24 अक्टूबर, 2012

भारत में पान और पान की खेती

भारत में पान और पान की खेती


पान भारत के इतिहास एवं परंपराओं से गहरे से जुड़ा है। इसका उद्भव स्थल मलाया द्वीप है। पान विभिन्न भारतीय भाषाओं में अलग-अलग नामों से जाना जाता है जैसे ताम्बूल (संस्कृत), पक्कू (तेलुगू), वेटिलाई (तमिल और मलयालम) और नागुरवेल (गुजराती) आदि। पान का प्रयोग हिन्दू संस्कार से जुड़ा है, जैसे नामकरण, यज्ञोपवीत आदि। वेदों में भी पान के सेवन की पवित्रता का वर्णन है।
इस लता के पत्ते छोटे, बड़े अनेक आकार प्रकार के होते हैं। बीच में एक मोटी नस होती है और प्राय: इस पत्ते की आकृति मानव के हृदय (हार्ट) से मिलती जुलती होती है। भारत के विभिन्न भागों में होनेवाले पान के पत्तों की सैकड़ों किस्में हैं - कड़े, मुलायम, छोटे, बड़े, लचीले, रूखे आदि। उनके स्वाद में भी बड़ा अंतर होता है। कटु, कषाय, तिक्त और मधुर-पान के पत्ते प्राय: चार स्वाद के होते हैं। उनमें औषधीय गुण भी भिन्न भिन्न प्रकार के होते हैं। देश, गंध आदि के अनुसार पानों के भी गुणर्धममूलक सैकड़ों जातिनाम हैं जैसे- जगन्नाथी, बँगाली, साँची, मगही, सौंफिया, कपुरी (कपूरी) कशकाठी, महोबाई आदि। गर्म देशों में, नमीवाली भूमि में ज्यादातर इसकी उपज होती है। भारत, बर्मा, सिलोन आदि में पान की अघिक पैदायश होती है। इसकी खेती कि लिये बड़ा परिश्रम अपेक्षित है। एक ओर जितनी उष्णता आवश्यक है, दूसरी ओर उतना ही रस और नमी भी अपेक्षित है। देशभेद से इसकी लता की खेती और सुरक्षा में भेद होता है। पर सर्वत्र यह अत्यंत श्रमसाध्य है। इसकी खेती के स्थान को कहीं बरै, कहीं बरज, कहीं बरेजा और कहीं भीटा आदि भी कहते हैं। खेती आदि कतरनेवालों को बरे, बरज, बरई भी कहते हैं। सिंचाई, खाद, सेवा, उष्णता सौर छाया आदि के कारण इसमें बराबर सालभर तक देखभाल करते रहना पड़ता है और सालों बाद पत्तियाँ मिल पानी हैं और ये भी प्राय: दो तीन साल ही मिलती हैं। कहीं कहीं 7-8 साल तक भी प्राप्त होती हैं। कहीं तो इस लता को विभिन्न पेड़ों-मौलसिरी, जयंत आदि पर भी चढ़ाया जाता है। इसके भीटों और छाया में इतनी ठंढक रहती है कि वहाँ साँप, बिच्छू आदि भी आ जाते हैं।



इन हरे पत्तों को सेवा द्वारा सफेद बनाया जाता है। तब इन्हें बहुधा पका या सफेद पान कहते हैं। बनारस में पान की सेवा बड़े श्रम से की जाती है। मगह के एक किस्म के पान को कई मास तक बड़े यत्न से सुरक्षित रखकर पकाते हैं जिसे "मगही पान" कहा जाता है और जो अत्यंत सुस्वादु एवं मूल्यवान् जाता है। समस्त भारत में (विशेषत: पश्चिमी भाग को छोड़कर) सर्वत्र पान खाने की प्रथा अत्यधिक है। मुगल काल से यह मुसलमानों में भी खूब प्रचलित है। संक्षेप में, लगे पान को भारत का एक सांस्कृतिक अंग कह सकते हैं।

पान के पौधे
वैज्ञानिक दृष्टि से पान एक महत्वपूर्ण वनस्पति है। पान दक्षिण भारत और उत्तर पूर्वी भारत में खुली जगह उगाया जाता है, क्योंकि पान के लिए अधिक नमी व कम धूप की आवश्यकता होती है। उत्तर और पूर्वी प्रांतों में पान विशेष प्रकार की संरक्षणशालाओं में उगाया जाता है। इन्हें भीट या बरोज कहते हैं। पान की विभिन्न किस्मों को वैज्ञानिक आधार पर पांच प्रमुख प्रजातियों बंगला, मगही, सांची, देशावरी, कपूरी और मीठी पत्ती के नाम से जाना जाता है। यह वर्गीकरण पत्तों की संरचना तथा रासायनिक गुणों के आधार पर किया गया है। रासायनिक गुणों में वाष्पशील तेल का मुख्य योगदान रहता है। ये सेहत के लिये भी लाभकारी है। खाना खाने के बाद पान का सेवन पाचन में सहायक होता है।

पान में वाष्पशील तेलों के अतिरिक्त अमीनो अम्ल, कार्बोहाइड्रेट और कुछ विटामिन प्रचुर मात्रा में होते हैं। पान के औषधीय गुणों का वर्णन चरक संहिता में भी किया गया है। ग्रामीण अंचलों में पान के पत्तों का प्रयोग लोग फोड़े-फुंसी उपचार में पुल्टिस के रूप में करते हैं। हितोपदेश के अनुसार पान के औषधीय गुण हैं बलगम हटाना, मुख शुद्धि, अपच, श्वांस संबंधी बीमारियों का निदान। पान की पत्तियों में विटामिन ए प्रचुर मात्रा में होता है। प्रात:काल नाश्ते के उपरांत काली मिर्च के साथ पान के सेवन से भूख ठीक से लगती है। ऐसा यूजीनॉल अवयव के कारण होता है। सोने से थोड़ा पहले पान को नमक और अजवायन के साथ मुंह में रखने से नींद अच्छी आती है। यही नहीं पान सूखी खांसी में भी लाभकारी होता है।

सांस्कृतिक महत्व

भारत की सांस्कृतिक दृष्टि से तांबूल (पान) का स्थान अत्यंत महत्वपूर्ण है। जहाँ वह एक ओर धूप, दीप और नैवेद्य के साथ आराध्य देव को चढ़ाया जाता है, वहीं शृंगार और प्रसाधन का भी अत्यावश्यक अंग है। इसके साथ साथ विसालक्रीड़ा का भी वह अंग रहा है। मुखशुद्धि का साधन भी है और औषधीय गुणों से संपन्न भी माना गया है। संस्कृत की एक सूक्ति में तांबूल के गुणवर्णन में कहा है - वह वातध्न, कृमिनाशक, कफदोषदूरक, (मुख की) दुर्गंध का नाशकर्ता और कामग्नि संदीपक है। उसे र्धर्य उत्साह, वचनपटुता और कांति का वर्धक कहा गया है। सुश्रुत संहिता के समान आयुर्वेद के प्राचीन ग्रंथ में भी इसके औषधीय द्रव्यगुण की महिमा वर्णित है। आयुर्वेदिक चिकित्सको द्वारा विभिन्न रोगों में औषधों के अनुपान के रूप में पान के रस का प्रयोग होता है। आधुनिक वैज्ञानिकों ने भी अन्वेषण द्वारा इसके गुणदोषों का विवरण दिया है।
पुराणों, संस्कृत साहित्य के ग्रंथों, स्तोत्रों आदि में तांबूल के वर्णन भरे पड़े हैं। शाक्त तंत्रों (संगमतंत्र-कालीखंड) में इसे सिद्धिप्राप्ति का सहायक ही नहीं कहा है वरन् यह भी कहा है कि जप में तांबूल-चर्वण और दीक्षा में गुरु को समर्पण किए बिना सिद्धि अप्राप्त रहती है। उसे यश, धर्म, ऐश्वर्य, श्रीवैराग्य और मुक्ति का भी साधक कहा है। इसके अतिरिक्त पाँचवीं शती के बादवाले कई अभिलेखों में भी इसका प्रचुर उल्लेख है। इसी तरह हिंदी की रीतिकालीन कविता में भी तांबूल की बड़ी प्रशंसा मिलती है - सौंदर्यवर्धक और शोभाकारक रूप में भी और मादक, उद्दीपक रूप में भी।
राजाओं और महाराजाओं के हाथ से तांबूलप्राप्ति को कवि, विद्वान, कलाकार आदि बहुत बड़ी प्रतिष्ठा की बात मानते थे। नैषधकार ने अपना गौरववर्णन करते हुए बताया है कि कान्यकुब्जेश्वर से तांबूलद्वय प्राप्त करने का उन्हें सौभाग्य मिला था। मंगलकार्य में, उत्सवों में, देवपूजन तथा विवाहादि शुभ कार्यों में पान के बीड़ों का प्रयोग होता है और उसके द्वारा आगतों का शिष्टाचारपरक स्वागत किया जाता हे। सबका तात्पर्य इतना ही है कि भारतीय संस्कृति में तांबूल का महत्वपूर्ण और व्यापक स्थान रहा है। भारत के सभी भागों में इसका प्रचार चिरकाल से चला आ रहा है। उत्तर भारत की समस्त भाषाओं में ही नहीं दक्षिण की तमिल (वेत्तिलाई), तेलगू (तमालपाडू नागवल्ली), मलयालम (वित्तिल्ला, वेत्ता) और कनाड़ी (विलेदेले) आदि भाषाओं में इसके लिये विभिन्न नाम हैं। बर्मी, सिंहली और अरबी फारसी में भी इसके नाम मिलते हें। इससे पान की व्यापकता ज्ञात होती है।


भारत में पान खाने की प्रथा कब से प्रचलित हुई इसका ठीक ठीक पता नहीं चलता। परंतु "वात्स्यायनकामसूत्र" और रघुवंश आदि प्राचीन ग्रंथों में "तांबूल" शब्द का प्रयोग मिलता है। इस शब्द को अनेक भाषाविज्ञ आर्येतर मूल का मानते है। बहुतों के विचार से यवद्वीप इसका आदि स्थान है। तांबूल के अतिरिक्त नागवल्ली, नागवल्लीदल, तांबूली, पर्ण (जिससे हिंदी का पान शब्द निकला है), नागरबेल (गुजराती) आदि इसके नाम हैं। यह औषधीय काम में भी आता है पर इसका सर्वाधिक उपयोग के लिये होता है।


उत्तर प्रदेश में पान की खेती के लिए महोबा, वाराणसी और लखनऊ से सटे बंथरा और निगोहां का इलाका काफी मशहूर है। इसमें भी बनारस और महोबा के पान का गुणगान कई फिल्मों में किया जा चुका है।

भारत में पान की खेती अनेक स्थानों में होती है। परन्तु मगही पान सर्वोत्तम है। आर्थिक दृष्टिकोण से बी मगही पान की कीमत अन्य जगहों की पान की अपेक्षा अधिक है। मगध के अनेको ग्रामों में पान की खेती की जाती है। मगध के मुख्यत: तीन जिलों में पान की खेती होती है। वे जिले हैं नवादा, नालन्दा, तथा औरंगाबाद। नवादा जिल के मंझवे, तुंगी, बेलदारी, ठियौरी, कैथी हतिया, पचिया, नारदीगंज, छत्तरवार डोला तथा डफलपुरा में, नालन्दा जिले को बौरी, गाँव के बारह टोले में, कोचरा, जौए, डेउरा सरथुआ में तता औरंगाबाद जिले के देव प्रखण्ड के बारह गाँवों में पान की खेती होती है। इसके साथ ही साथ गया जिले के बोध गया। आमस तथा बजीरगंज प्रखण्डों में भी पान की खेती होती है। उपरोक्त सभी स्थानों में पान की खेती एक विशेष जाति के लोग जिन्हें चौरसिया "बरई" के नां से जाने जाते हैं सदियों से करते आ रहे हैं। मगध क्षेत्र में ही नहीं बल्कि जहाँ भी पृथ्वी पर पान का खेती होती है उसे चौरसिया ही सिर्फ पान की खेती होती है उसे चौरसिया ही सिर्फ पान की खेती क्यों करते ?

 इसकी श्रुतियों के आधार पर एक पौराणिक कहानी है। अत्यंत प्राचीन काल में एक बार समस्त ॠषिगणों ने पृथ्वी पर विष्णु यज्ञ का आयोजन करने का संकल्प किया। यज्ञ के लिये समस्त वस्तु पृथ्वी पर उपलब्ध थी। परन्तु पान पृथ्वी पर नहीं था। बिना पान के यज्ञ की पूर्णता पर प्रश्न चिन्ह उपस्थित हो गया। समस्त ॠषिगण चिन्तित हो गये। क्योंकि पाना नागलोक के सिवा कहीं उपलब्ध नहीं था। यज्ञ के आयोजन कर्त्तार्थों में "चौॠषि" नामक ॠषि के पुत्र पान को नागलोक से लाने को तैयार हुए। अपने संकल्प के अनुसार "चौॠषि" पुत्र अनेक विघ्न बाधाओं को पारकर नागलोक से पान पृथ्वी पर लाये और उस समय से अभी तक नागदेवता से पाये वरदान के आधार पर पृथ्वी पर पान की खेती हो रही है। पान की खेती भी "चौॠषि" के वंशज चौरसिया के सिवा अन्य कोई अन्यकोई नहीं के बराबर करते हैं।

पान की खेती करने के लिए भूमि  का चुनाव बड़ा सोच समझकर किया जाता है। पान की खेती ऊँची जमीन पर की जाती है। पान की खेती वैसी जमीन पर की जाती है जहाँ बरसात में भी पानी का तल एक फीट नीचे रहना चाहिए। इसके लिये दोमट मिट्टी सर्वश्रेष्ठ है। पान की खेती के लिये सिंचाई आवश्यक है। पुन: मिट्टी को मुलायम रखने के लिये भुर-भुरा बना देते हैं। उसके बाद बरैठा तैयार किया जाता है। बरैठा पान की खेती के लिये तैयार किया गये पूर्ण घेरे को कहा जाता है।

बरैठा के लिये आवश्यक समान तथा उसके व्यवहार की विधि - बाँस का फट्टा तीन सौ, कान्ह चौबालीस, बाती - एक सौ साठ, जिम्मर का साटा - पैंतालीस, राड़ी, खडछौनी हेतु - बारह बोझा पान का पेड़ बाँधने वाले साड़े चार हजार, लोहे की पतली तार दो किलो-ग्राम, धान की पुआल दो बोझा। मिट्टी की लोइट - दो, मिट्टी उठाने के लिये टोकरी-२, पान बाँधने का सवा दो किलोग्राम प्रतिकट्टा की दर से पहले से जुटा रखना पड़ता है।
जमीन में गाड़े फट्टे में साढ़े छ: इंच ऊँचाई पर कान्ह डालकर तार से एक-सूत्र में बाँध दिया जाता है। इन कान्हों पर एक फीट की दूरी पर बाँस की पतली बत्ती नारियल की रस्सी या गोढ बत्ती से बाँध देते हैं जिस पर राडी खर डालकर पतला ढ्ँक देते हैं। ऊपर से एक-दो बाती छोड़ते हुए खडही डालकर नाड् की जड़ भाग या केले के पत्ते के डंठल को चीर-चीर कर उससे बाँध डालते हैं।
बरैठा को चारों तरफ से ढट्टी लगाते समय खूटा के रुप में जिम्मर का साटा इस प्रकार गाड़ देते हैं कि कान्ह उस जिम्मर साटे में गोढ लत्ती या नारियल रस्सी से बाँधी जा सके।
पान लगाने की विधि
पान मुख्यत: तीन प्रकार से लगाया जाता है -
(१) छपट पान - १५ मार्च से ५ अप्रैल तक लगाये जाने वाले पान के छपटा पान कहा जाता है।
(२) बेल पान - १६ जून से १५ जुलाई तक लगाये जाने वाले पान के बेल पान कहा जाता है।
(३) एक पन्ना - १५ अगस्त से ५ सितम्बर तक लगाये जाने वाले पान को एक पन्ना कहा जाता है।

इस प्रकार पाना लगाने के समय को देखते हुए छपटा पान की रोपनी के समय दिन में पछिया हक के प्रभाव को देखते हुए ५ या ६ बार पानी की फुहार देनी पड़ती है। बेलपान में बरसात के समय को देखते हुए दो या तीन बार हल्का पानी का छींटा दिया जाता है। एक पन्ना में दिन में एक या दो बार हल्का छींटा देकर पराया जाता है।

सभी कि के पान रोपाई के चौथे महीने से तोड़े लायक हो जाते हैं। पान को बड़ी सावधानी से तोड़ा जाता है। पान गंदे हाथ से नहीं तोड़ा जाता है। किसी प्रकार की गंदगी का प्रवेश पान के बरैठा में वर्जित है। "पान की खेती में सबसे ज्यादा असर मौसम का होता है। तापमान 20 डिग्री के आसपास हो तो पान की खेती अच्छी होती है। अधिक तापमान होने पर पानी से सिंचाई कर पान को झुलसने से बचा लिया जाता है, मगर ठंड ज्यादा पड़ने पर पान के उत्पादन का प्रभावित होना तय है।"

पान की खेती के लिये प्राकृतिक प्रकोप जैसे आँधी, तूफान, मोला, सुखाड आदि लाइलाज है। पान की खेती करने वाले किसान को हर मौसम की आपदाओं का सामना करना पड़ता है। उसके अलावा भी विभिन्न रोगों के कारण पान का नुकसान होता है। पान में लगने वाले रोगों के नाम हैं - झेलमा, चनाक, गलका, लाल मकड़ी, पेड़ सूखना, दीमक का लगना इत्यादि। इन रोगों के निदान हेतु सल्फेक्स, डमा-इथेन, एम-४५ अनुकौपर, बोडो मिश्रण, रोगर इणजडोसल्फालन कीटनाशोको का व्यवहार समय-समय पर किया जाता है।

प्राकृतिक आपदाओं तथा 'पान' में लगने वाले रोगों से होने वाली क्षति से पान की खेती करने वाले किसान हतोत्साहित तो जरुर होते हैं। लेकिन पुन: अपनी हिम्मत जुटा कर यथासम्भव क्षतिपूर्ति करने में प्रयासरत रहते हैं। मगही पान अपनी विशेषताओं के कारण विश्व बाजार में अपना विशिष्ट स्थान प्राप्त किये हुए हैं। पान की खेती को सरकारी संरक्षण दिया जाए तो मगही पान विदेशी मुद्रा कमाने के लिए भारत का एक प्रमुख जरिया साबित हो सकता है।

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