07 नवंबर, 2012

हिन्दू धर्म में108 का महत्व

हिन्दू धर्म में108 का महत्व

हमारे हिन्दू धर्म के किसी भी शुभ कार्य, पूजा , अथवा अध्यात्मिक व्यक्ति के नाम के पूर्व ""श्री श्री 108 "" लगाया जाता है...!

लेकिन क्या सच में आप जानते हैं कि.... हमारे हिन्दू धर्म तथा ब्रह्माण्ड में 108 अंक का क्या महत्व है....?????


दरअसल.... वेदान्त में एक ""मात्रकविहीन सार्वभौमिक ध्रुवांक 108 "" का उल्लेख मिलता है.... जिसका अविष्कार हजारों वर्षों पूर्व हमारे ऋषि-मुनियों (वैज्ञानिकों) ने किया था l


आपको समझाने में सुविधा के लिए मैं मान लेता हूँ कि............ 108 = ॐ (जो पूर्णता का द्योतक है).


        अब आप देखें .........प्रकृति में 108 की विविध अभिव्यंजना किस प्रकार की है :


        1. सूर्य और पृथ्वी के बीच की दूरी/सूर्य का व्यास = 108 = 1 ॐ


        150,000,000 km/1,391,000 km = 108 (पृथ्वी और सूर्य के बीच 108 सूर्य सजाये जा सकते हैं)


       2. सूर्य का व्यास/ पृथ्वी का व्यास = 108 = 1 ॐ


           1,391,000 km/12,742 km = 108 = 1 ॐ

      सूर्य के व्यास पर 108 पृथ्वियां सजाई सा सकती हैं .


     3. पृथ्वी और चन्द्र के बीच की दूरी/चन्द्र का व्यास = 108 = 1 ॐ

        384403 km/3474.20 km = 108 = 1 ॐ

     पृथ्वी और चन्द्र के बीच 108 चन्द्रमा आ सकते हैं .


     4. मनुष्य की उम्र 108 वर्षों (1ॐ वर्ष) में पूर्णता प्राप्त करती है .

         क्योंकि... वैदिक ज्योतिष के अनुसार.... मनुष्य को अपने जीवन काल में विभिन्न ग्रहों की 108 वर्षों की     अष्टोत्तरी महादशा से गुजरना पड़ता है .


5. एक शांत, स्वस्थ और प्रसन्न वयस्क व्यक्ति 200 ॐ श्वास लेकर एक दिन पूरा करता है .


1 मिनट में 15 श्वास >> 12 घंटों में 10800 श्वास >> दिनभर में 100 ॐ श्वास, वैसे ही रातभर में 100 ॐ श्वास


6. एक शांत, स्वस्थ और प्रसन्न वयस्क व्यक्ति एक मुहुर्त में 4 ॐ ह्रदय की धड़कन पूरी करता है .


1 मिनट में 72 धड़कन >> 6 मिनट में 432 धडकनें >> 1 मुहूर्त में 4 ॐ धडकनें ( 6 मिनट = 1 मुहूर्त)


7. सभी 9 ग्रह (वैदिक ज्योतिष में परिभाषित) भचक्र एक चक्र पूरा करते समय 12 राशियों से होकर गुजरते हैं और 12 x 9 = 108 = 1 ॐ


8. सभी 9 ग्रह भचक्र का एक चक्कर पूरा करते समय 27 नक्षत्रों को पार करते हैं... और, प्रत्येक नक्षत्र के चार चरण होते हैं और 27 x 4 = 108 = 1 ॐ


9. एक सौर दिन 200 ॐ विपल समय में पूरा होता है. (1 विपल = 2.5 सेकेण्ड)


1 सौर दिन (24 घंटे) = 1 अहोरात्र = 60 घटी = 3600 पल = 21600 विपल = 200 x 108 = 200 ॐ विपल


  उसी तरह ..... 108 का आध्यात्मिक अर्थ भी काफी गूढ़ है..... और,


1 ..... सूचित करता है ब्रह्म की अद्वितीयता/एकत्व/पूर्णता को


0 ......... सूचित करता है वह शून्य की अवस्था को जो विश्व की अनुपस्थिति में उत्पन्न हुई होती


8 ......... सूचित करता है उस विश्व की अनंतता को जिसका अविर्भाव उस शून्य में ब्रह्म की अनंत अभिव्यक्तियों से हुआ है .

अतः ब्रह्म, शून्यता और अनंत विश्व के संयोग को ही 108 द्वारा सूचित किया गया है .


इस तरह हम कह सकते हैं कि.....जिस प्रकार ब्रह्म की शाब्दिक अभिव्यंजना प्रणव ( अ + उ + म् ) है...... और, नादीय अभिव्यंजना ॐ की ध्वनि है..... ठीक उसी उसी प्रकार ब्रह्म की ""गाणितिक अभिव्यंजना 108 "" है.

Gautam Intermediate College, Pipara Ramdhar District : Deoria



Gautam Intermediate College
Pipara Ramdhar
Salempur
District: DEORIA, U.P.
It was 1972 when I joined Gautam Intermediate College, Pipara Ramdhar, Salempur, District: DEORIA, U.P. I passed high school in1974 and intermediate in 1976 from this college.
This institute was sole creation of Pt. Vishwanath Mishra, Manager of college whom our ecclesiastical Principal Shri Radhe Shyam Dwivedi used to call “dadhichi”.
It was initial stage of college students from all nearby area were willing to join due to discipline, education pattern, dedication of teachers and reputation of Principal saab as source of inspiration.
Amongst many, I wish to mention my sincere thanks and gratitude to following gurus who molded my life;
  •    Shri Jagdish Mishra
  •    Shri Shiv Awatar Pandey ( Shastri Ji)
  •    Shri Sachidanand Kushwaha
  •     Shri Vakil  Pandey
  •      Shri Ram Ujagir Shukla
  •      Shri Rama Shukla
  •       Shri Mannan Tiwari
  • .    Shri Raghunath Mishra
  • .     Shri Munni Lal Mishra
  •    Shri Shyam Narayan  Mishra
  •  .Shri Jagannath   Mishra
  •   Shri Adya Prasad Upadhyay
  •   Shri Mannan Ji Tiwari
  •   Shri Madan Tiwari 
  •   Shri Malviya Ji 
  •  Shri Dwarkadish Mishra (Acharya)

     

 -Rameshwar Nath Tiwari


           Rameshwar Nath Tiwari ( In 1974 Photograph taken for High School Exam Form )



                                            1976 AFTER PASSING INTER & JOINING  DDU

 गौतम इंटर कालेज पिपरा रामधर  के छात्र जीवन की एक अविश्मर्मनीय घटना मुझे आज तक याद है ...प्रति वर्ष विद्यालय में गौतम सप्ताह बड़े जोर शोर से मनाया जाता था ,यह सब हमारे पूज्य गुरुदेव ,प्राचार्य श्री राधे श्याम जी द्विवेदी के कठिन परिश्रमों का परिणाम था । पूज्य श्री शिवावतार पाण्डेय शाश्त्री जी ज्ञान वर्धक  की की भूमिका अनेक शाश्त्र संगत बातें बताते रहते थे ।उसमे से महर्शी गौतम के विषय में मुख्य बातें इस प्रकार होतीं थीं
महर्षि गौतम
गौतम ऋषि वैदिक काल के प्रमुख ऋषियों में से एक माने गए हैं. गौतम ऋषि को मंत्र दृष्टा भी कहा गया है वह अनेक मंत्रों के रचियता भी माने गए हैं. न्याय दर्शन के आदि प्रवर्तक महर्षि गौतम हैं और यही अक्षपाद नाम से भी प्रसिद्ध हैं. भारतीय धर्म शास्त्रों के ज्ञाता गौतम ऋषी ने अपने ज्ञान कर्म द्वारा ऋषि मुनि परंपरा में अग्रीण स्थान प्राप्त किया.
गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या
एक दिन जब गौतम ऋषि आश्रम से बाहर कहीं गये हुये थे तो उनकी अनुपस्थिति में इन्द्र ने गौतम ऋषि के वेश में आकर अहिल्या का शीलभंग कर देते हैं. जब इन्द्र आश्रम से बाहर निकलते हैं तो तभी अपने आश्रम को वापस आते हुये गौतम ऋषि की दृष्टि इन्द्र पर पड़ती है जो उन्हीं का वेश धारण किये हुये था और यह सब देखकर वह सब समझ जाते हैं और इन्द्र को शाप देते हैं.


इसके पश्चात वह अपनी पत्नि अहिल्या को श्राप देते हैं कि वह शिला बन जाए. इस प्रकार अहिल्या पत्थर कि एक शिला रूप बन जाती है. यह कह कर गौतम ऋषि आश्रम को छोड़कर हिमालय पर जाकर तपस्या करने लगते हैं. अहिल्या की शाप मुक्ति केवल राम के चरण स्पर्श से हि दूर हो सकती थी अत: श्री राम के चरण स्पर्श से अहिल्या श्राप से मुक्त हो जातीं हैं.
गौतम ऋषि की श्राप से मुक्ति ;

एक बार महर्षि गौतम के तपोवन में रहने वाले ब्राह्मणों की पत्नियाँ किसी बात पर उनकी पत्नी अहिल्या से नाराज हो जाती हैं तथा सभी अपने पतियों को ऋषि गौतम का तिरस्कार करने को कहती हैं. अत: विवश हो कर उनके पतियों ने श्रीगणेशजी की आराधना तब उनकी साधना से प्रसन्न हो गणेशजी ने उनसे वर माँगने को कहते हैं. इस पर ब्राह्मणों ने कहा कि हे प्रभु आप ऋषि गौतम को इस आश्रम से बाहर कर दें. गणेशजी ने उन्हें ऐसा वर न माँगने को कहा परंतु सभी अपने आग्रह पर दृढ रहते हैं.

विशश हो गणेशजी वरदान स्वरूप में एक दुर्बल गाय का रूप धारण करके ऋषि गौतम के खेत चले जाते हैं और वहां फसल को खाने लगते हैं. जब गौतम अपने खेत में इस गाय को देखते हैं तो उसे वहां से बाहर हाँकने का प्रयास करते हैं किंतु उनका स्पर्श होते ही वह गाय मर जाती है. इस घटना को देखकर सभी ब्राह्मण उन्हें गो-हत्यारा कहने लगते हैं, उनकी निंदा करते हैं.

ऋषि गौतम इस घटना से दुःखी होकर आश्रम छोड़कर अन्यत्र कहीं दूर चले जाते हैं. परंतु गो-हत्या के कारण उनसे वेद-पाठ और यज्ञादि के कार्य करने का कोई अधिकार छीन लिया जाता है अत: ऋषि गौतम प्रायश्चित स्वरूप भगवान शिव की आराधना करते हैं. उनकी तपस्या से प्रसन्न हो भगवान शिव उन्हें दर्शन देते हैं और उनसे वर माँगने को कहते हैं.

महर्षि गौतम भगवान शिव से कहते हैं वह उन्हें गो-हत्या के पाप से मुक्त करें तथा इसी स्थान पर निवास करें. भगवान्‌ शिव उनकी बात मानकर वहाँ त्र्यम्ब ज्योतिर्लिंग के नाम से स्थित हो गए और उन्हें श्राप से मुक्त किया गौतमजी द्वारा लाई गई गंगाजी भी वहाँ पास में गोदावरी नाम से प्रवाहित होने लगीं और यही गोदावरी नदी का उद्गम स्थान हुआ.
गौतम ऋषि न्याय दर्शन शास्त्र
न्याय दर्शन के आदि प्रवर्तक गौतम ऋषि माने गए हैं इन्हें ही न्यायसूत्रों का प्रणयन किया तथा शास्त्र रूप में प्रतिष्ठापित किया. सांख्य और योग दर्शन की तरह न्याय दर्शन का उद्देश्य मानव कल्याण रहा है.न्याय दर्शन भारत के छः वैदिक दर्शनों में से एक है जिसके प्रवर्तक ऋषि अक्षपाद गौतम हैं. न्याय दर्शन की उत्पत्ति मिथिला प्रदेश में हुई मानी जाती है इसका मूल ग्रंथ गौतम ऋषि का न्याय सूत्र माना जाता है.

ऋषि गौतम के ‘न्यायसूत्र’ से ही न्यायशास्त्र का इतिहास स्पष्ट होता है. न्याय दर्शन एक यथार्थवादी दर्शन है गौतम ऋषि के न्याय दर्शन में सोलह तथ्यों का उल्लेख प्राप्त होता है जिसमें प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टांत, सिद्धात, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितंडा, हेत्वाभास, छल, जाति, निग्रह स्थान हैं. न्याय चार तरह के प्रमाणों की चर्चा करता है- प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द.

न्याय दर्शन के अनुसार बारह प्रकार के प्रमेय होते हैं जैसे आत्मा, शरीर, इंद्रियां, बुद्धि, मन, प्रवृत्ति, दोष, प्रत्ययभाव, फल, दुख और अपवर्ग. न्याय तर्क के द्वारा सत्य तक पहुंचने का मार्ग है न्याय दर्शन से नित्य या प्रामाणिक ज्ञान प्राप्त कर मनुष्य दुखों से मुक्ती प्राप्त कर सकता है.
गौतम इंटर कालेज पिपरा रामधर  के छात्र जीवन के हमारे सीनियर श्री दिवस्पति मिश्र की वर्तमान की तस्बीर .....

कैसे कैसे समय बदल जाता है ......विश्वास  नहीं होता है।


05 नवंबर, 2012

मेजर ध्यानचंद





हॉकी के जादूगर स्वर्गीय मेजर ध्यानचंद 
 क्रिकेट में सर डॉन ब्रैडमैन और फुटबॉल में पेले को जो मुकाम हासिल है, हॉकी में ध्यानचंद का वही स्थान है। इंटरनैशनल हॉकी में उन्हें एक हजार से ज्यादा गोल करने का गौरव हासिल है।

मेजर ध्यानचंद के बारें में कुछ रोचक तथ्य:
१. एक बार एक मैच में लगातार कईं प्रयासों के बाद भी ध्यानचंद गोल करने में असफल हो रहे थे| अंत में उन्होंने ने गोल पोस्ट की लम्बाई को लेकर रेफरी से शिकाय
त की और जब गोल पोस्ट की लम्बाई नापी गयी तो सच में गोल पोस्ट की लम्बाई नियमों के अनुसार छोटी थी|

२. १९३६ के ओलंपिक में जब भारत अपना पहला मैच खेलने के लिए उतरा तो हजारों -लाखों की संख्या में लोग यह मैच देखने आये क्यूंकि मैच से एक दिन पूर्व एक जर्मन समाचारपत्र ने भारत के मैच को जादू का खेल नाम दिया और अगले दिन पूरे जर्मन में पोस्टर लग गए की होकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद का आज मैच|

३. १९३६ के बर्लिन ओलंपिक्स में मेजर ध्यानचंद का खेल देखने के बाद वहां की तानाशाह हिटलर ने मेजर ध्यानचंद को जर्मन नागरिकता तथा जर्मन सेना में कर्नेल पद की पेशकश की थी|

४. होल्लैंड में एक बार विरोधी टीम के कहने पर रेफरी ने मेजर ध्यानचंद की होकी स्टिक तोड़ दी थी सिर्फ यह जाने के लिए की कहीं उसके अन्दर चुम्बक तो नहीं है|

५. एक बार एक खेल में एक औरत ने उन्हें अपनी चलने वाली छड़ी से खेलने को कहा और मेजर ध्यानचंद ने उससे भी कई गोल किये|

६. १९३५ में ऑस्ट्रेलिया में सर डोन ब्रेडमेन ने ध्यानचंद का खेल देखकर कहा था कि आप गोल ऐसे करते हो जैसे क्रिकेट में रन बनते हैं |

७. ऑस्ट्रिया की राजधानी विएना में चार होकी स्टिक पकड़े चार हाथों वाली उनकी मूर्ति स्थापित है जो उनके खेल कौशल को दर्शाता है|

श्री हनुमान चालीसा



श्री हनुमान चालीसा

श्री गुरु चरण सरोज रज, निज मन मुकुर सुधारि ।
बरनउं रघुबर विमल जसु, जो दायकु पल चारि ।।
बुद्घिहीन तनु जानिकै, सुमिरौं पवन-कुमार ।
बल बुद्घि विघा देहु मोहि, हरहु कलेश विकार ।।

जय हनुमान ज्ञान गुण सागर । जय कपीस तिहुं लोग उजागर ।।
रामदूत अतुलित बल धामा । अंजनि पुत्र पवनसुत नामा ।।

महावीर विक्रम बजरंगी । कुमति निवार सुमति के संगी ।।
कंचन बरन विराज सुवेसा । कानन कुण्डल कुंचित केसा ।।
हाथ वज्र औ ध्वजा विराजै । कांधे मूंज जनेऊ साजै ।।
शंकर सुवन केसरी नन्दन । तेज प्रताप महा जगवन्दन ।।
विघावान गुणी अति चातुर । राम काज करिबे को आतुर ।।
प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया । राम लखन सीता मन बसिया ।।
सूक्ष्म रुप धरि सियहिं दिखावा । विकट रुप धरि लंक जरावा ।।
भीम रुप धरि असुर संहारे । रामचन्द्रजी के काज संवारे ।।
लाय संजीवन लखन जियाये । श्री रघुवीर हरषि उर लाये ।।
रघुपति कीन्हीं बहुत बड़ाई । तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई ।।
सहस बदन तुम्हरो यश गावै । अस कहि श्री पति कंठ लगावै ।।
सनकादिक ब्रहादि मुनीसा । नारद सारद सहित अहीसा ।।
यह कुबेर दिकपाल जहां ते । कवि कोबिद कहि सके कहां ते ।।
तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा । राम मिलाय राजपद दीन्हा ।।
तुम्हरो मन्त्र विभीषन माना । लंकेश्वर भये सब जग जाना ।।
जुग सहस्त्र योजन पर भानू । लाल्यो ताहि मधुर फल जानू ।।
प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माही । जलधि लांघि गए अचरज नाहीं ।।
दुर्गम काज जगत के जेते । सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते ।।
राम दुआरे तुम रखवारे । होत न आज्ञा बिनु पैसारे ।।
सब सुख लहै तुम्हारी सरना । तुम रक्षक काहू को डरना ।।
आपन तेज सम्हारो आपै । तीनों लोक हांक ते कांपै ।।
भूत पिशाच निकट नहिं आवै । महाबीर जब नाम सुनावै ।।
नासै रोग हरै सब पीरा । जपत निरन्तर हनुमत बीरा ।।
संकट ते हनुमान छुड़ावै । मन क्रम वचन ध्यान जो लावै ।।
सब पर राम तपस्वी राजा । तिनके काज सकल तुम साजा ।।
और मनोरथ जो कोई लावै । सोइ अमित जीवन फल पावै ।।
चारों जुग परताप तुम्हारा । है परसिद्घ जगत उजियारा ।।
साधु सन्त के तुम रखवारे । असुर निकन्दन राम दुलारे ।।
अष्ट सिद्घि नवनिधि के दाता । अस वर दीन जानकी माता ।।
राम रसायन तुम्हरे पासा । सदा रहो रघुपति के दासा ।।
तुम्हरे भजन राम को पावै । जनम जनम के दुख बिसरावै ।।
अन्तकाल रघुबर पुर जाई । जहाँ जन्म हरि-भक्त कहाई ।।
और देवता चित्त न धरई । हनुमत सेई सर्व सुख करई ।।
संकट कटै मिटै सब पीरा । जो सुमिरै हनुमत बलबीरा ।।
जय जय जय हनुमान गुसांई । कृपा करहु गुरुदेव की नाई ।।
जो शत बार पाठ कर सोई । छूटहिं बंदि महासुख होई ।।
जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा । होय सिद्घि साखी गौरीसा ।।
तुलसीदास सदा हरि चेरा । कीजै नाथ हृदय महं डेरा ।।

।। दोहा ।।
पवनतनय संकट हरन, मंगल मूरति रुप ।
राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुर भूप ।।

पवनसुत हनुमान जी की जय
सियापति राम चन्द्र की जय
उमापति महादेव जी की जय ॐ ॐ

चाणक्य/Chanakya




चाणक्य/Chanakya

चाणक्य का जन्म ईसा पूर्व तीसरी या चौथी शताब्दी माना जाता है । वे एक महान कूटनीतिज्ञ एवं राजनीतिज्ञ थे। इन्होंने मौर्य साम्राज्य की स्थापना और चन्द्रगुप्त को सम्राट बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इनके पिता का नाम चणक था, इसी कारण उन्हें 'चाणक्य' कहा जाता है। वैसे उनका वास्तविक नाम 'विष्णुगुप्त' था। कुटिल कुल में पैदा होने के कारण वे 'कौटिल्य' भी कहलाये।

चाणक्य के जीवन से जुड़ी हुई कई कहानियां प्रचलित हैं। एक बार चाणक्य कहीं जा रहे थे। रास्ते में कुशा नाम

की कंटीली झाड़ी पर उनका पैर पड़ गया, जिससे पैर में घाव हो गया। चाणक्य को कुशा पर बहुत क्रोध आया। उन्होंने वहीं संकल्प कर लिया कि जब तक कुशा को समूल नष्ट नहीं कर दूंगा तब तक चैन से नहीं बैठूँगा। वे उसी समय मट्ठा और कुदाली लेकर पहुंचे और कुशों को उखाड़-उखाड़ कर उनकी जड़ों में मट्ठा डालने लगे ताकि कुशा पुनः न उग आये। इस कहानी से पता चलता है कि चाणक्य कितने कठोर, दृढ संकल्प वाले और लगनशील व्यक्ति थे। जब वे किसी काम को करने का निश्चय कर लेते थे तब उसे पूरा किये बिना चैन से नहीं बैठते थे।

चाणक्य की शिक्षा-दीक्षा तक्षशिला में हुई। तक्षशिला उस समय का विश्व-प्रसिद्ध विश्विद्यालय था। देश विदेश के विभिन्न छात्र वहाँ शिक्षा प्राप्त करने आते थे। छात्रों को चरों वेद, धनुर्विद्या, हाथी और घोड़ों का सञ्चालन, अठारह कलाओं के साथ-साथ न्यायशास्त्र, चिकित्साशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, सामाजिक कल्याण आदि के बारे में शिक्षा दी जाती थी। चाणक्य ने भी ऐसी ही उच्च शिक्षा प्राप्त की। फलतः बुद्धिमान चाणक्य का व्यक्तित्व तराशे हुए हीरे के समान चमक उठा। तक्षशिला में अपनी विद्वता और बुद्धिमत्ता का परचम फहराने के बाद वह वहीं राजनीतिशास्त्र के आचार्य बन गए। देश भर में उनकी विद्वत्ता की चर्चा होने लगी।

उस समय पाटलिपुत्र मगध राज्य की राजधानी थी और वहां घनानंद नाम का राजा राज्य करता था। मगध देश का सबसे बड़ा राज्य था और घनानंद उसका शक्तिशाली राजा। लेकिन घनानंद अत्यंत लोभी और भोगी-विलासी था। प्रजा उससे संतुष्ट नहीं थी। चाणक्य एक बार राजा से मिलने के लिए पाटलिपुत्र आये। वे देशहित में घनानंद को प्रेरित करने आये थे ताकि वे छोटे-छोटे राज्यों में बंटे देश को आपसी वैर-भावना भूलकर एकसूत्र में पिरो सकें। लेकिन घनानंद ने चाणक्य का प्रस्ताव ठुकरा दिया और उन्हें अपमानित करके दरबार से निकाल दिया। इससे चाणक्य के स्वाभिमान को गहरी चोट लगी और वे बहुत क्रोधित हुए। अपने स्वभाव के अनुकूल उन्होंने चोटी खोलकर दृढ संकल्प किया कि जब तक वह घनानंद को अपदस्थ करके उसका समूल विनाश न कर देंगे तब तक चोटी में गांठ नहीं लगायेंगे। जब घनानंद को इस संकल्प की बात पता चली तो उसने क्रोधित होकर चाणक्य को बंदी बनाने का आदेश दे दिया। लेकिन जब तक चाणक्य को बंदी बनाया जाता तब तक वे वहां से निकल चुके थे। महल से बाहर आते ही उन्होंने सन्यासी का वेश धारण किया और पाटलिपुत्र में ही छिपकर रहने लगे।

एक दिन चाणक्य की भेंट बालक चन्द्रगुप्त से हुई, जो उस समय अपने साथियों के साथ राजा और प्रजा का खेल खेल रहा था। राजा के रूप में चन्द्रगुप्त जिस कौशल से अपने संगी-साथियों की समस्या को सुलझा रहा था वह चाणक्य को भीतर तक प्रभावित कर गया। चाणक्य को चन्द्रगुप्त में भावी राजा की झलक दिखाई देने लगी। उन्होंने चन्द्रगुप्त के बारे में विस्तृत जानकारी हासिल की और उसे अपने साथ तक्षशिला ले गए। वहां चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को वेद-शास्त्रों से लेकर युद्ध और राजनीति तक की शिक्षा दी। लगभग आठ साल तक अपने संरक्षण में चन्द्रगुप्त को शिक्षित करके चाणक्य ने उसे एक शूरवीर बना दिया । उन्हीं दिनों विश्व विजय पर निकले यूनानी सम्राट सिकंदर विभिन्न देशों पर विजय प्राप्त करता हुआ भारत की ओर बढ़ा चला आ रहा था। गांधार का राजा आंभी सिकंदर का साथ देकर अपने पुराने शत्रु राजा पुरू को सबक सिखाना चाहता था।

चाणक्य को आंभी की यह योजना पता चली तो वे आंभी को समझाने के लिए गए। आंभी से चाणक्य ने इस सन्दर्भ में विस्तार पूर्वक बातचीत की, उसे समझाना चाहा, विदेशी हमलावरों से देश की रक्षा करने के लिए उसे प्रेरित करना चाहा; किन्तु आंभी ने चाणक्य की एक भी बात नहीं मानी। वह सिकंदर का साथ देने के लिए कटिबद्ध रहा। कुछ ही दिनों बाद जब सिकंदर गांधार प्रदेश में प्रविष्ट हुआ तो आंभी ने उसका जोरदार स्वागत किया। आंभी ने उसके सम्मान में एक विशाल जनसभा का आयोजन किया, जिसमें गांधार के प्रतिष्ठित व्यक्तियों के साथ-साथ तक्षशिला के आचार्य और छात्र भी आमंत्रित किये गए थे। इस सभा में चाणक्य और उनके शिष्य चन्द्रगुप्त भी उपस्थित थे। सभा के दौरान सिकंदर के सम्मान में उसकी प्रशंसा के पुल बांधे गए। उसे महान बताते हुए देवताओं से उसकी तुलना की गयी सिकंदर ने अपने व्याख्यान में अप्रत्यक्षतः भारतीयों को धमकी-सी दी कि उनकी भलाई इसी में है कि वे उसकी सत्ता स्वीकार कर लें। चाणक्य ने सिकंदर की इस धमकी का खुलकर बड़ी ही संतुलित भाषा में विरोध किया। वे विदेशी हमलावरों से देश की रक्षा करना चाहते थे। चाणक्य के विचारों और नीतियों से सिकंदर प्रभावित अवश्य हुआ लेकिन विश्व विजय की लालसा के कारण वह युद्ध से विमुख नहीं होना चाहता था।

सभा विसर्जन के बाद चाणक्य ने चन्द्रगुप्त के सहयोग से तक्षशिला के पांच सौ छात्रों को संगठित किया और उन्हें लेकर राजा पुरु से भेंट की । चाणक्य को देशहित में पुरु का सहयोग मिलने में कोई कठिनाई नहीं हुई । जल्दी ही सिकंदर ने पुरु पर चढ़ाई कर दी। पुरु को चाणक्य और चन्द्रगुप्त का सहयोग प्राप्त था, इसलिए उसका मनोबल बढ़ा हुआ था । युद्ध में पुरु और उसकी सेना ने सिकंदर के छक्के छुड़ा दिए; लेकिन अचानक सेना के हाथी विचलित हो गए, जिससे पुरु की सेना में भगदड़ मच गई। सिकंदर ने उसका पूरा-पूरा लाभ उठाया और पुरु को बंदी बना लिया । बाद में उसने पुरु से संधि कर ली। यह देखकर चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को साथ लेकर पुरु का साथ छोड़ने में ही भलाई समझी। इसके बाद चाणक्य अन्य राजाओं से मिले और उन्हें सिकंदर से युद्ध के लिए प्रेरित करते रहे । इसी बीच सिकंदर की सेना में फूट पड़ गयी। सैनिक लम्बे समय से अपने परिवारों से बिछुड़े हुए थे और युद्ध से ऊब चुके थे। इसलिए वे घर जाना चाहते थे । इधर बहरत में भी सिकंदर के विरुद्ध चाणक्य और चन्द्रगुप्त के नेतृत्व में विभिन्न राजागण सिर उठाने लगे थे । यह देखकर सिकंदर ने यूनान लौटने का फैसला कर लिया। कुछ ही दिनों में बीमारी से उसकी मौत हो गई।

अब चाणक्य के समक्ष घनानंद को अपदस्थ करके एक विशाल साम्राज्य की स्थापना करने का लक्ष्य था। इस बीच चन्द्रगुप्त ने देश-प्रेमी क्षत्रियों की एक सेना संगठित कर ली थी । अतः चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को मगध पर आक्रमण करने को प्रेरित किया। अपनी कूट नीति के बल पर चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को मगध पर विजय दिलवाई । इस युद्ध में राजा घनानंद की मौत हो गयी। चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को मगध का सम्राट घोषित कर दिया। बड़े जोर शोर से उसका स्वागत हुआ। चन्द्रगुप्त अपने गुरु चाणक्य को महामंत्री बनाना चाहता था किन्तु चाणक्य ने यह पद स्वीकार नहीं किया । वह मगध के पूर्व महामंत्री 'राक्षस' को ही यह पद देना चाहते थे। किन्तु राक्षस पहले ही कहीं छिप गया था और अपने राजा घनानंद की मौत का बदला लेने का अवसर ढूँढ़ रहा था। चाणक्य यह बात जानते थे। उन्होंने राक्षस को खोजने के लिए गुप्तचर लगा दिए और एक कूटनीतिक चाल द्वारा राक्षस को बंदी बना लिया। चाणक्य ने राक्षस को कोई सजा नहीं दी, बल्कि चन्द्रगुप्त को सलाह दी कि वह उसके तमाम अपराध क्षमा करके उसे महामंत्री पद पर प्रतिष्ठित करे। चाणक्य खुद गंगा के तट पर एक आश्रम बनाकर रहने लगे। वहीं से वह राज्य की रीति-नीति का निर्धारण करते और चन्द्रगुप्त को यथायोग्य परामर्श देते रहते।

अपनी प्रखर कूटनीति के द्वारा आचार्य चाणक्य ने बिखरे हुए भारतीयों को राष्ट्रीयता के सूत्र में पिरोकर महान राष्ट्र की स्थापना की। किन्तु विशाल मौर्य साम्राज्य के संस्थापक होते हुए भी वे अत्यंत निर्लोभी थे। पाटलिपुत्र के महलों में न रहकर वे गंगातट पर बनी एक साधारण-सी कुटिया में रहते थे और गोबर के उपलों पर अपना भोजन स्वयं तैयार करते थे। चाणक्य द्वारा स्थापित मौर्य साम्राज्य कालांतर में एक महान साम्राज्य बना। चन्द्रगुप्त ने उनके मार्गदर्शन में लगभग चौबीस वर्ष राज्य किया और पश्चिम में गांधार से लेकर पूर्व में बंगाल और उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में मैसूर तक एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की।

आचार्य चाणक्य द्वारा रचित 'अर्थशास्त्र' एवं 'नीतिशास्त्र' नामक ग्रंथों की गणना विश्व की महान कृतियों में की जाती है। चाणक्य नीति में वर्णित सूत्र का उपयोग आज भी राजनीति के मार्गदर्शक सिद्धांतों के रूप में किया जाता है।

गोरखनाथ/Gorakhnath




गोरखनाथ/Gorakhnath

महायोगी गोरखनाथ मध्ययुग (11वीं शताब्दी अनुमानित) के एक विशिष्ट महापुरुष थे। गोरखनाथ के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ (मछंदरनाथ) थे। इन दोनों ने नाथ सम्प्रदाय को सुव्यवस्थित कर इसका विस्तार किया। इस सम्प्रदाय के साधक लोगों को योगी, अवधूत, सिद्ध, औघड़ कहा जाता है।

गुरु गोरखनाथ हठयोग के आचार्य थे। कहा जाता है कि एक बार गोरखनाथ समाधि में लीन थे। इन्हें गहन समाधि में देखकर माँ पार्वती ने भगवान शिव से उनके बारे में पूछा। शिवजी बोले, लोगों को योग शिक्षा देने के लिए ही उन

्होंने गोरखनाथ के रूप में अवतार लिया है। इसलिए गोरखनाथ को शिव का अवतार भी माना जाता है। इन्हें चौरासी सिद्धों में प्रमुख माना जाता है। इनके उपदेशों में योग और शैव तंत्रों का सामंजस्य है। ये नाथ साहित्य के आरम्भकर्ता माने जाते हैं। गोरखनाथ की लिखी गद्य-पद्य की चालीस रचनाओं का परिचय प्राप्त है। इनकी रचनाओं तथा साधना में योग के अंग क्रिया-योग अर्थात् तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान को अधिक महत्व दिया है। गोरखनाथ का मानना था कि सिद्धियों के पार जाकर शून्य समाधि में स्थित होना ही योगी का परम लक्ष्य होना चाहिए। शून्य समाधि अर्थात् समाधि से मुक्त हो जाना और उस परम शिव के समान स्वयं को स्थापित कर ब्रह्मलीन हो जाना, जहाँ पर परम शक्ति का अनुभव होता है। हठयोगी कुदरत को चुनौती देकर कुदरत के सारे नियमों से मुक्त हो जाता है और जो अदृश्य कुदरत है, उसे भी लाँघकर परम शुद्ध प्रकाश हो जाता है।

गोरखनाथ के जीवन से सम्बंधित एक रोचक कथा इस प्रकार है- एक राजा की प्रिय रानी का स्वर्गवास हो गया। शोक के मारे राजा का बुरा हाल था। जीने की उसकी इच्छा ही समाप्त हो गई। वह भी रानी की चिता में जलने की तैयारी करने लगा। लोग समझा-बुझाकर थक गए पर वह किसी की बात सुनने को तैयार नहीं था। इतने में वहां गुरु गोरखनाथ आए। आते ही उन्होंने अपनी हांडी नीचे पटक दी और जोर-जोर से रोने लग गए। राजा को बहुत आश्चर्य हुआ। उसने सोचा कि वह तो अपनी रानी के लिए रो रहा है, पर गोरखनाथ जी क्यों रो रहे हैं। उसने गोरखनाथ के पास आकर पूछा, 'महाराज, आप क्यों रो रहे हैं?' गोरखनाथ ने उसी तरह रोते हुए कहा, 'क्या करूं? मेरा सर्वनाश हो गया। मेरी हांडी टूट गई है। मैं इसी में भिक्षा मांगकर खाता था। हांडी रे हांडी।' इस पर राजा ने कहा, 'हांडी टूट गई तो इसमें रोने की क्या बात है? ये तो मिट्टी के बर्तन हैं। साधु होकर आप इसकी इतनी चिंता करते हैं।' गोरखनाथ बोले, 'तुम मुझे समझा रहे हो। मैं तो रोकर काम चला रहा हूं तुम तो मरने के लिए तैयार बैठे हो।' गोरखनाथ की बात का आशय समझकर राजा ने जान देने का विचार त्याग दिया।

कहा जाता है कि राजकुमार बप्पा रावल जब किशोर अवस्था में अपने साथियों के साथ राजस्थान के जंगलों में शिकार करने के लिए गए थे, तब उन्होंने जंगल में संत गुरू गोरखनाथ को ध्यान में बैठे हुए पाया। बप्पा रावल ने संत के नजदीक ही रहना शुरू कर दिया और उनकी सेवा करते रहे। गोरखनाथ जी जब ध्यान से जागे तो बप्पा की सेवा से खुश होकर उन्हें एक तलवार दी जिसके बल पर ही चित्तौड़ राज्य की स्थापना हुई।
गोरखनाथ जी ने नेपाल और पाकिस्तान में भी योग साधना की। पाकिस्तान के सिंध प्रान्त में स्थित गोरख पर्वत का विकास एक पर्यटन स्थल के रूप में किया जा रहा है। इसके निकट ही झेलम नदी के किनारे राँझा ने गोरखनाथ से योग दीक्षा ली थी। नेपाल में भी गोरखनाथ से सम्बंधित कई तीर्थ स्थल हैं। उत्तरप्रदेश के गोरखपुर शहर का नाम गोरखनाथ जी के नाम पर ही पड़ा है। यहाँ पर स्थित गोरखनाथ जी का मंदिर दर्शनीय है।

गोरखनाथ जी से सम्बंधित एक कथा राजस्थान में बहुत प्रचलित है। राजस्थान के महापुरूष गोगाजी का जन्म गुरू गोरखनाथ के वरदान से हुआ था। गोगाजी की माँ बाछल देवी निःसंतान थी। संतान प्राप्ति के सभी यत्न करने के बाद भी संतान सुख नहीं मिला। गुरू गोरखनाथ 'गोगामेडी' के टीले पर तपस्या कर रहे थे। बाछल देवी उनकी शरण मे गईं तथा गुरू गोरखनाथ ने उन्हें पुत्र प्राप्ति का वरदान दिया और एक गुगल नामक फल प्रसाद के रूप में दिया। प्रसाद खाकर बाछल देवी गर्भवती हो गई और तदुपरांत गोगाजी का जन्म हुआ। गुगल फल के नाम से इनका नाम गोगाजी पड़ा। गोगाजी वीर और ख्याति प्राप्त राजा बने। गोगामेडी में गोगाजी का मंदिर एक ऊंचे टीले पर मस्जिदनुमा बना हुआ है, इसकी मीनारें मुस्लिम स्थापत्य कला का बोध कराती हैं। कहा जाता है कि फिरोजशाह तुगलक सिंध प्रदेश को विजयी करने जाते समय गोगामेडी में ठहरे थे। रात के समय बादशाह तुगलक व उसकी सेना ने एक चमत्कारी दृश्य देखा कि मशालें लिए घोड़ों पर सेना आ रही है। तुगलक की सेना में हाहाकार मच गया। तुगलक की सेना के साथ आए धार्मिक विद्वानों ने बताया कि यहां कोई महान सिद्ध है जो प्रकट होना चाहता है। फिरोज तुगलक ने लड़ाई के बाद आते समय गोगामेडी में मस्जिदनुमा मंदिर का निर्माण करवाया। यहाँ सभी धर्मो के भक्तगण गोगा मजार के दर्शनों हेतु भादौं (भाद्रपद) मास में उमड़ पडते हैं।

महाकवि कालिदास/Kalidas


महाकवि कालिदास/Kalidas
कालिदास भारत की आत्मा, सौन्दर्य और प्रतिभा के महान् प्रतिनिधि हैं। भारतीय राष्ट्रीय चेतना के मूल से उनकी कृतियों का जन्म हुआ है। कालिदास ने भारतीय सांस्कृतिक विरासत को आत्मसात किया, समृद्ध किया और फिर उन्होंने उसे स
ार्वभौम परिवेश और महत्त्व प्रदान किया, इसकी आध्यात्मिक दिशाओं, इसकी प्रज्ञा के आयामों, इसकी कला की अभिव्यक्तियों, इसके राजनैतिक स्वरूपों और अर्थ प्रबंधों – सभी को सद्य, सार्थक और ज्वलंत उक्तियों में अभिव्यक्ति मिली है। उनकी रचनाओं में हमें भाषा की सरलता, उक्तियों की सटीकता, शास्त्रीय अभिरूचि, सायास, औचित्य, गहन कवित्व संवेदना और भाव तथा विचारों का प्रस्फुटन दृष्टिगोचर होता है। उनके नाटकों में हमें करुणा, शक्ति, सौन्दर्य, कथा के गठन और पात्रों के चरित्र-चित्रण में अनुपम कौशल के दर्शन होते हैं। उन्हें राजदरबार तथा पर्वत-श्रृंगों, सुखी परिवारों और वन-तपोवन सभी का ज्ञान है। उनका दृष्टिकोण संतुलित है जो उन्हें उच्चवर्ग तथा निम्नवर्ग, मछुआरे, राजदरबारी, नौकर सभी का वर्णन करने में सक्षम बनाता है।

उनकी कृतियों से यह विदित होता है कि वे ऐसे युग में रहे जिसमें वैभव और सुख-सुविधाएं थीं। संगीत तथा नृत्य और चित्र-कला से उन्हें विशेष प्रेम था। तत्कालीन ज्ञान-विज्ञान, विधि और दर्शन-तंत्र तथा संस्कारों का उन्हें विशेष ज्ञान था। उन्होंने भारत की व्यापक यात्राएं कीं और वे हिमालय से कन्याकुमारी तक देश की भौगोलिक स्थिति से पूर्णतः परिचित प्रतीत होते हैं। हिमालय के अनेक चित्रांकन जैसे विवरण और केसर की क्यारियों के चित्रण (जो कश्मीर में पैदा होती है) ऐसे हैं जैसे उनसे उनका बहुत निकट का परिचय है। जो बात यह महान कलाकार अपनी लेखिनी के स्पर्श मात्र से कह जाता है। अन्य अपने विशद वर्णन के उपरांत भी नहीं कह पाते। कम शब्दों में अधिक भाव प्रकट कर देने और कथन की स्वाभाविकता के लिए कालिदास प्रसिद्ध हैं।

कालिदास संस्कृत भाषा के सबसे महान कवि और नाटककार थे। उन्होंने भारत की पौराणिक कथाओं और दर्शन को आधार बनाकर रचनाएं की। कलिदास अपनी अलंकार युक्त सुंदर सरल और मधुर भाषा के लिये विशेष रूप से जाने जाते हैं। उनके ऋतु वर्णन अद्वितीय हैं और उनकी उपमाएं बेमिसाल। संगीत उनके साहित्य का प्रमुख अंग है और रस का सृजन करने में उनकी कोई उपमा नहीं। उन्होंने अपने शृंगार रस प्रधान साहित्य में भी साहित्यिक सौन्दर्य के साथ साथ आदर्शवादी परंपरा और नैतिक मूल्यों का समुचित ध्यान रखा है। उनका नाम अमर है और उनका स्थान वाल्मीकि और व्यास की परम्परा में है।
कालिदास के जीवनकाल के बारे में थोड़ा विवाद है। भारतीय परम्परा में कालिदास और विक्रमादित्य से जुड़ी कई कहानियां हैं। इन्हें विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक माना जाता है। इतिहासकार कालिदास को गुप्त शासक चंद्रगुप्त विक्रमादित्य और उनके उत्तराधिकारी कुमारगुप्त से जोड़ते हैं, जिनका शासनकाल चौथी शताब्दी में था। कालिदास के जन्मस्थान के बारे में भी विवाद है, लेकिन उज्जैन के प्रति उनकी विशेष प्रेम को देखते हुए लोग उन्हें उज्जैन का निवासी मानते हैं।


कालिदास के प्रमुख नाटक हैं- मालविकाग्निमित्रम् (मालविका और अग्निमित्र), विक्रमोर्वशीयम् (विक्रम और उर्वशी), और अभिज्ञान शाकुन्तलम् (शकुंतला की पहचान)।

मालविकाग्निमित्रम् कालिदास की पहली रचना है, जिसमें राजा अग्निमित्र की कहानी है। अग्निमित्र एक निर्वासित नौकर की बेटी मालविका के चित्र के प्रेम करने लगता है। जब अग्निमित्र की पत्नी को इस बात का पता चलता है तो वह मालविका को जेल में डलवा देती है। मगर संयोग से मालविका राजकुमारी साबित होती है, और उसके प्रेम-संबंध को स्वीकार कर लिया जाता है।

अभिज्ञान शाकुन्तलम् कालिदास की दूसरी रचना है जो उनकी जगतप्रसिद्धि का कारण बना। इस नाटक का अनुवाद अंग्रेजी और जर्मन के अलावा दुनिया के अनेक भाषाओं में हुआ है। इसमें राजा दुष्यंत की कहानी है जो वन में एक परित्यक्त ऋषि पुत्री शकुन्तला (विश्वामित्र और मेनका की बेटी) से प्रेम करने लगता है। दोनों जंगल में गंधर्व विवाह कर लेते हैं। राजा दुष्यंत अपनी राजधानी लौट आते हैं। इसी बीच ऋषि दुर्वासा शकुंतला को शाप दे देते हैं कि जिसके वियोग में उसने ऋषि का अपमान किया वही उसे भूल जाएगा। काफी क्षमाप्रार्थना के बाद ऋषि ने शाप को थोड़ा नरम करते हुए कहा कि राजा की अंगूठी उन्हें दिखाते ही सब कुछ याद आ जाएगा। लेकिन राजधानी जाते हुए रास्ते में वह अंगूठी खो जाती है। स्थिति तब और गंभीर हो गई जब शकुंतला को पता चला कि वह गर्भवती है। शकुंतला लाख गिड़गिड़ाई लेकिन राजा ने उसे पहचानने से इनकार कर दिया। जब एक मछुआरे ने वह अंगूठी दिखायी तो राजा को सब कुछ याद आया और राजा ने शकुंतला को अपना लिया। शकुंतला शृंगार रस से भरे सुंदर काव्यों का एक अनुपम नाटक है। कहा जाता है काव्येषु नाटकं रम्यं तत्र रम्या शकुन्तला (कविता के अनेक रूपों में अगर सबसे सुन्दर नाटक है तो नाटकों में सबसे अनुपम शकुन्तला है।)

कालिदास का नाटक विक्रमोर्वशीयम बहुत रहस्यों भरा है। इसमें पुरूरवा इंद्रलोक की अप्सरा उर्वशी से प्रेम करने लगते हैं। पुरूरवा के प्रेम को देखकर उर्वशी भी उनसे प्रेम करने लगती है। इंद्र की सभा में जब उर्वशी नृत्य करने जाती है तो पुरूरवा से प्रेम के कारण वह वहां अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाती है। इससे इंद्र गुस्से में उसे शापित कर धरती पर भेज देते हैं। हालांकि, उसका प्रेमी अगर उससे होने वाले पुत्र को देख ले तो वह फिर स्वर्ग लौट सकेगी। विक्रमोर्वशीयम् काव्यगत सौंदर्य और शिल्प से भरपूर है।

इन नाटकों के अलावा कालिदास ने दो महाकाव्यों और दो गीतिकाव्यों की भी रचना की। रघुवंशम् और कुमारसंभवम् उनके महाकाव्यों के नाम है। रघुवंशम् में सम्पूर्ण रघुवंश के राजाओं की गाथाएँ हैं, तो कुमारसंभवम् में शिव-पार्वती की प्रेमकथा और कार्तिकेय के जन्म की कहानी है।

रघुवंश’ की कथा को कालिदास ने १९ सर्गों में बाँटा है जिनमें राजा दिलीप, रघु, अज, दशरथ, राम, लव, कुश, अतिथि तथा बाद के बीस रघुवंशी राजाओं की कथा गूँथी गई है। इस कथा के माध्यम से कवि कालिदास ने राजा के चरित्र, आदर्श तथा राजधर्म जैसे विषयों का बडा सुंदर वर्णन किया है। भारत के इतिहास में सूर्यवंश के इस अध्याय का वह अंश भी है जिसमें एक ओर यह संदेश है कि राजधर्म का निर्वाह करनेवाले राजा की कीर्ति और यश देश भर में फैलती है, तो दूसरी ओर चरित्रहीन राजा के कारण अपयश व वंश-पतन निश्चित है, भले ही वह किसी भी उच्च वंश का वंशज ही क्यों न रहा हो!

‘रघुवंश’ की कथा दिलीप और उनकी पत्नी सुदक्षिणा के ऋषि वशिष्ठ के आश्रम में प्रवेश से प्रारम्भ होती है। राजा दिलीप धनवान, गुणवान, बुद्धिमान और बलवान है, साथ ही धर्मपरायण भी। वे हर प्रकार से सम्पन्न हैं परंतु कमी है तो संतान की। संतान प्राप्ति का आशीर्वाद पाने के लिए दिलीप को गोमाता नंदिनी की सेवा करने के लिए कहा जाता है। रोज की तरह नंदिनी जंगल में विचर रही है और दिलीप भी उसकी रखवाली के लिए साथ चलते हैं। इतने में एक सिंह नंदिनी को अपना भोजन बनाना चाहता है। दिलीप अपने आप को अर्पित कर सिंह से प्रार्थना करते हैं कि उन्हें वह अपना आहार बनाये। सिंह प्रार्थना स्वीकार कर लेता है और उन्हें मारने के लिए झपटता है। इस छलांग के साथ ही सिंह ओझल हो जाता है। तब नन्दिनी बताती है कि उसी ने दिलीप की परीक्षा लेने के लिए यह मायाजाल रचा था। नंदिनी दिलीप की सेवा से प्रसन्न होकर पुत्र प्राप्ति का आशीर्वाद देती है। राजा दिलीप और सुदक्षिणा नंदिनी का दूध ग्रहण करते हैं और उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है। इस गुणवान पुत्र का नाम रघु रखा जाता है जिसके पराक्रम के कारण ही इस वंश को रघुवंश के नाम से जाना जाता है।

रघु के पुत्र अज भी बडे़ पराक्रमी हुए। उन्होंने विदर्भ की राजकुमारी इंदुमति के स्वयंवर में जाकर उन्हें अपनी पत्नी बनाया। कालिदास ने इस स्वयंवर का सुंदर वर्णन ‘रघुवंश’ में किया है। रघु ने अज का राज-कौशल देखकर अपना सिंहासन उन्हें सौंप दिया और वानप्रस्थ ले लिया। रघु की तरह अज भी एक कुशल राजा बने। वे अपनी पत्नी इन्दुमति से बहुत प्रेम करते थे। एक बार नारदजी प्रसन्नचित्त अपनी वीणा लिए आकाश में विचर रहे थे। संयोगवश उनकी विणा का एक फूल टूटा और बगीचे में सैर कर रही रानी इंदुमति के सिर पर गिरा जिससे उनकी मृत्यु हो गई। राजा अज इंदुमति के वियोग में विह्वल हो गए और अंत में जल-समाधि ले ली। कालिदास ने ‘रघुवंश’ के आठ सर्गों में दिलीप, रघु और अज की जीवनी पर प्रकाश डाला। बाद में उन्होंने दशरथ, राम, लव और कुश की कथा का वर्णन आठ सर्गों में किया। जब राम लंका से लौट रहे थे, तब पुष्प विमान में बैठी सीता को दण्डकारण्य तथा पंचवटी के उन स्थानों को दिखा रहे थे जहाँ उन्होंने सीता की खोज की थी। इसका बडा़ ही सुंदर एवं मार्मिक दृष्टांत कालिदास ने ‘रघुवंश’ के तेरहवें सर्ग में किया है। इस सर्ग से पता चलता है कि कालिदास की भौगोलिक जानकारी कितनी गहन थी। अयोध्या की पूर्व ख्याति और वर्तमान स्थिति का वर्णन कुश के स्वप्न के माध्यम से कवि ने बडी़ कुशलता से सोलहवें सर्ग में किया है। अंतिम सर्ग में रघुवंश के अंतिम राजा अग्निवर्ण के भोग-विलास का चित्रण किया गया है। राजा के दम्भ की पराकाष्ठा यह है कि जनता जब राजा के दर्शन के लिए आती है तो अग्निवर्ण अपने पैर खिड़की के बाहर पसार देता है। जनता के अनादर का परिणाम राज्य का पतन होता है और इस प्रकार एक प्रतापी वंश की इति भी हो जाती है।

मेघदूतम् और ऋतुसंहारः उनके गीतिकाव्य हैं।

यादें .....

अपनी यादें अपनी बातें लेकर जाना भूल गए  जाने वाले जल्दी में मिलकर जाना भूल गए  मुड़ मुड़ कर पीछे देखा था जाते ...