25 अगस्त, 2012

कुन्जिका स्तोत्रं

शिवजी बोले – देवी ! सुनो। मैं उत्तम कुंजिकास्तोत्रका उपदेश करुँगा , जिस मन्त्र के प्रभाव से देवीका जप ( पाठ ) सफ़ल होता है ||१||
कवच , अर्गला , कीलक ,रहस्य,सूक्त,ध्यान,न्यास यहाँ तक कि अर्चन भी (आवश्यक ) नहीं हैं ||२||
केवल कुंजिकाके पाठसे दुर्गा-पाठका फल प्राप्त हो जाता है । ( यह कुंजिका) अत्यन्त गुप्त और देवों के लिए भी दुर्लभ है ||३||
हे पार्वती! इसे स्वयोनिकी भाँती प्रयत्नपुर्वक गुप्त रखना चाहिये । यह उत्तम कुंजिकास्तोत्र केवल पाठके द्वारा मारण , मोहन, वशीकरण,स्तंभन और उच्चाटन आदि (आभिचारिक) उद्देश्योंको सिद्ध कर्ता है ||४||
कुन्जिका स्तोत्रं

शिव उवाच
शृणु देवि प्रवक्ष्यामि कुंजिकास्तोत्रमुत्तमम्‌।
येन मन्त्रप्रभावेण चण्डीजापः भवेत्‌॥1॥
न कवचं नार्गलास्तोत्रं कीलकं न रहस्यकम्‌।
न सूक्तं नापि ध्यानं च न न्यासो न च वार्चनम्‌॥2॥
कुंजिकापाठमात्रेण दुर्गापाठफलं लभेत्‌।
अति गुह्यतरं देवि देवानामपि दुर्लभम्‌॥ 3॥
गोपनीयं प्रयत्नेन स्वयोनिरिव पार्वति।
मारणं मोहनं वश्यं स्तम्भनोच्चाटनादिकम्‌।
पाठमात्रेण संसिद्ध्‌येत् कुंजिकास्तोत्रमुत्तमम्‌ ॥4॥
अथ मंत्र
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे। ॐ ग्लौ हुं क्लीं जूं सः
ज्वालय ज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल
ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ज्वल हं सं लं क्षं फट् स्वाह
॥ इति मंत्रः॥
नमस्ते रुद्ररूपिण्यै नमस्ते मधुमर्दिनि।
नमः कैटभहारिण्यै नमस्ते महिषार्दिन ॥1॥
नमस्ते शुम्भहन्त्र्यै च निशुम्भासुरघातिन ॥2॥
जाग्रतं हि महादेवि जपं सिद्धं कुरुष्व मे।
ऐंकारी सृष्टिरूपायै ह्रींकारी प्रतिपालिका॥3॥
क्लींकारी कामरूपिण्यै बीजरूपे नमोऽस्तु ते।
चामुण्डा चण्डघाती च यैकारी वरदायिनी॥ 4॥
विच्चे चाभयदा नित्यं नमस्ते मंत्ररूपिण ॥5॥
धां धीं धू धूर्जटेः पत्नी वां वीं वूं वागधीश्वरी।
क्रां क्रीं क्रूं कालिका देविशां शीं शूं मे शुभं कुरु॥6॥
हुं हु हुंकाररूपिण्यै जं जं जं जम्भनादिनी।
भ्रां भ्रीं भ्रूं भैरवी भद्रे भवान्यै ते नमो नमः॥7॥
अं कं चं टं तं पं यं शं वीं दुं ऐं वीं हं क्षं
धिजाग्रं धिजाग्रं त्रोटय त्रोटय दीप्तं कुरु कुरु स्वाहा॥
पां पीं पूं पार्वती पूर्णा खां खीं खूं खेचरी तथा॥ 8॥
सां सीं सूं सप्तशती देव्या मंत्रसिद्धिंकुरुष्व मे॥
इदंतु कुंजिकास्तोत्रं मंत्रजागर्तिहेतवे।
अभक्ते नैव दातव्यं गोपितं रक्ष पार्वति॥
यस्तु कुंजिकया देविहीनां सप्तशतीं पठेत्‌।
न तस्य जायते सिद्धिररण्ये रोदनं यथा॥
। इतिश्रीरुद्रयामले गौरीतंत्रे शिवपार्वती
संवादे कुंजिकास्तोत्रं संपूर्णम्‌ ।

16 अगस्त, 2012

योगी अरविन्द घोष




 योगी अरविन्द घोष
अरविन्द का जन्म 15 अगस्त 1872 को बंगाल की धरती पर हुआ था। कहते हैं 15 अगस्त के दिन जन्म लेने के कारण उनका स्वतंत्रता दिवस के साथ गहरा नाता था। महर्षि अरविन्द के पिता के डी घोष अंग्रेजी सभ्यता के पोषक तथा अंग्रेजों के प्रशंसक थे। अक्सर यह कहा जाता है कि जैसे मां बाप होते हैं वैसी ही संतान भी होती है परंतु यहां यह बात तो बिल्कुल विपरीत हो गई थी। पिता अंग्रेजों के प
्रशंसक और उनके चारों बेटे अंग्रेजों के लिए यमराज की भांति बन गए थे।

आज का युग वैज्ञानिक युग है और इस युग में योग द्वारा साधना करके अमूल्य सिद्धियां प्राप्त करना अचरज की बात है। अरविन्द घोष जिन्हें लोग महर्षि के रूप में ही जानते थे उन्होंने योग के द्वारा सिद्धियां प्राप्त करके लोगों को बता दिया था कि ऐसी शक्तियां आज भी विद्यमान हैं जो इस जगत की बागडोर को अपने हाथों में रखे हुए हैं। इंसान तो इनकी कृपा का पात्र बन सकता है।

अरविन्द तो योगी नहीं थे। इस योग साधना के पहले वे कुछ और ही थे। जी हां, वे बंगाल के महान क्रांतिकारियों में गिने जाते थे। बंगाल के क्रांतिकारियों को उनकी ही प्रेरणा थी। उन्हीं के आह्वान पर हजारों बंगाली युवकों ने देश की स्वतंत्रता के लिए हंसते हंसते फांसी के फंदों को चूम लिया था। अपने जीवन में उन्होंने किसी अंग्रेज की हत्या तो क्या इसके विषय में सोचा मात्र नहीं था, न ही कभी हथियार का प्रयोग उन्होंने अपने हाथों से किया परंतु यह कटु सत्य है कि सशस्त्र क्रांति के पीछे उनकी ही प्रेरणा थी।

वैसे तो अरविन्द ने अपनी शिक्षा खुलना में पूर्ण की थी लेकिन उच्च शिक्षा प्राप्ति के लिए वे इंग्लैंड चले गए और कई वर्ष वहां रहने के पश्चात कैंब्रिज विश्वविद्यालय से प्राचीन दर्शनशास्त्र की पढ़ाई की। वे आई सी एस अधिकारी बनना चाहते थे जिसके लिए उन्होंने भरपूर कोशिश की पर वे अनुत्तीर्ण हो गए।

एक बार उन्होंने अपने ज्ञान तथा विचारों से गायकवाड़ नरेश को भी मोह लिया। गायकवाड़ नरेश उनसे इतने प्रभावित हुए कि बड़ौदा में उन्होंने अरविंद को अपनी निजी सविच के पद पर नियुक्त कर लिया।

सन् 1906 में जब बंग भंग का आंदोलन चल रहा था तो अरविंद ने बड़ौदा से कलकत्ता की ओर प्रस्थान कर दिया। जनता को जागृत करने के लिए अरविंद ने उत्तेजक भाषण दिए। उन्होंने अपने भाषणों तथा बंदे मांतरम में प्रकाशित लेखों के द्वारा अंग्रेज सरकार की दमन नीति की कड़ी निंदा की थी जिसके फलस्वरूप अंग्रेज सरकार ने उन पर राजद्रोह का मुकद्मा चला कर जेल की सजा सुना दी।

सजा सुन कर अरविंद घबराए नहीं बल्कि उन्होंने कहा था चाहे सरकार क्रांतिकारियों को जेल में बंद करे, फांसी दे या यातनाएं दे पर हम यह सब सहन करेंगे लेकिन यह स्वतंत्रता का आंदोलन कभी रूकेगा नहीं। एक दिन अवश्य आएगा जब अंग्रेजों को हिन्दुस्तान छोड़ कर जाना होगा।

सजा के लिए उन्हें अलीपुर जेल में रखा गया। जेल में अरविन्द का जीवन ही बदल गया। वे जेल की कोठी में ज्यादा से ज्यादा समय साधना और तप में लगाने लगे। वे गीता पढ़ा करते और भगवान श्री कृष्ण की आराधना किया करते। ऐसा करने से उनके जीवन के प्रति विचार ही बदल गए।

जेल से बाहर आकर वे किसी भी आंदोलन में भाग लेने के इच्छुक नहीं थे पर अंग्रेजों के जासूस हर दम उनके पीछे लगे रहते क्योंकि अंग्रेजी सरकार उन्हें अपने लिए मुसीबत का पहाड़ समझती थी। फिर इसके पश्चात अरविन्द गुप्त रूप से पांडिचेरी चले गए क्योंकि वहां फ्रांसीसियों का अधिकार था। अंग्रेज सरकार महर्षि अरविंद को गिरफ्तार न कर सकी।

अरविन्द जी के पांडिचेरी चले जाने की बात मालूम होने पर अंग्रेज सरकार ने एड़ी चोटी का जोर लगाया पर उन्हें बंदी न बना सकी। वहीं पर रहते हुए अरविन्द ने योग द्वारा सिद्धि प्राप्त की और आज के वैज्ञानिकों को बता दिया कि इस जगत को चलाने के लिए एक अन्य जगत और भी है।

5 दिसम्बर 1950 को महर्षि अरविंद निर्वाण प्राप्त कर गए। जब भी क्रांतिकारी आंदोलन का इतिहास लिखा जाएगा तो अरविंद जी के त्याग, साहस तथा यौगिक साधना की चर्चा बड़े गर्व के साथ की जायेगी।

महर्षि अरविंद देशभक्ति एवं राष्ट्रवाद के देवदूत, मानवता के प्रेमी, ज्ञानी, क्रन्तिकारी और महायोगी के रूप में प्रसिद्ध रहे हैं। वे संस्कृत, बंगला आदि स्वदेशी तथा ग्रीक, इतालवी, फ्रेंच, अंग्रेजी आदि भाषाओं के ज्ञाता थे। उन्होंने पूर्व और पश्चिम की आध्यात्मिक विचारधाराओ का यौगिक स्तर से समन्वय किया।
आश्रम में श्री अरविन्द अपने चिंतन और मनन को गंभीरतापूर्वक लिपिबद्ध किया। उनके कृतित्व को चार भागो में बांटा जा सकता है-१.योग एवं आध्यात्म; 2. समाज ,संस्कृति एवं राजनीती ; ३. कविता ,नाटक आदि ; ४.चिट्ठी -पत्री। श्री अरविन्द की रचनाओ का संग्रह 'अरविन्द रचनावली 'के नाम से सन १९७२ में उनके जन्मशती पर तीस खंडो में प्रकाशित हुआ था। बाद में शोधकरतो ने कुछ अन्य रचनाए भी खोज निकाली और उनके १२५ वी जयंती पर सन१९९७ में उनके रचनावली पैतीस खंडो में प्रकाशित हुयी।


यादें .....

अपनी यादें अपनी बातें लेकर जाना भूल गए  जाने वाले जल्दी में मिलकर जाना भूल गए  मुड़ मुड़ कर पीछे देखा था जाते ...