30 जनवरी, 2011
27 जनवरी, 2011
पिता जी की डायरी से....
टुकडो में बीके जो रहते है
वे ज्ञान की बाते क्या जाने।
भवसागर जिनका डेरा है
किनार की बाते क्या जाने।
जिनके भावों में पशुता है
जिनके जीवन में लघुता है ।
लोभी कामी कोई होकर के
सदभाव की बातें क्या जाने ।
जो मुर्ख बनाता है जग को
वह भी मुर्ख बन जाता है।
गुमराह जो करते है मुरख
आचार की बातें क्या जाने ।
एक सच्चा ज्ञानी होकर के
और दौड़ लगाता है जग मे।
जाहिर है धोखा है उसमे
सत्संग की बातें क्या जाने।
--अवधेश कुमार तिवारी
पिता जी की डायरी से....
ऊंची अटरिया पे पलंग बिछाके
सुतल हो गोरी दुश्मन जगा के ।
अपने पिया संग राखे ना मिताई
सखिया सहेली संग बीते तरुणाई।
घुमेली बजरिया में घूँघट लगाके
सुतल हो ...........।
बड चंचल बाटे दुश्मनवा
हर छन दवुरत सकल जहनवा।
सोबत ही जइहे दगिया लगाके
सुतल हो ...........।
एक दिन जायेके परिहे गवनवा
चुंदर मैली ना रीझे सजनवा।
झरे लागे नीर नैनवा में आके
सुतल हो ...........।
जागत रहबू सुतिहे दुश्मनवा
मौन बतिया मान मिलिहे सजनवा ।
अपने पिया संग घूँघट हटाके
सुतल हो ...........।
--अवधेश कुमार तिवारी
26 जनवरी, 2011
स्मृति में..
पिताजी की डायरी से...
स्मृति में..
मेरे नगमे तुम्हारे लबो पर, अचानक ही आते रहेंगें .
एक गुजरी हुई जिंदगी में , फिरसे वापस बुलाते रहेगें.
याद आयेगा तुमको सरोवर ,और पीपल की सुन्दर ये छाया .
ये बिल्डिंग खड़ी याद होगी , जिसको यादों में हमने बसाया .
बरबस ये कहेंगे कहानी ,और हम मुस्कराते रहेगें.
कोई मिशिर है कोई यादव कोई चौबे कोई तिवारी.
हर किसी की अलग बात होगी , चाहें नर हो या कोई नारी.
याद आयेगें ज़माने की बातें ,और हम गुनगुनाते रहेगें .
सामने होगा मंदिर ओ जंगल ,ये धाम जहाँ बैठे हैं बाबा.
जिनपर निछावर है सब कुछ , काशी मथुरा अयोध्या काबा.
सरोवर में फूले कमल पर भौरे गीत गाते रहेगें.
मेरे नगमे तुम्हारे लबो पर, अचानक ही आते रहेंगें .
-----अवधेश कुमार तिवारी
जिंदगी यह प्रेम की प्यासी जरूर है,
जिंदगी यह प्रेम की प्यासी जरूर है,
दिल रुबाई हुश्न में शाकी जरूर है.
हर गुलों में हुश्न आयी है उसी एक नूर की .
हुश्न वालों की नज़र बाकी जरूर है.
तोड़ दी तप के नशे को लाख ही नजीर है .
बेकरारी प्यार में आती जरूर है.
थाम कर बैठे जिगर हुश्न ने ही छीन ली.
जब बना बेताब दिल ,भाती जरूर है.
रूप तेरा दिल है ,तेरा कुछ नहीं है गैर का .
दिल सदा दिलदार ने पायी जरूर है.
-अवधेश कुमार तिवारी
पिता जी की डायरी से....
पिताजी की डायरी से.....
नेता जी.
राजनीती कहवा से सिखलीं, नेता भयिलिन कहिया .
हम ता देखली कोल्हुवाड़े में,चाटत रहलीं महिया.
त्यागी तपस्वी बनी नाही,कैसे चली यी गाड़ी.
काहें जाएब पटना दिल्ली ,गउएं चाटी हांड़ी .
आसन पर बैठब जब राउया,नाश हो जाई तहिया.
हम टी देखली कोल्हुवाड़े में,चाटत रहलीं महिया.
आपन गदही पाड़ी लेके ,वापस घर के जाईं.
हंसा कोई बिरला होला , रौवा तनि सरमायीं
आपन जोर लगाईं तनिको, धशिं जाई ई पहिया .
हम ता देखली कोल्हुवाड़े में,चाटत रहलीं महिया.
राउर ई तिहार जेल ह ,राउर चम्बल घाटी.
सोची समझी सिर न उठायीं ,अति तोरी परिपाटी .
रौवा जैसे लगत बानी , पाकिस्तानी अहिया.
हम ता देखली कोल्हुवाड़े में, चाटत रहलीं महिया.
प्रजा तंत्र के बोली बोलनी, नेता तंत्र ले ऐली.
ज्ञान श्रधा सच्चाई जग से, नोच नोच के खैली.
इंसानियत के कैली बिदाई, राजा भएली जहिया.
हम ता देखली कोल्हुवाड़े में, चाटत रहलीं महिया.
रोज रोज चुनाव करायीं , बाटे नाही आशा.
राउर ई सरकार कभी ,ना चली बारहों मासा .
कुर्सी के लो भी के चलते, देश नाश के रहिया .
हम ता देखली कोल्हुवाड़े में, चाटत रहलीं महिया.
राज पद ह ऊँचा आसन , बैठे सब बिचारीं.
काहें रौया धईले बा, मोहि ले चल के बीमारी .
देशवा जली के राख हो जाई ,बात बुझाई तहिया .
हम ता देखली कोल्हुवाड़े में, चाटत रहलीं महिया.
एक छत्र छाया के निचे ,रौवा सब चली आयीं
जाती पात के भेद भुला के ,सबके गले लगाईं
सुमति राखि कुमति के छोड़ीं , राम राज होई तहिया .
हम ता देखली कोल्हुवाड़े में, चाटत रहलीं महिया.
----अवधेश कुमार तिवारी
हम ता देखली कोल्हुवाड़े में,चाटत रहलीं महिया.
त्यागी तपस्वी बनी नाही,कैसे चली यी गाड़ी.
काहें जाएब पटना दिल्ली ,गउएं चाटी हांड़ी .
आसन पर बैठब जब राउया,नाश हो जाई तहिया.
हम टी देखली कोल्हुवाड़े में,चाटत रहलीं महिया.
आपन गदही पाड़ी लेके ,वापस घर के जाईं.
हंसा कोई बिरला होला , रौवा तनि सरमायीं
आपन जोर लगाईं तनिको, धशिं जाई ई पहिया .
हम ता देखली कोल्हुवाड़े में,चाटत रहलीं महिया.
राउर ई तिहार जेल ह ,राउर चम्बल घाटी.
सोची समझी सिर न उठायीं ,अति तोरी परिपाटी .
रौवा जैसे लगत बानी , पाकिस्तानी अहिया.
हम ता देखली कोल्हुवाड़े में, चाटत रहलीं महिया.
प्रजा तंत्र के बोली बोलनी, नेता तंत्र ले ऐली.
ज्ञान श्रधा सच्चाई जग से, नोच नोच के खैली.
इंसानियत के कैली बिदाई, राजा भएली जहिया.
हम ता देखली कोल्हुवाड़े में, चाटत रहलीं महिया.
रोज रोज चुनाव करायीं , बाटे नाही आशा.
राउर ई सरकार कभी ,ना चली बारहों मासा .
कुर्सी के लो भी के चलते, देश नाश के रहिया .
हम ता देखली कोल्हुवाड़े में, चाटत रहलीं महिया.
राज पद ह ऊँचा आसन , बैठे सब बिचारीं.
काहें रौया धईले बा, मोहि ले चल के बीमारी .
देशवा जली के राख हो जाई ,बात बुझाई तहिया .
हम ता देखली कोल्हुवाड़े में, चाटत रहलीं महिया.
एक छत्र छाया के निचे ,रौवा सब चली आयीं
जाती पात के भेद भुला के ,सबके गले लगाईं
सुमति राखि कुमति के छोड़ीं , राम राज होई तहिया .
हम ता देखली कोल्हुवाड़े में, चाटत रहलीं महिया.
----अवधेश कुमार तिवारी
25 जनवरी, 2011
पिताजी की डायरी से.......22/05/1995
पिताजी की डायरी से.......
मनुष्य में कुछ भावनाएं स्थाई रूप से रहती हैं. उन भावनाओं में परिवर्तन धीरे धीरे आता है.एक लम्बे समय के बाद उसके स्थान पर दूसरी भावना आती है.प्राचीन काल में भारतीय भावना यही रहती थी की ईश्वर को प्रसन्न रखना है. जिसके परिणाम स्वरुप वह सदगुणों के तरफ अग्रसर था. एस प्रकार उसका समाजी जीवन बड़ा ही उत्तम था.
विदेशों में विज्ञानं का जन्म बताया जाता है,इसका कारन ईश्वर के प्रति अज्ञान या अविश्वास भी हो सकता है.विज्ञानं स्वतः राक्षश है,आत्म ज्ञान देवता है.यह राक्षश अदृश्य के माध्यम से ही विकसित हुआ और भारत पर भी अपना अधिक कर लिया .भारत में भी राजनितिक नेताओ का जन्म होने लगा और भारत को आजाद कराने में नेताओं जो भूमिका अदा की उससे सभी भारत वासी उनके पीछे आ गए. आम जनता ने उनके प्रति विश्वास प्रकट किया ,एस प्रकार उन्होंने प्राचीन परंपरा को तोड़ कर इश्वरीय नियमो के विरुद्ध संबिधान बनाया . विज्ञानं और संबिधान दोनों ने प्रदुषण फैलाना शुरू कर दिया जिसके फलस्वरूप पृथ्वी से जुदा होने की स्थिति आ गयी है.आज की परिस्थितियों को देखते हुए भविष्य का अंदाजा लगाया जा सकता है.मुख्य लीला भारत की ही होती है इस पर किसी को विचार करने का तथा निर्णय लेने का अधिकार मिल जाय तो उसे क्या सोचना चाहिए..? मनुष्य जाति का हित किसमे होगा ? लीला को आगे बढ़ाने में या यहीं विराम देने में.फिर लीला आगे बढ़ाने से क्या लाभ , परेसानियाँ और बढ़ती जाएगी .
भव सागरीय प्रतेक बातें झूठी हैं ,उन्हें झूठ समझने की कोशिस की जाय और आत्मा को पहचान कर सत्य को पहचाना जाय. सत्य में ही विश्वास किया जाय . झूठ को अपने से अलग रखेगे तो सत्य की ओर अपने आप बढ़ते जायेंगें ..
----अवधेश कुमार तिवारी
२२/०५/१९९५
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