“स्वाध्याय” स्वयं में एक पूर्ण जीवन-दर्शन है —
स्वाध्याय – आत्मबोध की ज्योति
मनुष्य का सबसे बड़ा शिक्षक स्वयं उसका स्वयं होता है। जब कोई व्यक्ति बाहरी शोर से हटकर अपने भीतर झांकता है, तभी स्वाध्याय की शुरुआत होती है। यह केवल ग्रंथ पढ़ने या शास्त्रों का अध्ययन करने भर का कार्य नहीं, बल्कि आत्मा की आवाज़ को सुनने की साधना है।
स्वाध्याय हमें सिखाता है कि ज्ञान बाहर नहीं, भीतर है। जो सत्य हम वेदों, गीता या उपनिषदों में खोजते हैं, वही सत्य हमारे अंतर में छिपा होता है। अंतर बस इतना है कि कोई उसे शब्दों में पढ़ता है, और कोई अनुभव में जीता है।
जब हम स्वाध्याय करते हैं, तो धीरे-धीरे हमारे भीतर छिपे अंधकार पर प्रकाश पड़ता है। अहंकार का पर्दा हटने लगता है, और मन अपने मूल स्वरूप को पहचानने लगता है। यही वह क्षण है जब व्यक्ति बाहरी भ्रम से मुक्त होकर सत्य की दिशा में बढ़ता है।
स्वाध्याय का अर्थ यह नहीं कि हम केवल धार्मिक ग्रंथों को दोहराएँ — बल्कि यह है कि हम हर अनुभव से सीखें, हर भूल से सुधारें, और हर श्वास में आत्मबोध का अनुभव करें। जीवन स्वयं सबसे बड़ा शास्त्र है; बस पाठक बनना आना चाहिए।
जैसे-जैसे हम आत्मनिरीक्षण करते हैं, भीतर एक मौन ज्ञान जन्म लेता है — जो किसी पुस्तक से नहीं, बल्कि आत्मानुभूति से मिलता है। यही ज्ञान मनुष्य को विनम्र बनाता है, क्योंकि सच्चे ज्ञानी को यह भान होता है कि जानने को अभी भी कितना शेष है।
आज के युग में जब सूचनाएँ हर ओर बिखरी हैं, स्वाध्याय हमें विवेक देता है — क्या ग्रहण करना है और क्या त्यागना। यही विवेक अंततः हमें शांति, संतुलन और सत्य के मार्ग पर ले जाता है।
स्वाध्याय केवल पढ़ना नहीं, जीना है। जब जीवन स्वयं ग्रंथ बन जाए और हर कर्म एक श्लोक बन जाए, तभी सच्चा स्वाध्याय पूर्ण होता है।
– रामेश्वर नाथ तिवारी
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