13 जून, 2024

मोमोज़ की कहानी:

मोमोज़





नॉर्थ ईस्‍ट की यह डिश कैसे बन गई इतनी पॉपुलर ??

मोमो का मतलब मोमो एक चाइनीज़ शब्‍द है जिसका मतलब है भाप में पकी हुई रोटी



मोमोज़ एक ऐसी डिश है जिसे एक बार खाने पर दिल बार बार उसी को चाहता है। यह ना केवल दिल्‍ली और लखनऊ में ही फेमस है बल्‍कि साउथ में भी लोग इसे बड़ी अच्‍छी तरह से पहचानने लगे हैं। आप इन्‍हें सड़कों पर भी बिकता हुआ देख सकते हैं और बडे़-बडे़ रेस्‍ट्रॉन्‍ट्स में भी।

 लखनऊ के 20 नवाबी जायके जिन्‍हें खाने के बाद आप भी कहेंगे वाह जनाब बिना तेल-मसाले की यह डिश स्‍टीम में पकाई जाती है इसलिये शायद यह सभी के दिल पर राज करती है। पर क्‍या आपने सोंचा है कि पूरे भारत में बिकने वाला मोमोज़ भला यहां तक पहुंचा कैसे? लोग मानते हैं कि मोमोज़, नॉर्थ ईस्‍ट का खाना है, जहां से यह आया है।



 ऐसे बनाइये टेस्‍टी मोमोज मोमोज़ तिब्‍बत और नेपाल की पारंपरिक डिश है जहां से यह आई। लेकिन नॉर्थ ईस्‍ट में शिलांग एक ऐसी जगह है जहाँ अन्य राज्यों की तुलना में सबसे स्वादिष्ट मोमो बिकते हैं। यहां पर मीट से तैयार किये मोमो ज्‍यादा खाए जाते हैं। इन 8 भारतीय खानों ने विदेशों में भी मारी है बाजी शिलांग में मोमोज़ एक चीनी समुदाय दृारा लाया गया था, जो चीन से आ कर शिलांग में बस गया था। और फिर उसी समुदाय ने चाइनीज़ फूड, जिसमें खास तौर पर मोमोज़ (पारंपरिक तिब्बती) की शुरुआत की।इन लोगों का अहम आहार है मोमोज़ वहीं दूसरी ओर मोमोज़, अरुणाचल प्रदेश के मोनपा और शेरदुकपेन जनजाति, जिसका बॉर्डर पूरी तरह से तिब्‍बत से जुड़ा हुआ है, उनके आहार का भी एक अहम हिस्‍सा है। इन जगहों पर मोमोज़ की फिलिंग में पोर्क और सरसों की पत्‍तियां तथा अन्‍य हरी सब्‍जियां भर कर डाली जाती हैं और फिर इसे तीखी मिर्च के पेस्‍ट के साथ सर्व किया जाता है।

सिक्किम तक कैसे पहुंचा मोमोज़ अब आइये बात करते हैं कि मोमोज़ सिक्किम तक कैसे पहुंचा? यहां पर मोमोज़, भूटिया, लेपचा और नेपाली समुदायों की वजह से पहुंचा, जिनके आहार का हिस्‍सा मोमोज़ रहा करता था। सिक्‍किम में जो मोमोज़ बनाए जाते हैं, वह तिब्‍बती मोमोज़ जैसा ही होता है। 1960 के दशक में बहुत भारी संख्या में तिब्बतियों ने अपने देश से पलायन किया, जिसकी वजह से उनकी कुज़ीन भारत के सिक्किम, मेघालय, पश्चिम बंगाल में दार्जिलिंग और कलिमपोंग के पहाड़ी शहरों और दिल्ली तक पहुंच गई।


किस चीज़ की होती है फिलिंग सिक्‍किम में बीफ और पोर्क मोमोज़ में भरने के लिये एक पारंपरिक चीज़ मानी जाती है। लेकिन यहां का क्राउड तो चिकन, वेजिटेबल और चीज़ से भरे मोमोज़ का खासा दीवाना है।

मोमो या डिमसम ? जहां मोमो नेपाल, तिब्‍बत और भूटान में मोमोज़ के नाम से जाना जाता है वहीं मोमोज़ चाइना में अलग नाम "डिमसम" के नाम से जाना जाता है। चाइनीज़ डिमसम में सूअर का मांस,बीफ, झींगा, सब्जियां और टोफू आदि भरे जाते हैं।

नैमिषारण्य

गोरखपुर विश्वविद्यालय और डॉ चन्द्र बदन तिवारी





 गोरखपुर विश्वविद्यालय और डॉ चन्द्र बदन तिवारी
Although the idea of residential University at Gorakhpur was first mooted by C. J. Chako, the then Principal of St. Andrews College, then under Agra University, who initiated post-graduate and undergraduate science teaching in his college, the idea got crystallized and took concrete shape by the untiring efforts of Dr S. N. M.Tripathi.ICS.who was actively thinking of establishing the University in Gorakhpur when he was collector at Gorakhpur.
The proposal was accepted in principle by the Chief Minister of U.P., Gobind Ballabh Pant, but it was only in 1956 that the University came into existence by an act passed by the U.P. Legislature.
Mahant Digvijay Nath also made valuable contribution in the formation of the University.
It actually started functioning since 1 September 1957, when the faculties of Arts, Commerce, Law and Education were started Geography department started its functioning on 16th July 1958, one year after the inception of University. Geography Department of the Maharana Pratap Degree College, Gorakhpur was merged in the university.
At the initial stage time there were only three faculties in Geography department. Dr. Mahatma Singh as the Head of the department and Dr. Chandra Badan Tiwari and Dr. (Miss) Surinder Pannu as lecturers.
Dr. Chandra Badan Tiwari, the senior most Lecturer ( one of the founders ) was appointed as Reader in Dec.1977. Phirtu Ram Chauhan joined the department in Januaryl978 to fill the vacancy of Dr. M. Singh who was retired earlier .Before joining the department he was serving at Sant Vinoba Degree College Deoria on same post Dr. Ujagir Singh retired on 30th June 1979 after serving the department as Professor and Head for about 12 years.
Dr. C.B.Tiwari ( Chandra Badan Tiwari) left the department as he became Principal of Buddha P.G. College Kushinagar, by the end of 1980 and thereafter he was elevated as Vice-Chancellor of Meerut University. The department shifted in new building of its own on 26th Jan. 1981. In Feb.1981 Dr. Jagdish Singh was appointed as Professor and V K.Srivastava as Reader.
Hostels
• Sant Kabir Hostel
• Gautam Buddha Hostel
• Vivekanand Hostel
• Nath Chandravat Hostel
• Rani Lakshmi Bai Mahila Hostel world
NOTABLE ALUMNI
Rajnath Singh, former chief minister of UP, president Bharatiya Janta Party and union home minister of India.
Chandrapal Singh Yadav, a Samajwadi Party MP from Jhansi.
Veer Bahadur Singh ,former chief minister of UP
Ravindra Singh , MLA
Jagdambika Pal , a Bharatiya Janta Party MP from Doomariyaganj.
Mata Prasad Pandey , Speaker of Uttar Pradesh Assembly.
Parichay Das,eminent bhojpuri-hindi writer, Ex Secretary, Maithili-Bhojpuri Academy, Delhi Govt. and Ex Secretary, Hindi Academy, Delhi Govt.
Kalp Nath Rai Former Union Minister
गोरखपुर विश्वविद्यालय और डॉ चन्द्र बदन तिवारी
कहते है जब किसी कार्य वश डॉ सी बी तिवारी बुद्धा स्नातकोत्तर महाविद्यालय के प्राचार्य थे, लखनऊ गए थे , उस समय श्री वीर बहादुर सिंह उत्तर प्रदेश मुख्य मंत्री थे उनसे मिले उन्होंने बड़े आदर भाव से उनका स्वागत किया . वास्तव में एक गुरु और उसके छात्र का यह मिलन बड़ा ही मनमोहक था . गुरु के चेहरे पर गर्व एवं संतोष का चिन्ह था की उनका छात्र उन्ही के प्रदेश का मुख्य मंत्री है . और क्या चाहिए ??
सुबह वे लखनऊ से गोरखपुर सुबह पहुंचे तो उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा लोग फूल माला हर लेकर उनका स्वागत करने के लिए भोर में ही गोरखपुर रेलवे स्टेशन पहुंचे हुए थे . उन्होंने लोगों से पूछा क्या बात है भाई ??
लोगों ने बताया ये लोग आज का अख़बार पढ़कर आये है —-आप मेरठ विश्वविद्यालय के वाईस चांसलर बन गए हैं. और उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं था , जब लोगों ने अख़बार दिखाया फिर उन्हें विश्वास हुआ .

14 April 2013






शमी का पेड़- Prosopis spicigera.


अति प्रसन्न शमी बृक्ष की दिव्य छटा......











शमी - Prosopis spicigera.


Shami trees are planted for checking desertification, and stabilization of sand dunes.These trees are also planted for the reclamation of land.Shami is a rare medicinal tree and it can grow in very harsh climatic
conditions, and in poor or degraded soil. Roots of shami can grow down as deep as 35 meters in search of water.Being a Legume, it adds nitrogen to the soil and increases its fertility.
Shami the sacred plant is the beloved tree of Lord Rama & the protector of the arms of Pandavas during their one year long "Agyaat Vaas". Shami protects human beings from the bad forces of Shani, and the symbol of victory in all walks of life … Shami samyate papam …”,
Ayurvedic Uses:Shami is an important medicinal plant. Ayurveda recommends it for the treatment of a number of ailments and iseases like mental disorder, Schizophrenia, respiratory tract infection, excessive heat, herpes, loose motion, leucorrhoea etc. but different parts of the plant are used for different purposes.
The extract of leaves of shami tree has been reported to kill intestinal parasitic worms. Its extract is reported to be useful in the treatment of leprosy also.The methanolic extract of shami leaves has anti-inflamatory activities.The pods and roots of the plant have been reported to possess astringent properties, and are used for the treatment of dysentery. Flowers of shami when mixed with sugar, are eaten by women during pregnancy as a safeguard against miscarriage.
The bark of SHAMI is used in Ayurvedic formulations for its medicinal benefits in ailments like: Diarrhea, Anorexia, Piles, Rheumatoid Arthritis, Asthma, Chronic cough & minor Skin diseases. Pods are indicated un Uro-genital conditions.









माता पार्वती ने शमी वृक्ष की महत्ता पर विस्तार से बताने को कहा तो भगवान शिव ने कहा- दुर्योधन ने पांडवों को इस शर्त पर वनवास दिया था कि वे बारह वर्ष प्रकट रूप से वन में घूमें, लेकिन एक वर्ष पूरी तरह से अज्ञातवास में रहें। और अज्ञातवास के दौरान अगर पांडवों का परिचय किसी ने जान लिया तो फिर से उन्हें 12 साल का वनवास भोगना होगा। इस अज्ञातवास के दौरान ही अर्जुन ने शमी वृक्ष पर अपने धनुष और बाण रख थे। राजा विराट के यहां बृहन्नला के रूप में रह रहे अर्जुन दुर्योधन के नेतृत्व में आए कौरवों से गायों की रक्षा के लिए राजा विराट के पुत्र उत्तर के सारथी बने और उस समय शमी वृक्ष से अपने धनुष और बाण उतारे। उत्तर को विश्वास दिलाया कि वह ही अर्जुन है। शमी ने तब तक देवता की तरह अपने खोल में उनके धनुष और बाण की पूरी तरह से रक्षा की। ऐसे ही शमी वृक्ष की पूजा जब भगवान राम ने की तो शमी ने कहा- आपकी विजय होगी। दशहरे के दिन शमी वृक्ष का पूजन राजाओं द्वारा किया जाता है। घर के ईशान कोण में विराजमान शमी का वृक्ष विशेष लाभकारी माना गया है।


कर्म और भाग्य

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अनंतकाल से इस विषय पर बहस चली आ रही है कि कर्म महत्वपूर्ण है या भाग्य। जीवन में अगर आपको कुछ पाना है तो मेहनत तो करनी ही पड़ेगी। मंजिलें उन्हीं को मिलती है जो उसकी ओर कदम बढ़ाते हैं। 

महाभारत में जब अर्जुन ने कुरुक्षेत्र में युद्ध में अपने स्वजनों को अपने सामने खड़ा पाया तो उसका ‍शरीर निस्तेज हो गया। हाथों से धनुष छूट गया। प्राणहीन मनुष्य के समान वह धरती पर गिर गया। तब भगवान श्रीकृष्ण ने उसे गीता के कर्म ज्ञान का उपदेश दिया। 
भगवान कृष्ण ने अर्जुन को कहा कि राज्य तुम्हारे भाग्य में है या नहीं यह तो बाद में, पहले तुम्हें युद्ध तो लड़ना पड़ेगा। तुम्हें अपना कर्म तो करना पड़ेगा अर्थात स्वजनों के खिलाफ युद्ध तो लड़ना पड़ेगा। तुलसीदासजी ने भी श्रीरामचरित मानस में लिखा है- 'कर्म प्रधान विश्व करि राखा'। अर्थात युग तो कर्म का है। 

इसका अर्थ यह हुआ कि हम अपना कार्य करें, फल ‍की चिंता बाद में करें। किसान जब खेत में बीज बोता है तो उसे यह नहीं पता होता कि बारिश होगी या नहीं। जमीन में से बीज से अंकुर फूटेगा या नहीं। अगर पौधे आ भी गए तो उस पर फल आएंगे या नहीं। लेकिन किसान बीजों को जमीन बोता है और फसल की चिंता ईश्वर पर छोड़ देता है। 
भाग्य का समर्थन करने वाले कहते है कि हमें जो सुख, संपत्ति, वैभव प्राप्त होता है वह भाग्य से होता है। जैसे लालूप्रसाद यादव की पत्नी राबड़ीदेवी बिहार की मुख्यमं‍त्री बनीं तो यह उनकी किस्मत थी। डॉ. मनमोहनसिंह भारत के प्रधानमंत्री बने तो उनकी कुंडली में राजयोग था। अगर ‍किसी अभिनेता का बेटा अभिनेता बनता है तो यह उसका भाग्य रहता है कि वह ‍अभिनेता के यहां पैदा हुआ।
जब चार लोग एक समान बुद्धि और ज्ञान रखने वाले एक ही समान कार्य को करें और उनमें से सिर्फ दो को ही सफलता मिले तो हम इसे क्या कहेंगे। दो लोगों के साथ भाग्य साथ नहीं था। ऐसा एक उदाहरण हम यह दे सकते हैं दो व्यक्ति एक साथ लॉटरी का टिकट खरीदते हैं पर लगती लॉटरी एक ही व्यक्ति की है। जब दोनों ने लॉटरी खरीदने का कर्म एक साथ किया तो फल अलग-अलग क्यों? 
अंत में यही कहा जा सकता है कि भाग्य भी उन लोगों का साथ देता है जो कर्म करते हैं। किसी खुरदरे पत्थर को चिकना बनाने के लिए हमें उसे रोज घिसना पड़ेगा। ऐसा ही जिंदगी में समझें हम जिस भी क्षेत्र में हों, स्तर पर हों हम अपना कर्म करते रहें बिना फल की चिंता किए। जैसे परीक्षा देने वाले विद्यार्थी परीक्षा देने के बाद उसके परिणाम का इंतजार करते हैं। 

कर्म और भाग्य एक अन्योन्याश्रित हैं। कर्म के बिना भाग्य फलदायी नहीं होता और भाग्य के बिना कर्म। इस बात को दूसरे शब्दों में इस प्रकार कह सकते हैं कि वे एक दूसरे के पूरक हैं और एक ही सिक्के के पहलू हैं।
       यदि मनुष्य का भाग्य प्रबल होता है तब उसे थोड़ी मेहनत करने पर अधिक फल प्राप्त होता है। यदि वह सोचे कि मैं बड़ा बलवान हूँ मुझे मेहनत करने की क्या आवश्यकता है। सब मेरे पास थाली में परोस कर आ जाएगा तो यह उसका भ्रम है। श्रम न करके वह अपना स्वर्णिम अवसर खो देता है। उस समय अहंकार के वशीभूत वह भूल जाता है कि ईश्वर बार-बार अवसर नहीं देता।
      इसके विपरीत कभी-कभी ऐसा भी होता है कि मनुष्य कठोर श्रम करता है परंतु आशा के अनुरूप उसे ल नहीं मिलता। इसका यह अर्थ नहीं कि वह परिश्रम करना छोड़कर निठल्ला बैठ जाए और भाग्य को कोसे या ईश्वर को।
        मनुष्य को अपने भाग्य और कर्म दोनों को एक समान मानते हुए बार-बार सफलता प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना चाहिए। हमेशा चींटी का श्रम याद रखिए जो पुनः पुनः प्रयास करके अपने लक्ष्य को पाने में सफल हो जाती है।
     
        जब-जब हम अपने बाहुबल पर विश्वास करके कठोर परिश्रम करेंगे तो हमारा भाग्य देर-सवेर अवश्यमेव फल देगा। शर्त यह है कि अवसर की प्रतीक्षा करते हुए हमें हाथ पर हाथ रखकर नहीं बैठना है अन्यथा हम अच्छा अवसर खो देंगे।

30 सितंबर, 2023

टैरिया








टैरिया  , प्रसिद्ध सोहनाग मेला से २ किलोमीटर की दुरी पर स्थित है . उत्तर प्रदेश के जिला
देवरिया के अंतर्गत सलेमपुर नामक ब्लॉक एवं तहसील जिसे जिला बनाए जाने की चर्चा बड़े जोर शोर से बहुत दिनों से चलरही है . सबसे पहले सलेमपुर का नाम जब B B C ने बोल था तो पता चला भारत में सलेमपुर संसदीय छेत्र आबादी के हिसाब से विश्व का सबसे बड़ा संसदीय छेत्र है . इस छेत्र का संयोग यह रहा की ढेर सारी विविधताओं के बावजूद विकास की यात्रा में बहुत आगे नहीं बढ़ नहीं सका . राजनैतिक रूप से यह छेत्र ज्यादे महत्त्व पूर्ण नहीं रहा . इसके समीप वर्ती क्षेत्र से श्री चन्द्रशेखर बलिया से चुनाव लड़ते थे आजीवन जीतते भी रहे . वे देश के प्रधान मंत्री भी रहे .
जब भी मैं  टैरिया  के इतिहास एवं वर्तमान पर विचार करता हूँ तो लगता है यह ब्राह्मणो का एक शांति प्रिय गांव रहा है इतना शांत की इस छेत्र के दरोगा को भी पता नहीं रहता था की टेरिया गांव कहाँ है ?? कभी भी थाने जाने की नौबत नहीं आती थी . सब लोग इतना प्यार से आपस में मिल जुल कर रहते थे , की आपस में कटुता एवं वैमनष्य का प्रश्न ही नहीं उठता था . छोटा सा गांव था इसे टोला भी कह सकते थे , लेकिन यह एक स्वतंत्र गांव था .
कहते हैं बुढ़िया बारी के तिवारी बहुत प्रसिद्ध थे , कुछ तो परिस्थितियां ऐसी रही होंगी वे नए मुकाम की तलाश में लोहरौली आ गए थे . गांव वाले नहीं चाहते थे की वे यहाँ बसे. जहाँ बसे थे वहां जमीन का विवाद हो गया था , भोगी बाबा हल के सामने लेट गए . उन्हें लगा हल जोतने वाला रूक जायेगा , लेकिन ऐसा हुआ नहीं हल का फल उनके पेट से टकरा गया और उनकी वहीँ मृत्यु हो गयी . ब्रह्म हो गए ब्रह्म श्री भोगी बाबा . पूरा टेरिया भोगी बाबा का ही वशज है . टैरी के पेड़ों को काट कर गांव बसाए थे , इसलिए गांव नाम टेरिया पड़ा .
तिवारी परिवार बढ़ने लगा और बटवारा होने लगा इस प्रकार पूरा गांव बस गया . आवश्यकतानुसार हरिजन एवं दुसाध आकर बस गए थे . जिनका परिवार आगे   बढ़ता गया
क्रमशः

यादें .....

अपनी यादें अपनी बातें लेकर जाना भूल गए  जाने वाले जल्दी में मिलकर जाना भूल गए  मुड़ मुड़ कर पीछे देखा था जाते ...