12 जुलाई, 2025

रामेश्वर नाथ तिवारी

रामेश्वर नाथ तिवारी जी के व्यक्तित्व, जीवनदृष्टि और मूल्यों पर आधारित एक भावनात्मक कविता — एक श्रद्धा, सम्मान और आत्मीयता से रचित रचना:


---

🖋️ "तिवारी जी - जीवन के सारथी"

धूप में छाया, छांव में दीप,
संघर्षों में रहे सदा अडिग और गम्भीर।
जिनकी वाणी में संयम का स्वर,
जिनकी दृष्टि में कर्म का पथ प्रस्फुटित हर क्षण।

बचपन देवरिया की मिट्टी से जुड़ा,
कर्मभूमि बनी पुणे की धरती बड़ी।
जहाँ शिक्षा को उन्होंने दिया आकार,
हर संस्था बनी उनके श्रम का उपहार।

मीरा सी संगिनी साथ चली जब,
गृहस्थ जीवन बना तपोवन सब।
बेटे-बेटियों में भर दी दृष्टि और संस्कार,
जैसे वटवृक्ष की छाया हो परिवार।

न रहे मंचों के भूखे, न पद की चाह,
स्वाभिमान बना उनका असली ताजमहल वाह!
जिनके शब्दों में मधुर अनुशासन था,
जिनका मौन भी एक उपदेश बना।

हर रिश्ता निभाया स्नेह की भाषा में,
हर संवाद था सत्य की आशा में।
नयनों में गंगा सा निर्मल जल,
हृदय में बसता भारत का संबल।


---

🌺 "प्रणाम है उस पुरुषार्थ को"

जो बोले कम, पर कर गए गहरा प्रभाव,
जैसे एक दीपक, देता रहा सदा उजास।
रामेश्वर नाथ तिवारी — केवल एक नाम नहीं,
बल्कि जीवन जीने की शालीन परिभाषा हैं वही।






 रामेश्वर नाथ तिवारी जी के व्यक्तित्व, जीवनदृष्टि और मूल्यों पर आधारित एक भावनात्मक कविता — एक श्रद्धा, सम्मान और आत्मीयता से रचित रचना:


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🖋️ "तिवारी जी - जीवन के सारथी"

धूप में छाया, छांव में दीप,
संघर्षों में रहे सदा अडिग और गम्भीर।
जिनकी वाणी में संयम का स्वर,
जिनकी दृष्टि में कर्म का पथ प्रस्फुटित हर क्षण।

बचपन देवरिया की मिट्टी से जुड़ा,
कर्मभूमि बनी पुणे की धरती बड़ी।
जहाँ शिक्षा को उन्होंने दिया आकार,
हर संस्था बनी उनके श्रम का उपहार।

मीरा सी संगिनी साथ चली जब,
गृहस्थ जीवन बना तपोवन सब।
बेटे-बेटियों में भर दी दृष्टि और संस्कार,
जैसे वटवृक्ष की छाया हो परिवार।

न रहे मंचों के भूखे, न पद की चाह,
स्वाभिमान बना उनका असली ताजमहल वाह!
जिनके शब्दों में मधुर अनुशासन था,
जिनका मौन भी एक उपदेश बना।

हर रिश्ता निभाया स्नेह की भाषा में,
हर संवाद था सत्य की आशा में।
नयनों में गंगा सा निर्मल जल,
हृदय में बसता भारत का संबल।


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🌺 "प्रणाम है उस पुरुषार्थ को"

जो बोले कम, पर कर गए गहरा प्रभाव,
जैसे एक दीपक, देता रहा सदा उजास।
रामेश्वर नाथ तिवारी — केवल एक नाम नहीं,
बल्कि जीवन जीने की शालीन परिभाषा हैं वही।







06 जुलाई, 2025

कर्म और भाग्य

बहुत पुराने समय की बात है। एक जंगल में एक महात्मा निवास करते थे। जंगल के दोनों ओर दो अलग-अलग राज्य थे। दोनों के ही राजा महात्मा के पास आया करते थे। जंगल के बीच में से एक नदी बहती थी। जिसे लेकर दोनों राज्यों में तनातनी रहती थी। आखिर बात बिगड़ते-बिगड़ते युद्ध तक पहुंच गयी। दोनों तरफ तैयारियां जोर-शोर से चल पड़ीं। दोनों ही राजाओं ने महात्मा से आशीर्वाद लेने के लिये सोचा।
पहला राजा महात्मा के पास पहुंचा और सारी बात बताकर आशीर्वाद मांगा। महात्मा ने थोड़ा सोच कर कहा, ‘भाग्य में तो जीत नहीं दिखती, आगे हरि इच्छा।’ यह सुनकर राजा थोड़ा विचलित तो हुआ लेकिन फिर सोचा कि यदि ऐसा है तो खून की आखिरी बूंद भी बहा देंगे लेकिन जीते-जी तो हार नहीं मानेंगे। अब उसने वापस लौटकर ​सिर पर कफन बांधकर युद्ध की तैयारी करनी शुरू कर दी। उधर दूसरा राजा भी महात्मा के पास आशीर्वाद लेने के लिये पहुंचा। महात्मा ने हंसते हुये कहा, ‘भाग्य तो तुम्हारे पक्ष में ही लगता है।’ यह सुनकर वह खुशी से भर उठा। वापस लौटकर सभी से कहने लगा, ‘चिन्ता मत करो, जीत हमारे भाग्य में लिखी है।’
युद्ध का समय आ पहुंचा। दूसरा राजा जीत का सपना लिये अभी निकला ही था कि उसके घोड़े के एक पैर की नाल निकल गयी। घोड़ा थोड़ा लंगड़ाया तो मंत्री ने कहा, ‘महाराज! अभी तो समय है, नाल लगवा लेते हैं या फिर घोड़ा बदल लेते हैं।’ लेकिन राजा बेपरवाही के साथ बोला, ‘अरे! जब जीत अपने भाग्य में लिखी है तो फिर ऐसी छोटी सी बात की चिन्ता क्यों करते हो।’
युद्ध शुरू हुआ। दोनों ओर की सेनाएं मरने-मारने के लिये एक दूसरे से भिड़ गईं। जल्दी ही दोनों राजा भी आमने-सामने आ गये। घनघोर युद्ध छिड़ गया। अचानक पैंतरा बदलते हुये वह एक नाल निकला हुआ घोड़ा लड़खड़ा कर गिर पड़ा। राजा दुश्मन के हाथ पड़ गया। पासा ही पलट गया। भाग्य ने धोखा दे दिया।
पहला राजा जीत का जश्न मनाता हुआ फिर से महात्मा के पास पहुंचा और सारा हाल बताया। दोनों ही राजाओं के मन में जिज्ञासा थी कि भाग्य का लिखा कैसे बदल गया। महात्मा ने दोनों को शान्त करते हुए कहा, ‘अरे भई! भाग्य बदला थोड़े ही है। भाग्य तो अपनी जगह बिल्कुल सही है लेकिन तुम लोग जरूर बदल गये हो।’ जीतने वाले राजा की ओर देखते हुए महात्मा आगे कहने लगे, ‘अब देखो न, अपनी संभावित हार के बारे में सुनकर तुमने दिन-रात एक करके, सारी सुख-सुविधाएं छोड़कर, खाना-पीना-सोना तक भूलकर जबर्दस्त तैयारी की और खुद प्रत्येक बात का पूरा-पूरा ध्‍यान रखा। जबकि पहले वही तुम थे कि सेनापति के बल पर ही युद्ध जीतना चाह रहे थे।’
‘और तुम’ महात्मा बन्दी राजा से बोले ‘अभी युद्ध शुरू भी नहीं हुआ कि जीत का जश्न मनाने लगे। एक घोड़े का तो समय पर यान नहीं रख पाये तो भला युद्ध में इतनी बड़ी सेना को कैसे सही से संभाल पाते और वही हुआ जो होना था। भाग्य नहीं बदला लेकिन जिन व्यक्तियों के लिये वह भाग्य लिखा हुआ था उन्होंने अपना व्यक्तित्व ही बदल डाला तो बेचारा भाग्य भी क्या करता।’
यह कहानी भले ही सुनने में काल्पनिक लगे लेकिन आज यह प्राय: घर-घर में दुहारायी जा रही है। समस्या केवल इतनी ही है कि नकल सभी दूसरे राजा की करते हैं और अन्तत: हारते हैं। अरे, जरा सोच कर तो देखो कि भाग्य आखिर कहते किसे हैंॽ
पूर्व जन्मों में या पूर्व समय में हमने जो भी कर्म किये, उन्हीं सब का फल मिलकर तो भाग्य रूप में हमारे सामने आता है। भाग्य हमारे पूर्व कर्म संस्कारों का ही तो नाम है और इनके बारे में एकमात्र सच्चाई यही है कि वह बीत चुके हैं। अब उन्हें बदला नहीं जा सकता। लेकिन अपने वर्तमान कर्म तो हम चुन ही सकते हैं। यह समझना कोई मुश्किल नहीं कि भूत पर वर्तमान हमेशा ही भारी रहेगा क्योंकि भूत तो जैसे का तैसा रहेगा लेकिन वर्तमान को हम अपनी इच्छा और अपनी हिम्मत से अपने अनुसार ढाल सकते हैं।
हमारे पूर्व कर्म संस्कार जिन्हें हम भाग्य भी कह लेते हैं, मात्र परि​स्थितियों का निर्माण करते हैं। जैसे हमारे जन्म का देश-काल, घर-व्यापार, शरीर-स्वास्थ्य आदि हमारी इच्छा से नहीं मिलता लेकिन उन परिस्थितियों का हम कैसे मुकाबला करते हैं, वही हमारी नियति को निर्धारित करता है। कालिदास, बोपदेव, नेपोलियन आदि कितने ही नाम गिनाये जा सकते हैं जिन्होंने अपना भाग्य, भाग्य के सहारे छोड़कर धोखा नहीं खाया, वरन् कर्म के प्रबल वेग से सुनहरे अक्षरों में लिखवाया।
वस्तुत: भाग्य तो हम सभी का एक ही है, जिसे कोई बदल नहीं सकता और वह भाग्य है कि हम सभी ने परम पद की, पूर्णता की प्राप्ति करनी है। जो कर्मयोगी हैं, पूरी दृढ़ता, हिम्मत और उत्साह से हंसते-खेलते सहज ही वहां पहुंचने का यत्न करेंगे। दूसरी ओर जो आलसी और तमोगुणी हैं, वह बचने या टालने की कोशिश करेंगे। लेकिन कब तकॽ आखिर चलना तो उन्हें भी पड़ेगा क्योंकि सचमुच भाग्य को कोई नहीं बदल सकता। हम सभी ने संघर्ष के द्वारा अपनी चेतना का विकास करना ही है, चाहे या अनचाहे। परमात्मा ने मनुष्य को इसीलिये तो सोचने-समझने की शक्ति दी है ताकि वह अपने पूर्व अनुभवों के आधार पर सही रास्ते का चुनाव कर सके और माया के चक्कर से निकल कर पूरी समझ के साथ पूर्णता के पथ पर आगे बढ़े। सुख तो स्वयं प्राप्ति में ही है, उधार या दान के द्वारा भोजन-धन आदि तो मिल सकता है लेकिन सुख और संतोष नहीं।। 

29 जून, 2025

यादें .....

अपनी यादें अपनी बातें लेकर जाना भूल गए 

जाने वाले जल्दी में मिलकर जाना भूल गए 
मुड़ मुड़ कर पीछे देखा था जाते जाते कई उसने 
जैसे उसे कुछ कहना था जो वो कहना भूल गया





सजा बन जाती है गुज़रे हुए वक़्त की यादें 

न जाने क्यों छोड़ जाने के लिए मेहरबान होते हैं लोग




यादों का इक झोंका आया हम से मिलने बरसों बाद 

पहले इतना रोये न थे जितना रोये बरसों बाद 
लम्हा लम्हा उजड़ा तो ही हम को एहसास हुआ 
पत्थर आये बरसों पहले शीशे टूटे बरसों बाद



ऐ दिल किसी की याद में होता है बेकरार क्यों 

जिस ने भुला दिया तुझे , उस का है इंतज़ार क्यों 
वो न मिलेगा अब तुझे , जिस की तुझे तलाश है 
राहों में आज बे-कफ़न तेरी बेवफ़ाई की लाश है



फासलों ने दिल की क़ुर्बत को बढ़ा दिया 

आज उस की याद ने बे हिसाब रुला दिया 
उस को शिकायत है के मुझे उस की याद नहीं 
हम ने जिस की याद में खुद को भुला दिया

दिल को तेरा सुकूँ दे वो ग़ज़ल कहाँ से लाऊँ 

भूल के ग़ज़ल अपनी तेरी ग़ज़ल कैसे सजाऊँ 
दिल में उतार जाएं वो लफ़ज़ कहाँ से लाऊँ 
भूल के कुछ यादें तेरी, याद कैसे दिल में बसाऊँ

15 जून, 2024

बाबा मुन्जेश्वरनाथ,'भौवापार जिला गोरखपुर







बाबा मुन्जेश्वरनाथ,

बाबा मुन्जेश्वरनाथ की नगरी और कभी सतासी राजवंश की राजधानी रही . 'भौवापार जिला गोरखपुर . बताया जाता है कि बाबा मुन्जेश्वरनाथ ने अपने ऊपर आज तक किसी भी प्रकार की छत को नहीं पड़ने दिया। वे पीपल और बरगद के पेड़ की छाया में विराजमान हैं। वैसे तो यहां हजारों की संख्या में श्रद्धालु दूर-दराज से आते हैं, लेकिन महाशिवरात्रि के दिन यहां काफी भीड़ होती है।
सतासी राजवंश, राजभर राजवंश, स्‍वतंत्रता के पहले और बाद दिए गए भौवापार के लोगों के योगदान
अविस्मरणीय हैं .

पूरी होती है बाबा के धाम में भक्तों की मुराद
मंदिर के पुजारी चंद्रभान गिरी के अनुसार भौवापार के बाबा मुन्जेश्वरनाथ भक्तों द्वारा सच्‍चे मन से मांगी गई हर मुराद को पूरा करते हैं। उन्‍होंने बताया, ''सतासी नरेश राजा मुंज सिंह सहित क्षेत्र के कई अन्य लोगों ने शिवलिंग (गर्भगृह) स्थल पर बाबा को छत के रूप में मंदिर का स्वरुप देने की कई बार कोशिश की। लेकिन बाबा के सिर पर कोई छत टिक नहीं सकी। जब-जब मंदिर बनाया जाता, तब-तब पूरा ढांचा ध्वस्त हो जाता है।''




इस कारण नाम पड़ा मुन्जेश्वरनाथ
भौवापार के ही रहने वाले युवा इतिहासविद डॉ. दानपाल सिंह ने बताया, ''किवदंतियों के अनुसार एक बार मजदूर गर्भ गृह स्थल पर मौजूद मूज (सरपत) को कुदाल से हटा रहे थे। इस बीच एक मजदूर का फावड़ा मूज की जड़ के नीचे पड़े एक पत्थर से टकराया और पत्थर का ऊपरी हिस्सा फावड़े की वार से टूट गया। मजदूर शिवलिंग के आकार के इस पत्थर को वहां से हटाना चाह रहा था, तभी पत्थर में मजदूर को भगवान शिव की छवि दिखाई दी और टूटे स्थल से दूध की धारा बहने लगी। यह देखकर मजदूर काफी डर गया और राजदरबार पहुंचा। उसने सतासी राजा मुंज सिंह को सारी कहानी बताई। मूज से स्वयंभू रूप में निकले और राजा मुंज द्वारा स्थापित किए जाने के कारण ही बाबा का नाम मुन्जेश्वरनाथ धाम पड़ा।

Elephanta Caves..

एलीफेंटा की गुफाएँ (Elephanta Caves): समुद्र की लहरों के बीच बसी एक चट्टान... और उस पर छिपा एक अद्भुत संसार — एलीफेंटा। मुंबई से थोड़ी दूरी ...