छठ पूजा
छठ पर्व या छठ कार्तिक शुक्ल की षष्ठी को मनाया जाने वाला एक हिन्दू पर्व है। सूर्योपासना का यह अनुपम लोकपर्व मुख्य रूप से पूर्वी भारत के बिहार, झारखण्ड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्रों में मनाया जाता है। प्रायः हिंदुओं द्वारा मनाए जाने वाले इस पर्व को इस्लाम सहित अन्य धर्मावलंवी भी मनाते देखे गए हैं।
पुराणों से : :
एक कथा के अनुसार राजा प्रियवद को कोई संतान नहीं थी, तब महर्षि कश्यप ने पुत्रेष्टि यज्ञ कराकर उनकी पत्नी मालिनी को यज्ञाहुति के लिए बनाई गई खीर दी।
इसके प्रभाव से उन्हें पुत्र हुआ परंतु
वह मृत पैदा हुआ। प्रियवद पुत्र को लेकर श्मशान गए और पुत्र वियोग में
प्राण त्यागने लगे। उसी वक्त भगवान की मानस कन्या देवसेना प्रकट हुई और कहा
कि सृष्टि की मूल प्रवृत्ति के छठे अंश से उत्पन्न होने के कारण मैं षष्ठी
कहलाती हूं। राजन तुम मेरा पूजन करो तथा और लोगों को भी प्रेरित करो। राजा
ने पुत्र इच्छा से देवी षष्ठी का व्रत किया और उन्हें पुत्र रत्न की
प्राप्ति हुई। यह पूजा कार्तिक शुक्ल षष्ठी को हुई थी।
सामाजिक/सांस्कृतिक महत्व : :
छठ पूजा का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष इसकी सादगी पवित्रता और लोकपक्ष है। भक्ति और आध्यात्म से परिपूर्ण इस पर्व के लिए न विशाल पंडालों और भव्य मंदिरों की जरूरत होती है न ऐश्वर्य युक्त मूर्तियों की। बिजली के लट्टुओं की चकाचौंध, पटाखों के धमाके और लाउडस्पीकर के शोर से दूर यह पर्व बाँस निर्मित सूप, टोकरि, मिट्टी के बरतनों, गन्ने के रस, गुड़, चावल और गेहूँ से निर्मित प्रसाद, और सुमधुर लोकगीतों से युक्त होकर लोक जीवन की भरपूर मिठास का प्रसार करता है।
शास्त्रों से अलग यह जन सामान्य द्वारा अपने रीति-रिवाजों के रंगों में गढ़ी गई उपासना पद्धति है। इसके केंद्र में वेद, पुराण जैसे धर्मग्रंथ न होकर किसान और ग्रामीण जीवन है। इस व्रत के लिए न विशेष धन की आवश्यकता है न पुरोहित या गुरु के अभ्यर्थअना की। जरूरत पड़ती है तो पास-पड़ोस के साथकी जो अपनी सेवा के लिए सहर्ष और कृतज्ञतापूर्वक प्रस्तुत रहता है। इस उत्सव के लिए जनता स्वयं अपने सामूहिक अभियान संगठित करती है। नगरों की सफाइ, व्रतियों के गुजरने वाले रास्तों का प्रबंधन, तालाव या नदी किनारे अर्घ्य दान की उपयुक्त व्यवस्था के लिए समाज सरकार के सहायता की राह नहीं देखता। इस उत्सव में खरना के उत्सव से लेकर अर्ध्यदान तक समाज की अनिवार्य उपस्थिति बनी रहती है। यह सामान्य और गरीब जनता के अपने दैनिक जीवन की मुश्किलों को भुलाकर सेवा भाव और भक्ति भाव से किए गए सामूहिक कर्म का विराट और भव्य प्रदर्शन है।
छठ पूजा
छठ पूजा को डाला छठ के नाम से भी जाना जाता है। इस पूजा में भगवान भास्कर (सूर्य) की अराधना एंव उपासना का विषेश महत्व है। यह एक मात्र व्रत है जिसमें सूर्य भगवान के
उदय एंव अस्त होने पे अराधना की जाती है। छठ पूजा कार्तिक शुक्ल पक्ष की षष्ठी अर्थात दिपावली के ठीक छः दिन बाद मनाया जाता है। कार्तिक अंग्रेजी महीने के हिसाब से अक्टूबर से नवम्बर के बीच में पड़ता है।
खास तौर से छठ पूजा का प्रचलन ब
सामाजिक/सांस्कृतिक महत्व : :
छठ पूजा का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष इसकी सादगी पवित्रता और लोकपक्ष है। भक्ति और आध्यात्म से परिपूर्ण इस पर्व के लिए न विशाल पंडालों और भव्य मंदिरों की जरूरत होती है न ऐश्वर्य युक्त मूर्तियों की। बिजली के लट्टुओं की चकाचौंध, पटाखों के धमाके और लाउडस्पीकर के शोर से दूर यह पर्व बाँस निर्मित सूप, टोकरि, मिट्टी के बरतनों, गन्ने के रस, गुड़, चावल और गेहूँ से निर्मित प्रसाद, और सुमधुर लोकगीतों से युक्त होकर लोक जीवन की भरपूर मिठास का प्रसार करता है।
शास्त्रों से अलग यह जन सामान्य द्वारा अपने रीति-रिवाजों के रंगों में गढ़ी गई उपासना पद्धति है। इसके केंद्र में वेद, पुराण जैसे धर्मग्रंथ न होकर किसान और ग्रामीण जीवन है। इस व्रत के लिए न विशेष धन की आवश्यकता है न पुरोहित या गुरु के अभ्यर्थअना की। जरूरत पड़ती है तो पास-पड़ोस के साथकी जो अपनी सेवा के लिए सहर्ष और कृतज्ञतापूर्वक प्रस्तुत रहता है। इस उत्सव के लिए जनता स्वयं अपने सामूहिक अभियान संगठित करती है। नगरों की सफाइ, व्रतियों के गुजरने वाले रास्तों का प्रबंधन, तालाव या नदी किनारे अर्घ्य दान की उपयुक्त व्यवस्था के लिए समाज सरकार के सहायता की राह नहीं देखता। इस उत्सव में खरना के उत्सव से लेकर अर्ध्यदान तक समाज की अनिवार्य उपस्थिति बनी रहती है। यह सामान्य और गरीब जनता के अपने दैनिक जीवन की मुश्किलों को भुलाकर सेवा भाव और भक्ति भाव से किए गए सामूहिक कर्म का विराट और भव्य प्रदर्शन है।
छठ पूजा
छठ पूजा को डाला छठ के नाम से भी जाना जाता है। इस पूजा में भगवान भास्कर (सूर्य) की अराधना एंव उपासना का विषेश महत्व है। यह एक मात्र व्रत है जिसमें सूर्य भगवान के
उदय एंव अस्त होने पे अराधना की जाती है। छठ पूजा कार्तिक शुक्ल पक्ष की षष्ठी अर्थात दिपावली के ठीक छः दिन बाद मनाया जाता है। कार्तिक अंग्रेजी महीने के हिसाब से अक्टूबर से नवम्बर के बीच में पड़ता है।
खास तौर से छठ पूजा का प्रचलन ब
िहार
राज्य में है। बिहार के साथ साथ पूर्वी उ.प्र., दिल्ली, झारखंड आदि अन्य
शहरो में भी मनाया जाता है। यह व्रत पूरे चार दिन तक मनाया जाता है, व्रत
करने वाली सभी स्त्रीयाँ गंगा किनारे निवास कर पूरे विधि विधान से इस पूजा
को सफल बनातीं हैं। छठ पूजा करने का विषेश उद्देश्य भगवान को धन्यवाद देना
है, क्योंकि
भगवान सूर्य की कृपा से इस धरती पर सभी को सहज जीवन की प्राप्ती होती है एंव साथ ही साथ अपनी इच्छाओं को पूरा करने की शक्ति भी मिलती है। इस पूजा को स्त्री व पुरुष समान रूप से मनाते है, दोनों ही अपने पारिवारिक जीवन के लिए छठ मईया से सुख-समृध्दि और मनोवांछित फल की कामना करते है। छठ मईया और भगवान भास्कर का संबंध भाई-बहन का है, इसीलिए छठ मईया और सूर्य देवता की पूजा एक ही दिन की जाती है।
छठ पूजा के पहले दिन ‘‘नहाई-खाई’’ का रिवाज है। इसमें व्रतियाँ पवित्र गंगा में स्नान करने के बाद गंगा जी के जल से ही प्रसाद बनातीं हैं।
दूसरे दिन ‘‘खारना’’ अर्थात पूरे दिन निराजल रह कर व्रती पूजा-पाठ करतीं हैं, दिन के आखिरी में प्रसाद रूपी ‘‘गन्ने के रस में चावल की खीर के साथ दूध, चावल का पीठ्ठा और घी की रोटी’’ बनाई जाती है। पूजा के प्रसादी में नमक एंव चीनी का इस्तेमाल नहीं किया जाता है। इस व्रत के दौरान घर में स्वछता का विषेश ध्यान भी दिया जाता है।
तीसरे दिन ‘‘संध्या अघ्र्य’’ का होता है। इस दिन को छठ का प्रसाद अर्थात ठेकुवा, चावल के लड्डू, साँचा और विभिन्न प्रकार के फल सम्मलित किए जाते हैं।
षाम को बाँस की टोकरी में अघ्र्य का सूप सजाया जाता है। स्त्रीयां पवित्र नदी गंगा में खड़े होकर सूर्य भगवान के अस्त होने से पूर्व जल एंव दूध का अघ्र्य दान कर करतीं हैं। तत् पष्चात् छठ माई की पूजा प्रसाद भरे सूप से करतीं है। और नदी में तब तक खड़ी रहतीं हैं जब तक सूर्य पूर्ण रूप से अस्त नहीं हो जाते।
चैथे दिन ‘‘उशा अघ्र्य’’ अर्थात र्काितक षुक्ल पक्ष की सप्तमी की सुबह उगते सूर्य को अघ्र्य दान दिया जाता है। अंत में व्रती कच्चे दूध का शरबत पीकर तथा प्रसाद खाकर व्रत पूर्ण करतीं है|
छठ पूजा का यह अनोखा तरीका बड़ा ही मनमोहक होता है। सभी लोग इसे एक उत्सव की तरह मनाते है। नदी किनारे जैसे मेला सा लग जाता है। स्त्रीयां छठ पूजा के सुहाने गीत गातीं है। गन्ने से बने छोटे-छोटे मंडप बड़े ही सुन्दर लगते है। व्रती अपने पूर्ण श्रृंगार के साथ-साथ अपनी नाक से लेकर पूरी मांग में पीला सिंदूर भरती हैं। सिंदूर लगाने का यह तरीका भी इस व्रत की एक बहुत बड़ी पहचान है।
भगवान सूर्य की कृपा से इस धरती पर सभी को सहज जीवन की प्राप्ती होती है एंव साथ ही साथ अपनी इच्छाओं को पूरा करने की शक्ति भी मिलती है। इस पूजा को स्त्री व पुरुष समान रूप से मनाते है, दोनों ही अपने पारिवारिक जीवन के लिए छठ मईया से सुख-समृध्दि और मनोवांछित फल की कामना करते है। छठ मईया और भगवान भास्कर का संबंध भाई-बहन का है, इसीलिए छठ मईया और सूर्य देवता की पूजा एक ही दिन की जाती है।
छठ पूजा के पहले दिन ‘‘नहाई-खाई’’ का रिवाज है। इसमें व्रतियाँ पवित्र गंगा में स्नान करने के बाद गंगा जी के जल से ही प्रसाद बनातीं हैं।
दूसरे दिन ‘‘खारना’’ अर्थात पूरे दिन निराजल रह कर व्रती पूजा-पाठ करतीं हैं, दिन के आखिरी में प्रसाद रूपी ‘‘गन्ने के रस में चावल की खीर के साथ दूध, चावल का पीठ्ठा और घी की रोटी’’ बनाई जाती है। पूजा के प्रसादी में नमक एंव चीनी का इस्तेमाल नहीं किया जाता है। इस व्रत के दौरान घर में स्वछता का विषेश ध्यान भी दिया जाता है।
तीसरे दिन ‘‘संध्या अघ्र्य’’ का होता है। इस दिन को छठ का प्रसाद अर्थात ठेकुवा, चावल के लड्डू, साँचा और विभिन्न प्रकार के फल सम्मलित किए जाते हैं।
षाम को बाँस की टोकरी में अघ्र्य का सूप सजाया जाता है। स्त्रीयां पवित्र नदी गंगा में खड़े होकर सूर्य भगवान के अस्त होने से पूर्व जल एंव दूध का अघ्र्य दान कर करतीं हैं। तत् पष्चात् छठ माई की पूजा प्रसाद भरे सूप से करतीं है। और नदी में तब तक खड़ी रहतीं हैं जब तक सूर्य पूर्ण रूप से अस्त नहीं हो जाते।
चैथे दिन ‘‘उशा अघ्र्य’’ अर्थात र्काितक षुक्ल पक्ष की सप्तमी की सुबह उगते सूर्य को अघ्र्य दान दिया जाता है। अंत में व्रती कच्चे दूध का शरबत पीकर तथा प्रसाद खाकर व्रत पूर्ण करतीं है|
छठ पूजा का यह अनोखा तरीका बड़ा ही मनमोहक होता है। सभी लोग इसे एक उत्सव की तरह मनाते है। नदी किनारे जैसे मेला सा लग जाता है। स्त्रीयां छठ पूजा के सुहाने गीत गातीं है। गन्ने से बने छोटे-छोटे मंडप बड़े ही सुन्दर लगते है। व्रती अपने पूर्ण श्रृंगार के साथ-साथ अपनी नाक से लेकर पूरी मांग में पीला सिंदूर भरती हैं। सिंदूर लगाने का यह तरीका भी इस व्रत की एक बहुत बड़ी पहचान है।
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