02 मई, 2012

भगवान परशुराम



अगर भगवान राम विष्णु अवतार थे तो भगवान परशुराम भी विष्णु के अवतार थे. अवतार तो अवतार होता है. उसमें बड़ा छोटा कुछ नहीं होता. लेकिन कालक्रम के लिहाज से परशुराम राम से बड़े हो जाते हैं. परशुराम को सिर्फ ब्राह्मणों का इष्ट, आराध्य या देव बताकर समाज के कुछ स्वार्थी तत्वों ने उनकी गरिमा को कम करने की कोशिश जरूर की है लेकिन अब वक्त आ गया है जब हम परशुराम के पराक्रम को सही अर्थों में जानें और इस महान वीर और अजेय योद्धा को वह सम्मान दें जिसके वे अधिकारी हैं. आम तौर पर परशुराम को एक क्रोधी और क्षत्रिय संहारक ब्राह्मण के रूप में जाना जाता है लेकिन ऐसा है नहीं. परशुराम ने कभी क्षत्रियों को संहार नहीं किया. उन्होंने क्षत्रिय वंश में उग आई उस खर पतवार को साफ किया जिससे क्षत्रिय वंश की साख खत्म होती जा रही थी. लेकिन दुर्भाग्य देखिए कि हम भगवान परशुराम को क्षत्रिय संहारक के रूप में चिन्हित करते हैं. अगर वे क्षत्रिय संहारक होते तो भला एक क्षत्रियकुल वंशी के हाथ में अपना फरसा क्यों सौंप देते? जिस दिन भगवान परशुराम को योग्य क्षत्रियकुलभूषण प्राप्त हो गया उन्होंने स्वत: अपना समस्त राम के हाथ में सौंप दिया. भगवान परशुराम के जीवन का यह भाग पुराणेतिहास में बाकायदा लिखा हुआ है लेकिन बाद की दुनिया में उन्हें एक वर्ग के ही महापुरुष के रूप में पेश करने की कोशिश की जाती रही है. विष्णु के अवतार तो वे हैं ही, परशुराम हमारे इतिहास के एक ऐसे महापुरुष हैं जिनकी याद हमेशा न्याय के पक्षधर के रूप में की जानी चाहिए. राम चरित मानस में शंकरजी के धनुष के टूटने के बाद भगवान परशुराम के जिस गुस्से का वर्णन है, उसका तो खूब प्रचार किया जाता है लेकिन विष्णु के अवतार, राम के साथ भगवान परशुराम के अन्य संबंधों का कहीं उल्लेख नहीं किया जाता. राम कथा में बताया गया है कि भगवान रामचन्द्र ने जब शिव का धनुष तोड़ दिया तो परशुराम बहुत ही नाराज़ हुए लेकिन जब उन्हें पता चला कि रामचन्द्र विष्णु के अवतार हैं तो उन्होंने राम की वंदना भी की. तुलसीदास ने बताया है कि उन्होंने जय जय रघुकुल केतू कहा और तपस्या के लिए वन गमन किया . भगवान परशुराम की याद एक ऐसे महान वीर और तपस्वी के रूप में की जानी चाहिए जो कभी भी गलत काम को बर्दाश्त नहीं कर सकता था. उनकी न्यायप्रियता किसी प्रमाण की मोहताज नहीं है. जहां कहीं भी अन्याय होता था, भगवान परशुराम उसके खिलाफ हर तरह से संघर्ष करते थे और खुद ही दंड देते थे. हैहय के नरेश सहस्त्रबाहु अर्जुन की सेना के नाश और उसके वध को इसी न्यायप्रियता के सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए. आज जब चारों तरफ हमारी प्राचीन मनीषा और परम्पराओं के नाम पर हर तरह की हेराफेरी हो रही है, मीडिया का इस्तेमाल करके बाबा पैदा हो रहे हैं, ऐसी हालत में ज़रूरी है कि भगवान परशुराम के चरित्र का चारों तरफ प्रचार हो और नई पीढियां जान सकें कि हमारा इतिहास कितना गौरवशाली रहा है और अपने समय का सबसे वीर योद्धा जो सत्रह अक्षौहिणी सेना को बात बात में हरा सकता था, अपने पिता की आकाशवाणी में हुई आज्ञा को मानकर तप करने चला जाता है. बताते हैं कि यह तपस्या उन्होंने उस जगह पर की थी जहां से ब्रह्मपुत्र नदी भारत में प्रवेश करती है. वहां परशुराम कुंड बना हुआ है. यहीं तपस्या करके उन्होंने शिवजी से फरसा प्राप्त किया था. बाद में इसी जगह पर उसे विसर्जित भी किया.

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