29 सितंबर, 2015

पिता जी की डायरी से...






बिन ढूढे मिले नहीं , अपना ही पहचान .
क्या ढुढत हो गैर को,बसत जहाँ अज्ञान .
बसत जहाँ अज्ञान, राम भी पास में आये,
मनुष्य जीवन धन्य,बृथा नर मुर्ख गवाए,
कहें मौन कविराय , जग मन दुःख ही दुःख है
अपने को पहचान,सदा ही सुख ही सुख है.

-अवधेश कुमार तिवारी

29 September 2004



मृत्यु जीवन का सत्य है लेकिन एक सत्य, मृत्यु के बाद शुरु होता है। इस सच के बारे में, बहुत कम लोग जानते हैं। क्या वाकई, मृत्यु के समय व्यक्ति को कोई दिव्य दृष्टि मिलती है? आखिर मृत्यु के कितने दिनों बाद, आत्मा यमलोक पहुंचती है? गरुण पुराण में, भगवान के वाहन गरुण, श्रीहरि विष्णु से मृत्यु के बाद आत्मा की स्थिति को लेकर प्रश्न उठाते हैं। वह पूछते हैं कि मृत्यु के बाद, आत्मा कहां जाती है? इसका उत्तर भगवान विष्णु ने, गरुण पुराण में दिया है। गरुण पुराण में, मृत्यु के पहले और बाद की स्थिति के बारे में बताया गया है।
क्या होता है मृत्यु से पहले?
गरुण पुराण के अनुसार, मृत्यु से पहले, मनुष्य की आवाज चली जाती है। जब  अंतिम समय आता है, तो मरने वाले व्यक्ति को दिव्य दृष्टि मिलती है। इस दिव्य दृष्टि के बाद, मनुष्य, सारे संसार को, एक रूप में देखने लगता है। उसकी सारी इंद्रियां शिथिल हो जाती हैं।
क्या होता है मृत्यु के समय?
गरुण पुराण के अनुसार, मृत्यु के समय 2 यमदूत आते हैं। इनके भय से अंगूठे के बराबर जीव, हा हा की आवाज़ करते हुये, शरीर से बाहर निकलता है। यमराज के दूत, जीवात्मा के गले में पाश बांधकर, उसे यमलोक ले जाते हैं। इसके बाद, जीव का सूक्ष्म शरीर, यमदूतों से डरता हुआ आगे बढ़ता है।
कैसा है मृत्यु का मार्ग?
मृत्यु का रास्ता अंधेरा और गर्म बालू से भरा होता है। यमलोक पहुंचने पर, पापी जीव को यातना देने के बाद, यमराज के कहने पर, उसे आकाश मार्ग से घर छोड़ दिया जाता है। घर आकर वह जीवात्मा, अपने शरीर में, फिर से घुसना चाहती है। लेकिन यमदूत के पाश से मुक्त नहीं हो पाती है। पिंडदान के बाद भी, वह जीवात्मा तृप्त नहीं हो पाती है। इस तरह भूख प्यास से बेचैन आत्मा, फिर यमलोक आ जाती है। जब तक उस आत्मा के वंशज, उसका पिंडदान नहीं करते, तो आत्मा दु:खी होकर घूमती रहती है। काफी समय यातना भोगने के बाद, उसे विभिन्न योनियों में नया शरीर मिलता है। इसीलिये मनुष्य की मृत्यु के 10 दिन तक, पिंडदान ज़रुर करना चाहिए। दसवें दिन पिंडदान से, सूक्ष्म शरीर को चलने की शक्ति मिलती है। मृत्यु के 13वें दिन फिर यमदूत उसे पकड़ लेते हैं। उसके बाद शुरू होती है वैतरणी नदी को पार करने की यात्रा। वैतरणी नदी को पार करने में पूरे 47 दिन का समय लगता है। उसके बाद जीवात्मा यमलोक पहुंच जाती है।
क्या है गरुण पुराण?
गरुण पुराण के अधिष्ठाता भगवान विष्णु हैं। इसमें 19 हजार श्लोक थे, लेकिन अब सिर्फ 7 हज़ार श्लोक ही हैं। गरुण पुराण 2 भागों में है। पहले भाग में श्रीविष्णु की भक्ति, उनके 24 अवतार की कथा और पूजा विधि के बारे में बताया गया है। दूसरे भाग में, प्रेत कल्प और कई तरह के नरक के वर्णन है। मृत्यु के बाद मनुष्य की क्या गति होती है? उसे किन-किन योनियों में जन्म लेना पड़ता है? क्या प्रेत योनि से मुक्ति पाई जा सकती है? श्राद्ध और पिंडदान कैसे किया जाता है? श्राद्ध के कौन-कौन से तीर्थ हैं? मोक्ष कैसे मिल सकता है? इस बारे में विस्तार से वर्णन है।
गरुण पुराण की कथा
महर्षि कश्यप के पुत्र पक्षीराज गरुड़ भगवान विष्णु के वाहन हैं। एक बार गरुड़ ने भगवान विष्णु से मृत्यु के बाद जीवात्मा की स्थिति के बारे में प्रश्न किया था। तब विष्णु जी ने, मृत्यु के बाद की जीवात्मा की गति के बारे में, गरुण को बताया था। इसीलिए इसका नाम गरुण पुराण पड़ा।
गरुण पुराण का विषय
गरुण पुराण की शुरुआत में सृष्टि के बनने की कहानी है। इसके बाद सूर्य की पूजा की विधि, दीक्षा विधि, श्राद्ध पूजा, नवव्यूह की पूजा विधि के बारे में बताया गया है। साथ ही साथ भक्ति, ज्ञान, वैराग्य, सदाचार और निष्काम कर्म की महिमा भी बताई गयी है। श्राद्ध में गरुण पुराण के पाठ से आत्मा को मुक्ति और मोक्ष मिलता है। इसीलिये श्राद्ध के 15 दिनों में जगह जगह गरुण पुराण के पाठ का आयोजन होता है। अपने पितरों और पूर्वजों को मुक्ति दिलाने के  लिये, ज़रूर पढ़ें गरुण पुराण।

26 फ़रवरी, 2014

रामेश्वर नाथ तिवारी








अपने बारे में

मेरा जन्म    तेरह जनवरी  उन्नीस सौ उनसठ को   ग्राम  टैरिया  , पत्रालय - सोहनाग,  तहसील-सलेमपुर  , जिला  देवरिया , उत्तर प्रदेश  में हुआ। पिताजी श्री अवधेश कुमार तिवारी प्राइमरी स्कूल तिलौली ,सोहनाग में सहायक अध्यापक थे . बाद में प्रधान अध्यापक और फिर जूनियर हाई स्कूल सोहनाग में सहायक अध्यापक हो गए थे और वाही से रिटायर भी गए थे .

 पिता जी ृ रिटायरमेंट के बाद अपना पूरा समय भगवान की भक्ति में और काव्य रचना में व्यतीत करते थे .  अधय्त्मिक उत्कर्ष इतना अधिक हो गया था की वे संसार की हर बात को मिथ्या समझ बैठे थे .

जब भी दुखी और चिंतित होता हूँ  उनकी कविताओं से बड़ी राहत मिलती है और एक दिव्य दृष्टि भी .

देख रहा हूँ सपना क्या है ?
सपना है तो अपना क्या है ?

विशुद्ध ग्रामीण परिवेश    टैरिया  नामक  गाँव , देवरिया जनपद में सलेमपुर से मात्र ३ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है . यह प्रसिद्ध सोहनाग , परशुराम धाम सोहनाग  से मात्र २ किलोमीटर की दुरी पर स्थित है . ऐतिहासिक धार्मिक केंद्र .

नाना पंडित राम चन्द्र शर्मा ,प्रख्यात स्वतंत्रता संग्राम सेनानी  थे।

पितामह पंडित श्री  सीता राम तिवारी रेलवे में कार्यरत थे । अत्यंत दयालु स्वाभाव  के थे .


सोहनाग  के प्रसिद्द  प्राइमरी  स्कूल से पाचवी  पास की एवं जूनियर  हाई स्कूल सोहनाग से आठवीं । बाद में गौतम इण्टर कॉलेज पिपरा रामधर से  दसवीं और बारहवी उत्तर प्रदेश  बोर्ड, इलाहाबाद   से प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ.   बारहवी में  मैरिट लिस्ट में नाम था –जनपद में प्रथम स्थान  था ।    गोरखपुर विश्व विद्यालय ,गोरखपुर    में  जब बी.ए . प्रवेश लिया तो      विश्व विद्यालय  में मेरिट में प्रथम स्थान प्राप्त हुआ था .       गोरखपुर विश्व विद्यालय ,गोरखपुर से इंग्लिश, संस्कृत और भूगोल विषय से प्रथम श्रेणी में बी.ए .  १९७८ में   उत्तीर्ण हुआ . गोरखपुर विश्व विद्यालय से ही एम् .ए .भूगोल  १९८० में उत्तीर्ण हुआ ।

मदन मोहन मालवीय डिग्री कॉलेज भाटपार रानी में लेक्चरर शिप न हो पाने के बाद  गांव छोड़ने निश्चय किया और यहाँ पुणे ,महाराष्ट्र को अपनी कर्म स्थली बनाया .

कॉर्पोरेट्स में २५ साल कार्य किया . ग्रुप जनरल मैनेजर के पद पर पचीस  वर्षों कार्य करने के बाद त्याग पत्र दे  दिया  था . फाउंडर ट्रस्टी के रूप में मैनेजमेंट इंस्टिट्यूट की स्थापना भी किया था .

बाद में डिप्टी डायरेक्टर एडमिनिस्ट्रेशन एंड एच आर साढ़े आठ साल रहा , इंदिरा ग्रुप ऑफ़ इंस्टीटूट्स जिसमें के जी से   पी जी    तक की पढ़ाई होती थी मैनेजमेंट ,इंजीनियरिंग , फार्मेसी,इत्यादि .इत्यादि .
अब रिटायर्ड लाइफ बड़े आनंद से बीत रहा है .






































रामेश्वर नाथ तिवारी








अपने बारे में

मेरा जन्म    तेरह जनवरी  उन्नीस सौ उनसठ को   ग्राम  टैरिया  , पत्रालय - सोहनाग,  तहसील-सलेमपुर  , जिला  देवरिया , उत्तर प्रदेश  में हुआ। पिताजी श्री अवधेश कुमार तिवारी प्राइमरी स्कूल तिलौली ,सोहनाग में सहायक अध्यापक थे . बाद में प्रधान अध्यापक और फिर जूनियर हाई स्कूल सोहनाग में सहायक अध्यापक हो गए थे और वाही से रिटायर भी गए थे .

 पिता जी ृ रिटायरमेंट के बाद अपना पूरा समय भगवान की भक्ति में और काव्य रचना में व्यतीत करते थे .  अधय्त्मिक उत्कर्ष इतना अधिक हो गया था की वे संसार की हर बात को मिथ्या समझ बैठे थे .

जब भी दुखी और चिंतित होता हूँ  उनकी कविताओं से बड़ी राहत मिलती है और एक दिव्य दृष्टि भी .

देख रहा हूँ सपना क्या है ?
सपना है तो अपना क्या है ?

विशुद्ध ग्रामीण परिवेश    टैरिया  नामक  गाँव , देवरिया जनपद में सलेमपुर से मात्र ३ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है . यह प्रसिद्ध सोहनाग , परशुराम धाम सोहनाग  से मात्र २ किलोमीटर की दुरी पर स्थित है . ऐतिहासिक धार्मिक केंद्र .

नाना पंडित राम चन्द्र शर्मा ,प्रख्यात स्वतंत्रता संग्राम सेनानी  थे।

पितामह पंडित श्री  सीता राम तिवारी रेलवे में कार्यरत थे । अत्यंत दयालु स्वाभाव  के थे .


सोहनाग  के प्रसिद्द  प्राइमरी  स्कूल से पाचवी  पास की एवं जूनियर  हाई स्कूल सोहनाग से आठवीं । बाद में गौतम इण्टर कॉलेज पिपरा रामधर से  दसवीं और बारहवी उत्तर प्रदेश  बोर्ड, इलाहाबाद   से प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ.   बारहवी में  मैरिट लिस्ट में नाम था –जनपद में प्रथम स्थान  था ।    गोरखपुर विश्व विद्यालय ,गोरखपुर    में  जब बी.ए . प्रवेश लिया तो      विश्व विद्यालय  में मेरिट में प्रथम स्थान प्राप्त हुआ था .       गोरखपुर विश्व विद्यालय ,गोरखपुर से इंग्लिश, संस्कृत और भूगोल विषय से प्रथम श्रेणी में बी.ए .  १९७८ में   उत्तीर्ण हुआ . गोरखपुर विश्व विद्यालय से ही एम् .ए .भूगोल  १९८० में उत्तीर्ण हुआ ।

मदन मोहन मालवीय डिग्री कॉलेज भाटपार रानी में लेक्चरर शिप न हो पाने के बाद  गांव छोड़ने निश्चय किया और यहाँ पुणे ,महाराष्ट्र को अपनी कर्म स्थली बनाया .

कॉर्पोरेट्स में २५ साल कार्य किया . ग्रुप जनरल मैनेजर के पद पर पचीस  वर्षों कार्य करने के बाद त्याग पत्र दे  दिया  था . फाउंडर ट्रस्टी के रूप में मैनेजमेंट इंस्टिट्यूट की स्थापना भी किया था .

बाद में डिप्टी डायरेक्टर एडमिनिस्ट्रेशन एंड एच आर साढ़े आठ साल रहा , इंदिरा ग्रुप ऑफ़ इंस्टीटूट्स जिसमें के जी से   पी जी    तक की पढ़ाई होती थी मैनेजमेंट ,इंजीनियरिंग , फार्मेसी,इत्यादि .इत्यादि .
अब रिटायर्ड लाइफ बड़े आनंद से बीत रहा है .






































02 जनवरी, 2014

जीवन में सफलता के सात नियम

जीवन में सफलता हासिल करने का वैसे तो कोई निश्चित फार्मूला नहीं है लेकिन मनुष्य सात आध्यात्मिक नियमों को अपनाकर कामयाबी के शिखर को छू सकता है।

ला जोला कैलीफोर्निया में “द चोपड़ा सेंटर फार वेल बीइंग” के संस्थापक और मुख्य कार्यकारी डा.दीपक चोपड़ा ने अपनी पुस्तक “सफलता के सात आध्यात्मिक नियम” में सफलता के लिए जरूरी बातों का उल्लेख करते हुए बताया है कि कामयाबी हासिल करने के लिए अच्छा स्वास्थ्य, ऊर्जा, मानसिक स्थिरता, अच्छा बनने की समझ और मानसिक शांति आवश्यक है।

“एजलेस बाडी, टाइमलेस माइंड” और “क्वांटम हीलिंग” जैसी 26 लोकप्रिय पुस्तकों के लेखक डा.चोपड़ा के अनुसार सफलता हासिल करने के लिए व्यक्ति में विशुद्ध सामर्थ्य, दान, कर्म, अल्प प्रयास, उद्देश्य और इच्छा, अनासक्ति और धर्म का होना आवश्यक है।

पहला नियम:

विशुद्ध सामर्थ्य का पहला नियम इस तथ्य पर आधारित है कि व्यक्ति मूल रूप से विशुद्ध चेतना है, जो सभी संभावनाओं और असंख्य रचनात्मकताओं का कार्यक्षेत्र है। इस क्षेत्र तक पहुंचने का एक ही रास्ता है. प्रतिदिन मौन. ध्यान और अनिर्णय का अभ्यास करना। व्यक्ति को प्रतिदिन कुछ समय के लिए मौन.बोलने की प्रकिया से दूर. रहना चाहिए और दिन में दो बार आधे घंटे सुबह और आधे घंटे शाम अकेले बैठकर ध्यान लगाना चाहिए।

इसी के साथ उसे प्रतिदिन प्रकृति के साथ सम्पर्क स्थापित करना चाहिए और हर जैविक वस्तु की बौद्धिक शक्ति का चुपचाप अवलोकन करना चाहिए। शांत बैठकर सूर्यास्त देखें. समुद्र या लहरों की आवाज सुनें तथा फूलों की सुगंध को महसूस करें ।

विशुद्ध सामर्थ्य को पाने की एक अन्य विधि अनिर्णय का अभ्यास करना है। सही और गलत, अच्छे और बुरे के अनुसार वस्तुओं का निरंतर मूल्यांकन है –“निर्णय’ । व्यक्ति जब लगातार मूल्यांकन, वर्गीकरण और विश्लेषण में लगा रहता है, तो उसके अन्तर्मन में द्वंद्व उत्पन्न होने लगता है जो विशुद्ध सामर्थ्य और व्यक्ति के बीच ऊर्जा के प्रवाह को रोकने का काम करता है। चूंकि अनिर्णय की स्थिति दिमाग को शांति प्रदान करती है. इसलिए व्यक्ति को अनिर्णय का अभ्यास करना चाहिए। अपने दिन की शुरुआत इस वक्तव्य से करनी चाहिए- “आज जो कुछ भी घटेगा, उसके बारे में मैं कोई निर्णय नहीं लूंगा और पूरे दिन निर्णय न लेने का ध्यान रखूंगा।”

दूसरा नियम: 

सफलता का दूसरा आध्यात्मिक नियम है.- देने का नियम। इसे लेन- देन का नियम भी कहा जा सकता है। पूरा गतिशील ब्रह्मांड विनियम पर ही आधारित है। लेना और देना- संसार में ऊर्जा प्रवाह के दो भिन्न- भिन्न पहलू हैं । व्यक्ति जो पाना चाहता है, उसे दूसरों को देने की तत्परता से संपूर्ण विश्व में जीवन का संचार करता रहता है।

देने के नियम का अभ्यास बहुत ही आसान है। यदि व्यक्ति खुश रहना चाहता है तो दूसरों को खुश रखे और यदि प्रेम पाना चाहता है तो दूसरों के प्रति प्रेम की भावना रखे।

यदि वह चाहता है कि कोई उसकी देखभाल और सराहना करे तो उसे भी दूसरों की देखभाल और सराहना करना सीखना चाहिए । यदि मनुष्य भौतिक सुख-समृद्धि हासिल करना चाहता है तो उसे दूसरों को भी भौतिक सुख- समृद्धि प्राप्त करने में मदद करनी चाहिए।

तीसरा नियम:

सफलता का तीसरा आध्यात्मिक नियम, कर्म का नियम है। कर्म में क्रिया और उसका परिणाम दोनों शामिल हैं। स्वामी विवेकानन्द ने कहा है- “कर्म मानव स्वतंत्रता की शाश्वत घोषणा है.. हमारे विचार, शब्द और कर्म. वे धागे हैं, जिनसे हम अपने चारों ओर एक जाल बुन लेते हैं। .. वर्तमान में जो कुछ भी घट रहा है. वह व्यक्ति को पसंद हो या नापसंद, उसी के चयनों का परिणाम है जो उसने कभी पहले किये होते हैं।

कर्म, कारण और प्रभाव के नियम पर इन बातों पर ध्यान देकर आसानी से अमल किया जा सकता है... आज से मैं हर चुनाव का साक्षी रहूंगा और इन चुनावों के प्रति पूर्णतः साक्षीत्व को अपनी चेतन जागरूकता तक ले जाऊंगा। जब भी मैं चुनाव करूंगा तो स्वयं से दो प्रश्न पूछूंगा.. जो चुनाव मैं करने जा रहा हूं. उसके नतीजे क्या होंगे और क्या यह चुनाव मेरे और इससे प्रभावित होने वाले लोगों के लिए लाभदायक और इच्छा की पूर्ति करने वाला होगा। यदि चुनाव की अनुभूति सुखद है तो मैं यथाशीघ्र वह काम करूंगा लेकिन यदि अनुभूति दुखद होगी तो मैं रुककर अंतर्मन में अपने कर्म के परिणामों पर एक नजर डालूंगा। इस प्रकार मैं अपने तथा मेरे आसपास के जो लोग हैं. उनके लिए सही निर्णय लेने में सक्षम हो सकूंगा।.

चौथा नियम:

सफलता का चौथा नियम “अल्प प्रयास का नियम” है। यह नियम इस तथ्य पर आधारित है कि प्रकृति प्रयत्न रहित सरलता और अत्यधिक आजादी से काम करती है। यही अल्प प्रयास यानी विरोध रहित प्रयास का नियम है।

प्रकृति के काम पर ध्यान देने पर पता चलता है कि उसमें सब कुछ सहजता से गतिमान है। घास उगने की कोशिश नहीं करती, स्वयं उग आती है। मछलियां तैरने की कोशिश नहीं करतीं, खुद तैरने लगती हैं, फूल खिलने की कोशिश नहीं करते, खुद खिलने लगते हैं और पक्षी उडने की कोशिश किए बिना स्वयं ही उडते हैं। यह उनकी स्वाभाविक प्रकृति है। इसी तरह मनुष्य की प्रकृति है कि वह अपने सपनों को बिना किसी कठिन प्रयास के भौतिक रूप दे सकता है।

मनुष्य के भीतर कहीं हल्का सा विचार छिपा रहता है जो बिना किसी प्रयास के मूर्त रूप ले लेता है। इसी को सामान्यतः चमत्कार कहते हैं लेकिन वास्तव में यह अल्प प्रयास का नियम है। अल्प प्रयास के नियम का जीवन में आसानी से पालन करने के लिए इन बातों पर ध्यान देना होगा..-  मैं स्वीकृति का अभ्यास करूंगा। आज से मैं घटनाओं, स्थितियों, परिस्थितियों और लोगों को जैसे हैं. वैसे ही स्वीकार करूंगा, उन्हें अपनी इच्छा के अनुसार ढालने की कोशिश नहीं करूंगा। मैं यह जान लूंगा कि यह क्षण जैसा है, वैसा ही होना था क्योंकि सम्पूर्ण ब्रह्मांड ऐसा ही है । मैं इस क्षण का विरोध करके पूरे ब्रह्मांड से संघर्ष नहीं करूंगा, मेरी स्वीकृति पूर्ण होगी। मैं उन स्थितियों का, जिन्हें मैं समस्या समझ रहा था, उनका उत्तरदायित्व स्वयं पर लूंगा। किसी दूसरे को अपनी स्थिति के लिए दोषी नहीं ठहराऊंगा। मैं यह समझूंगा कि प्रत्येक समस्या में सुअवसर छिपा है और यही सावधानी मुझे जीवन में स्थितियों का लाभ उठाकर भविष्य संवारने का मौका देगी।.. ..मेरी आज की जागृति आगे चलकर रक्षाहीनता में बदल जाएगी। मुझे अपने विचारों का पक्ष लेने की कोई जरूरत नहीं पडेगी। अपने विचारों को दूसरों पर थोपने की जरूरत भी महसूस नहीं होगी । मैं सभी विचारों के लिए अपने आपको स्वतंत्र रखूंगा ताकि एक विचार से बंधा नहीं रहूं। ..


पांचवा नियम:

सफलता का पांचवां आध्यात्मिक नियम “उद्देश्य और इच्छा का नियम” बताया गया है। यह नियम इस तथ्य पर आधारित है कि प्रकृति में ऊर्जा और ज्ञान हर जगह विद्यमान है। सत्य तो यह है कि क्वांटम क्षेत्र में ऊर्जा और ज्ञान के अलावा और कुछ है ही नहीं। यह क्षेत्र विशुद्ध चेतना और सामर्थ्य का ही दूसरा रूप है. जो उद्देश्य और इच्छा से प्रभावित रहता है।

ऋग्वेद में उल्लेख है.. प्रारंभ में सिर्फ इच्छा ही थी जो मस्तिष्क का प्रथम बीज थी। मुनियों ने अपने मन पर ध्यान केन्द्रित किया और उन्हें अर्न्तज्ञान प्राप्त हुआ कि प्रकट और अप्रकट एक ही है। उद्देश्य और इच्छा के नियम का पालन करने के लिए व्यक्ति को इन बातों पर ध्यान देना होगा.. उसे अपनी सभी इच्छाओं को त्यागकर उन्हें रचना के गर्त के हवाले करना होगा और विश्वास कायम रखना होगा कि यदि इच्छा पूरी नहीं होती है तो उसके पीछे भी कोई उचित कारण होगा । हो सकता है कि प्रकृति ने उसके लिए इससे भी अधिक कुछ सोच रखा हो। व्यक्ति को अपने प्रत्येक कर्म में वर्तमान के प्रति सतर्कता का अभ्यास करना होगा और उसे ज्यों का त्यों स्वीकार करना होगा लेकिन उसे साथ ही अपने भविष्य को उपयुक्त इच्छाओं ओर दृढ उद्देश्यों से संवारना होगा।

छठवां नियम:

सफलता का छठा आध्यात्मिक नियम अनासक्ति का नियम है। इस नियम के अनुसार व्यक्ति को भौतिक संसार में कुछ भी प्राप्त करने के लिए वस्तुओं के प्रति मोह त्यागना होगा। लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं है कि वह अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए अपने उद्देश्यों को ही छोड दे । उसे केवल परिणाम के प्रति मोह को त्यागना है। व्यक्ति जैसे ही परिणाम के प्रति मोह छोड देता है. उसी वह अपने एकमात्र उद्देश्य को अनासक्ति से जोड लेता है। तब वह जो कुछ भी चाहता है. उसे स्वयमेव मिल जाता है।

अनासक्ति के नियम का पालन करने के लिए निम्न बातों पर ध्यान देना होगा.. आज मैं अनासक्त रहने का वायदा करता हूं। मैं स्वयं को तथा आसपास के लोगों को पूर्ण रूप से स्वतंत्र रहने की आजादी दूंगा। चीजों को कैसा होना चाहिए. इस विषय पर भी अपनी राय किसी पर थोपूंगा नहीं। मैं जबरदस्ती समस्याओं के समाधान खोजकर नयी समस्याओं को जन्म नहीं दूंगा। मैं चीजों को अनासक्त भाव से लूंगा। सब कुछ जितना अनिश्चित होगा. मैं उतना ही अधिक सुरक्षित महसूस करूंगा क्योंकि अनिश्चितता ही मेरे लिए स्वतंत्रता का मार्ग सिद्ध होगी। अनिश्चितता को समझते हुए मैं अपनी सुरक्षा की खोज करूंगा।..


सातवां नियम:


सफलता का सातवां आध्यात्मिक नियम. धर्म का नियम. है। संस्कृत में धर्म का शाब्दिक अर्थ..जीवन का उद्देश्य बताया गया है। धर्म या जीवन के उद्देश्य का जीवन में आसानी से पालन करने के लिए व्यक्ति को इन विचारों पर ध्यान देना होगा.. ..मैं अपनी असाधारण योग्यताओं की सूची तैयार करूंगा और फिर इस असाधारण योग्यता को व्यक्त करने के लिए किए जाने वाले उपायों की भी सूची बनाऊंगा। अपनी योग्यता को पहचानकर उसका इस्तेमाल मानव कल्याण के लिए करूंगा और समय की सीमा से परे होकर अपने जीवन के साथ दूसरों के जीवन को भी सुख.समृद्धि से भर दूंगा। हर दिन खुद से पूछूंगा..मैं दूसरों का सहायक कैसे बनूं और किस प्रकार मैं दूसरों की सहायता कर सकता हूं। इन प्रश्नों के उत्तरों की सहायता से मैं मानव मात्र की प्रेमपूर्वक सेवा करूंगा।..

यादें .....

अपनी यादें अपनी बातें लेकर जाना भूल गए  जाने वाले जल्दी में मिलकर जाना भूल गए  मुड़ मुड़ कर पीछे देखा था जाते ...