12 जुलाई, 2011

आँसू--जयशंकर प्रसाद

आँसू


इस करुणा कलित हृदय में
अब विकल रागिनी बजती
क्यों हाहाकार स्वरों में
वेदना असीम गरजती?

मानस सागर के तट पर
क्यों लोल लहर की घातें
कल कल ध्वनि से हैं कहती
कुछ विस्मृत बीती बातें?

आती हैं शून्य क्षितिज से
क्यों लौट प्रतिध्वनि मेरी
टकराती बिलखाती-सी
पगली-सी देती फेरी?

क्यों व्यथित व्योम गंगा-सी
छिटका कर दोनों छोरें
चेतना तरंगिनी मेरी
लेती हैं मृदल हिलोरें?

बस गयी एक बस्ती हैं
स्मृतियों की इसी हृदय में
नक्षत्र लोक फैला है
जैसे इस नील निलय में।

ये सब स्फुलिंग हैं मेरी
इस ज्वालामयी जलन के
कुछ शेष चिह्न हैं केवल
मेरे उस महा मिलन के।

शीतल ज्वाला जलती हैं
ईधन होता दृग जल का
यह व्यर्थ साँस चल-चल कर
करती हैं काम अनिल का।

बाड़व ज्वाला सोती थी
इस प्रणय सिन्धु के तल में
प्यासी मछली-सी आँखें
थी विकल रूप के जल में।

बुलबुले सिन्धु के फूटे
नक्षत्र मालिका टूटी
नभ मुक्त कुन्तला धरणी
दिखलाई देती लूटी।

छिल-छिल कर छाले फोड़े
मल-मल कर मृदुल चरण से
धुल-धुल कर बह रह जाते
आँसू करुणा के कण से।

इस विकल वेदना को ले
किसने सुख को ललकारा
वह एक अबोध अकिंचन
बेसुध चैतन्य हमारा।

अभिलाषाओं की करवट
फिर सुप्त व्यथा का जगना
सुख का सपना हो जाना
भींगी पलकों का लगना।

इस हृदय कमल का घिरना
अलि अलकों की उलझन में
आँसू मरन्द का गिरना
मिलना निश्वास पवन में।

मादक थी मोहमयी थी
मन बहलाने की क्रीड़ा
अब हृदय हिला देती है
वह मधुर प्रेम की पीड़ा।

सुख आहत शान्त उमंगें
बेगार साँस ढोने में
यह हृदय समाधि बना हैं
रोती करुणा कोने में।

चातक की चकित पुकारें
श्यामा ध्वनि सरल रसीली
मेरी करुणार्द्र कथा की
टुकड़ी आँसू से गीली।

अवकाश भला हैं किसको,
सुनने को करुण कथाएँ
बेसुध जो अपने सुख से
जिनकी हैं सुप्त व्यथाएँ

जीवन की जटिल समस्या
हैं बढ़ी जटा-सी कैसी
उड़ती हैं धूल हृदय में
किसकी विभूति हैं ऐसी?

जो घनीभूत पीड़ा थी
मस्तक में स्मृति-सी छायी
दुर्दिन में आँसू बनकर
वह आज बरसने आयी।

मेरे क्रन्दन में बजती
क्या वीणा, जो सुनते हो
धागों से इन आँसू के
निज करुणापट बुनते हो।

रो-रोकर सिसक-सिसक कर
कहता मैं करुण कहानी
तुम सुमन नोचते सुनते
करते जानी अनजानी।

मैं बल खाता जाता था
मोहित बेसुध बलिहारी
अन्तर के तार खिंचे थे
तीखी थी तान हमारी

झंझा झकोर गर्जन था
बिजली थी सी नीरदमाला,
पाकर इस शून्य हृदय को
सबने आ डेरा डाला।

घिर जाती प्रलय घटाएँ
कुटिया पर आकर मेरी
तम चूर्ण बरस जाता था
छा जाती अधिक अँधेरी।

बिजली माला पहने फिर
मुसक्याता था आँगन में
हाँ, कौन बरस जाता था
रस बूँद हमारे मन में?

तुम सत्य रहे चिर सुन्दर!
मेरे इस मिथ्या जग के
थे केवल जीवन संगी
कल्याण कलित इस मग के।

कितनी निर्जन रजनी में
तारों के दीप जलाये
स्वर्गंगा की धारा में
उज्जवल उपहार चढायें।

गौरव था , नीचे आये
प्रियतम मिलने को मेरे
मै इठला उठा अकिंचन
देखे ज्यों स्वप्न सवेरे।

मधु राका मुसक्याती थी
पहले देखा जब तुमको
परिचित से जाने कब के
तुम लगे उसी क्षण हमको।

परिचय राका जलनिधि का
जैसे होता हिमकर से
ऊपर से किरणें आती
मिलती हैं गले लहर से।

मै अपलक इन नयनों से
निरखा करता उस छवि को
प्रतिभा डाली भर लाता
कर देता दान सुकवि को।

निर्झर-सा झिर झिर करता
माधवी कुंज छाया में
चेतना बही जाती थी
हो मन्त्र मुग्ध माया में।

पतझड़ था, झाड़ खड़े थे
सूखी-सी फूलवारी में
किसलय नव कुसुम बिछा कर
आये तुम इस क्यारी में।

शशि मुख पर घूँघट डाले
अंचल में चपल चमक-सी
आँखों मे काली पुतली
पुतली में श्याम झलक-सी।



 -- जयशंकर प्रसाद


08 जुलाई, 2011

गायत्री मंत्र

गायत्री मंत्र

ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेन्यं।
भर्गो देवस्य धीमहि, धीयो यो न: प्रचोदयात् ।।

भावार्थ:
उस प्राणस्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अन्तःकरण में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करे।

या देवी सर्वभूतेषु

 

 

 या देवी सर्वभूतेषु

या देवी सर्वभुतेषू विष्णु मायेती शब्दिता
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः

या देवी सर्वभुतेषु चेतनेत्यभिधियते
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः

या देवी सर्वभुतेषु बुद्धिरुपेण संस्थिता
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः

या देवी सर्वभुतेषु निद्रारुपेण संस्थिता
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः

या देवी सर्वभुतेषु क्षुधारुपेण संस्थिता
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः

SHLOKAS

शांताकारम भुजंगशयनम

शांताकारं भुजगशयनं पद्यनाभं सुरेशम् । विश्‍वाधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभांगम् ।
लक्ष्मीकांतं कमलनयनं योगिभिर्ज्ञानगम्यम् । वंदे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैक नाथम् ॥

या कुन्देंदु तुषारहार

या कुंदेंदु तुषार हार धवला या शुभ्र वस्त्रव्रिता |
या वीणा वरा दंडमंडित करा या श्वेत पद्मासना ||

या ब्रह्मच्युत शंकरा प्रभुतिभी देवी सदा वन्दिता |
सामा पातु सरस्वती भगवती निशेश्य जाड्या पहा ||

विश्वेश्वराय वरदाय

विश्वेश्वराय वरदाय

विश्वेश्वराय वरदाय सुरप्रियाय ,
लंबोदराय सकलाय जगध्दिताय।
नागाननाय श्रुतियग्यविभुसिताय,
गौरीसुताय गणनाथ नमो नमस्ते॥

06 जुलाई, 2011

गरब न कीजै बावरे / मलूकदास








गरब न कीजै बावरे / मलूकदास


गरब न कीजै बावरे, हरि गरब प्रहारी।
गरबहितें रावन गया, पाया दुख भारी॥१॥
जरन खुदी रघुनाथके, मन नाहिं सुहाती।
जाके जिय अभिमान है, ताकि तोरत छाती॥२॥
एक दया और दीनता, ले रहिये भाई।
चरन गहौ जाय साधके रीझै रघुराई॥३॥
यही बड़ा उपदेस है, पर द्रोह न करिये।
कह मलूक हरि सुमिरिके, भौसागर तरिये॥४॥

14 जून, 2011

पिता जी से सुनी एक कहानी.....



पिता जी से सुनी एक कहानी.

प्राचीन काल में एक ब्रह्मण देवता थे जो अपनी पत्नी से बहुत प्रेम करते थे.एक दिन वे गंगा स्नान के लिए जा रहे थे , रास्ते में एक  गिद्धिनी मिली  जो गर्भिणी थी .उसने ब्राह्मण से कहा कृपया मेरा एक उपकार कर दीजिये. गंगा किनारे गिद्धराज एकांत में बैठे होंगें जो मेरे पति हैं, उनसे कह दीजियेगा की आपकी पत्नी आदमी का मांस खाना चाहती है.
ब्राह्मण  ने देखा गंगा किनारे बहुत सरे गिद्ध बैठे हुए हैं उसमें एक गिद्ध ऐसा हो जो सबसे अलग है. उसी के पास जाकर उन्हों ने गिद्धिनी की बात कह दी. उसने कहा आदमी की एक लाश आ रही है लेकिन अभी बहुत दूर है. ब्राह्मण ने कहा यहाँ तो बहुत सी आदमी की लाशें पड़ीं हैं.गिद्ध ने कहा ऐसा नहीं है इसमे एक भी आदमी की लाश नहीं है.
ब्राह्मण की शंका दूर करने के लिए उसने एक पंख दिया और कहा इसे आँख पर लगाकर देखें तो स्पष्ट दिखाई देगा. ब्राह्मण ने जब ऐसा किया तो उसे सब पशु दिखाई पड़ने लगे. वह पंख लेकर ब्राह्मण अपने घर लौट आये और सबसे पहले अपनी पत्नी को देखा, वह कुतिया दिखाई पड़ी .आगे शहर में गया और वहां भी कोई आदमी दिखाई नहीं पड़ा.अंत में एक वेश्या के यहाँ गया जो मनुष्य दिखाई पड़ी. बहुत आश्चर्य हुवा. उसने शादी का प्रस्ताव रखा , वेश्या ने अपनी हीनता प्रकट की,ब्राह्मण अपनी बात पर अटल रहे और अंत में शादी कर लिए. इससे रुष्ट होकर ब्राह्मणी न्याय के लिए  राजा के पास गयी.  ब्राह्मण  को जब बुलाया गया वह पंख  लेकर गया और राजा से कहा आप यह पंख अपनी आँख पर रख कर देखिये , ब्राह्मणी कुतिया दिखाई दी. ब्राह्मण  आदमी दिखाई दिया.स्वयं को कुत्ते के रूप में देखा और रानी बिल्ली के रूपमें. राजा ने ब्राह्मणी से शादी कर लिया. रानी का कोई स्थान नहीं बचा वह वेश्यालय चली गयी.
कहानी का शारांश यह है की सभी जो आदमी के रूप में दिखाई पद रहें हैं , सब के सब आदमी नहीं हैं. उनका गुण देखकर उन्हें समझाने की कोशिश करनी चाहिए. ज्ञान ,श्रद्धा,सच्चाई और परोपकार ही मनुष्य के गुण हैं.

ओम या ॐ के 10 रहस्य और चमत्कार

ओम या ॐ के 10 रहस्य और चमत्कार 1.  अनहद  नाद :  इस ध्वनि को  अनाहत  कहते हैं। अनाहत अर्थात जो किसी आहत या टकराहट से पैदा नहीं होती...