर्प दोष की मुक्ति का विशेष दिन

कालसर्प दोष से मुक्ति पाने के लिए नागपंचमी का दिन बहुत विशेष है। ज्योतिष के मुताबिक अगर किसी जातक की कुंडली में कालसर्प दोष है तो वह जीवन भर किसी न किसी कारण से परेशान रहता है। अधिक मेहनत करने के बाद भी उसे उचित फल नहीं मिलता है। उन्होंने बताया कि नागपंचमी के दिन दोष निवारण का उपाय किया जाए तो यह दोष काफी हद तक समाप्त हो जाता है।

यह उपाय करें

1. आज के दिन सुबह जल्दी स्नान आदि कार्यो से निवृत होकर शिव मंदिर में जाएं, नहीं तो घर में ही एकांत में प्रभु शिव के सामने महामृत्युंजय मंत्र का 108 बार जाप करें। प्रत्येक मंत्रजाप के साथ एक-एक बिल्वपत्र शिवलिंग पर चढ़ाते रहे।
2. तीन जोड़ी नाग-नागिन पीपल, शिवलिंग व जल में ऊं नम: शिवाय का जप करते हुए प्रवाह करें।

करें इस मंत्र का जप

ऊं हौं ऊं जूं स: भूर्भव: स्व: त्र्यम्बकं यजामहे सुगंधि पुष्टिवद्रधनम्, उर्वारूकमिव बंधनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् भूर्भुव: स्वरों जूं स: हौं ऊं। नागपंचमी के बाद 21 दिन तक इस मंत्र का जाप 108 बार करें। इस उपाय से कालसर्प दोष का असर कम होने लगेगा। साथ ही, हर कार्य में सफलता मिलेगी।




कहा जाता है कि जो भक्त महाराजा विक्रमादित्य के न्याय की नगरी उज्जयिनी के महाकालेश्वर मंदिर में बसे शिवलिंग के दर्शन कर लेता है, उसका काल भी कुछ नहीं बिगाड़ पाता. महाकालेश्वर की कृपा दर्शन करने वाले भक्तों को सभी कष्टों से दूर रखती है. इसी मान्यता और भक्तों में शिव के प्रति श्रद्धा के चलते हर साल लाखों की तादाद में देश के विभिन्न कोनों से भक्त महाकालेश्वर ज्योतिर्लिग के दर्शन करने आते हैं.
मंदिर के निर्माण के बारे में कहा जाता है कि 1235 ई. में इल्तुतमिश के द्वारा इस प्राचीन मंदिर का विध्वंस किये जाने के बाद, जितने भी शासकों ने उज्जैन पर राज किया, उन्होंने इस मंदिर के सौंदर्यीकरण की ओर विशेष ध्यान दिया. सालों से मंदिर में होने वाले सुधारों और नये निर्माणों के फलस्वरूप ही मंदिर अपने वर्तमान मोहक स्वरूप को प्राप्त कर सका है.
मंदिर के इतिहास से पता चलता है कि सन् 1107 से 1728 ई तक इस ज्योतिर्लिग में यवनों का शासन रहा. इस शासनकाल में हिंदुओं की प्राचीन धार्मिक परंपराओं को नष्ट कर दिया गया. 1690 ई में मराठों ने मालवा क्षेत्र में आक्रमण कर दिया. 29 नवंबर, 1728 को मराठा शासकों ने मालवा क्षेत्र में अपना अधिपत्य स्थापित कर लिया. मराठों की इस विजय के बाद उज्जैन का खोया हुआ गौरव फिर से लौट आया और 1731 से 1809 तक यह नगरी मालवा की राजधानी बनी रही. मराठों के शासनकाल में इस मंदिर का पुन: निर्माण और ज्योतिर्लिग की पुनप्र्रतिष्ठा करायी गयी. आगे चल कर राजा भोज ने इस मंदिर का विस्तार कराया.


वर्तमान में जो महाकालेश्वर ज्योतिर्लिग है वह तीन खंडों में विभाजित है. निचले खंड में महाकालेश्वर, मध्य खंड में ओंकारेश्वर और ऊपरी खंड में श्री नागचंद्रेश्वर मंदिर स्थित है. गर्भगृह में विराजित भगवान महाकालेश्वर का विशाल दक्षिणमुखी शिवलिंग है और ज्योतिष में इस शिवलिंग का विशेष महत्व है. गर्भगृह में माता पार्वती, भगवान गणोश व कार्तिकेय की भी मोहक प्रतिमाओं के दर्शन होते हैं. यहां एक नंदी दीप स्थापित है, जो सदैव प्रज्वलित रहता है. गर्भगृह के सामने विशाल कक्ष में नंदी की प्रतिमा विराजित है. इस कक्ष में बैठ कर हजारों श्रद्धालु शिव की आराधना करते हैं.
  भारतीय सनातन हिन्दू धर्म का मध्य प्रदेश की धार्मिक नगरी उज्जैन में स्थित नागचन्द्रेश्वर मंदिर अपने आप में अनोखा मंदिर है क्योंकि इसके पट वर्ष में केवल एक दिन खुलते है।

ग्यारहवीं शताब्दी की परमारकालीन प्रतिमा वाले भगवान नागचन्द्रेश्वर मंदिर के पट वर्ष में केवल एक दिन आम दर्शनार्थियों के दर्शन के लिए श्रावण शुक्ल पक्ष की नागपंचमी के मौके पर 24 घंटे के लिए खोले जाते है। प्राचीनकाल से शिव की नगरी रुप में पहचाने जाने वाले उज्जैन में विशाल परिसर में स्थित यह मंदिर तीन खंडो में विभक्त है। सबसे नीचे खंड में भगवान महाकालेश्वर, दूसरे खंड में ओकारेश्वर और तीसरे खंड में दुर्लभ भगवान नागचन्द्रेश्वर का मंदिर है।

हालांकि भारतीय सनातन हिन्दू धर्म के धार्मिक स्थल बाबा अमरनाथ, केदारनाथ, बद्रीनाथ सहित गंगोत्री और जमनोत्री मंदिरो के पट एक दिन से अधिक समय तक आम दर्शनार्थियो के दर्शन के खुलते है और लाखो श्रद्धालुजन इसके दर्शन लाभ लेते हैं, लेकिन विश्व में ऐसा कोई मंदिर, मस्जिद और गिरिजाघर शायद नही होगा जिसके पट वर्ष में केवल एक दिन 24 घंटे के लिए खुलते है।


नागचन्द्रेश्वर मंदिर में प्रतिमा के आसन में शिव-पार्वती की सुन्दर प्रतिमा स्थित है जिसमें छत्र के रुप में नाग का फन फैला हुआ है।

नागपंचमी के दिन इस प्रतिमा के दर्शन के बाद ही भक्तजन नागचन्द्रेश्वर महादेव के दर्शन करते है। यह प्रतिमा पड़ोसी देश नेपाल से यहां लायी गयी तथा यहां पर श्रीलक्ष्मी माता एवं शंकर पार्वती की नंदी पर विराजित प्रतिमा भी लायी गयी जो मंदिर के दूसरे तल पर स्थित है।

नागचन्द्रेश्वर के साथ इनका भी पूजन नागपंचमी के दिन किया जाता है।

लगभग 60 फीट ऊंचाई वाले इस मंदिर में पहुचने के लियें प्राचीन में इसका रास्ता संकरा और अंधेरा वाला होने से एक समय में एक ही व्यक्ति चढ़ सकता था, लेकिन दो दशक से अधिक समय पूर्व मंदिर में दर्शनार्थियो की बढती संख्या को देखते हुए मंदिर प्रबंध समिति और जिला प्रशासन ने लोेहे की सीढियां का रास्ता अलग से बना दिया है।

 23 जुलाई को नागपंचमी के अवसर पर भगवान नागचन्द्रेश्वर मंदिर में 22 जुलाई की मध्यरात्रि में साफ सफाई और विधि विधान से पूजा अर्चना के बाद इसके पट आम दर्शनार्थियो के खोले जायेंगे जो 23 जुलाई की अर्धरात्रि को पूजा अर्चना के बाद बंद कद दिये जाएंगे। मंदिर में दर्शन के लिए 22 जुलाई की रात्रि दस बजें से ही लाइन लगाने की अनुमति दी जायेगी। महाकालेश्वर के दर्शन लिये दर्शनार्थी को पृथक से लाइन लगेगी। इसके अलावा राशि जमा कर विशेष दर्शन टिकटधारी और भस्मार्ती में आने वालें दर्शनार्थियो को अलग से प्रवेश दिया जाएगा।


22 जुलाई, 2012

टोडर का दुर्लभ छन्द



जार को बिचार कहा गनिका को लाज कहा ,
गदहा को पान कहा आँधरे को आरसी ।
निगुनी को गुन कहा दान कहा दारिदी को ,
सेवा कहा सूम को अरँडन की डार सी ।
मदपी की सुचि कहा साँच कहा लम्पट को,
नीच को बचन कहा स्यार की पुकार सी ।
टोडर सुकवि ऎसे हठी ते न टारे टरे ,
भावै कहो सूधी बात भावै कहो फारसी ।
-टोडर


टोडर का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल मेहरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।

16 जुलाई, 2012

Gandhi Ji & Chauri Chaura


Chauri Chaura came into prominence in 1922 when its inhabitants whole-hardheartedly participated in the Non-co-operation movement started by Gandhi.
In February 1922 on hearing that the sub inspector of Chauri Chaura police-station had assaulted some of the Congress volunteers at Murera (Mundera) Bazar, an infuriated mob assembled before the police-station Chauri Chaura in February 5,1922 demanding explanation from the guilty official. It ultimately resulted in police firing killing 26 persons. After the police had exhausted their ammunition and went inside the police-station, the enraged crowd challenged the policemen to come out of their den and on their paying no heed, it set fire to the thana in which 21 policemen and a sub-inspector were burnt alive. Consequently, Gandhiji suspended the Non-co-operation movement. 


The people of the district did not forget their freedom fighters. In 1971, they formed Chauri Chaura Shaheed Smarak Samiti. In 1973, this Samiti constructed near the lake at Chauri Chaura a 12.2 metres high triangular minaret on each side of which a martyr is depicted hanging with a noose round his neck. The minaret was built at a cost of Rs 13,500 generously contributed by the people.



यादें .....

अपनी यादें अपनी बातें लेकर जाना भूल गए  जाने वाले जल्दी में मिलकर जाना भूल गए  मुड़ मुड़ कर पीछे देखा था जाते ...