15 मई, 2012

12 Jyotirlingas in INDIA

सौराष्ट्रे सोमनाथंच श्री शैले मल्लिकार्जुनम् ।
उज्जयिन्यां महाकालमोंकारममल ेश्वरम् ॥

केदारे हिगवत्पृष्ठे डाकिन्यां भीमशंकरम् ।
वाराणस्यांच विश्वेशं त्र्यम्बंक गौतमी तटे ॥

वैद्यनाथं चिताभूमौ नागेशं दारुकावने ।
सेतुबन्धे च रामेशं घृष्णेशंच शिवालये ॥

एतानि ज्योतिर्लिंगानि प्रातरुत्थाय य: पठेत् ।
जन्मान्तर कृत पापं स्मरणेन विनश्यति ॥

A Jyotirlinga or Jyotirling or Jyotirlingam is a shrine where Lord Shiva, an aspect of God in Hinduism is worshipped in the form of a Jyotirlingam or "Lingam of light." There are twelve traditional Jyotirlinga shrines in Indiamarker.
नमामीशमीशान निर्वाणरूपं। विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपं।
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं। चिदाकाशमाकाशवासं भजे5हं॥

निराकारमोंकारमूलं तुरीयं। गिरा ग्यान गोतीतमीशं गिरीशं।
करालं महाकाल कालं कृपालं। गुणागार संसारपारं नतो5हं॥

चलत्कुण्डलं भ्रू सुनेत्रं विशालं। प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालं।
मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं। प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि॥
It is believed that Lord Shiva first manifested himself as a Jyotirlinga on the night of the Aridra Nakshatra, thus the special reverence for the Jyotirlinga. There is nothing to distinguish the appearance, but it is believed that a person can see these lingas as columns of fire piercing through the earth after he reaches a higher level of spiritual attainment.
सौराष्ट्रे सोमनाथंच श्री शैले मल्लिकार्जुनम् ।
उज्जयिन्यां महाकालमोंकारममलेश्वरम् ॥
केदारे हिगवत्पृष्ठे डाकिन्यां भीमशंकरम् ।
वाराणस्यांच विश्वेशं त्र्यम्बंक गौतमी तटे ॥
...
वैद्यनाथं चिताभूमौ नागेशं दारुकावने ।
सेतुबन्धे च रामेशं घृष्णेशंच शिवालये ॥
एतानि ज्योतिर्लिंगानि प्रातरुत्थाय य: पठेत् ।
जन्मान्तर कृत पापं स्मरणेन विनश्यति ॥
The twelve jyothirlinga :The names and the locations of the 12 Jyotirlingas are mentioned in the Shiva Purana ( ,Ch.42/2-4). These shrines are:

1.   Somnath in Gujarat,
2.    Mallikarjuna at Srisailam in Andra Pradesh,
3.   Mahakaleswar at Ujjain in Madhya Pradesh,
4.   Omkareshwar in Madhya Pradesh,
5.    Kedarnath in Himalayas,
6.   Bhimashankar in Maharastra,
7.   Viswanath at Varanasi in Uttar Pradesh,
8.   Triambakeshwar in Maharastra,
9.   Vaidyanath at Deogarh in Jharkand,
10.  Nageswar at Dwarka in Gujarat,
11.  Rameshwar at Rameswaram in Tamil Nadu
12.  Grishneshwar at Aurangabad in Maharastra.

1.      12 Jyotirlinga and 12 Moon sign Relation

Various mythological saga can be found in ancient Purans and Granths about lord Shiva. There are many stories about Maha Shivaratri. Like Trishul, Damaru etc and lord Shiva is linked with 9 planets, similarly the 12 Jyotirlingas are related to the 12 Moon signs. They are as follows:
Jyotirlinga Moonsign
1. Somnath-                                                       Aries
2.Mallikarjuna   Shrishailam                           Taurus
3.Mahakalaswar                                              Gemini
4.Omkareshwar                                               Cancer
5.BaidyanathDham                                         Leo
6.BhimaShanker                                              Virgo
7.Rameshwaram                                             Libra
8.Nageshwar                                                   Scorpio
9.Vishwanath                                                   Sagittarius
10.Trimbakeshwar                                         Capricorn
11.Kedarnath                                                  Aquarius
12.Gurumeshwar                                            Pisces
1.    Somnath marker, destroyed and re-built six times, is held in reverence throughout India and is rich in legend, tradition, and history. It is located at Prabhas Patan in Saurashtramarker in Gujaratmarker.
 ये पूरा जगत शिवमय है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि क्यों होती है शिवलिंग की पूजा। क्या आप सही मायने में शिवलिंग का रहस्य जानते हैं। शिव का असली स्वरूप क्या है। क्यों शिव ही इस जगत के आधार हैं।
क्या हुआ था जब पहली बार विधाता ने इस सृष्टि की रच

ना शुरू की थी। दरअसल शिव के ज्योतिर्लिंगों से जुड़ा है सृष्टि का सारा रहस्य। हर ज्योतिर्लिंग से जुड़ी है मनोरथ और सिद्धि के तमाम सीढ़ियां।
लेकिन पहले जानते हैं शिव कौन हैं। कैसे धारण करते हैं वो इस जगत को। कैसे देवी भगवती शक्ति बनकर हमेशा उनके साथ रहती हैं।
एक राजा थे उनकी सत्ताईस कन्याएं थीं। उनकी शादी होती है। लेकिन एक कन्या की वजह से सारी कहानी बदल जाती है। उस कन्या का प्यार कैसे चंद्रमा के लिए शाप का विषय बनता है। और फिर कैसे पैदा होता है शिव का पहला ज्योतिर्लिंग।
देश में शिव के जो बारह ज्योतिर्लिंग है उनके बारे में मान्यता है कि अगर सुबह उठकर सिर्फ एक बार भी बारहों ज्योतिर्लिंगों का नाम ले लिया जाए तो सारा काम हो जाता है।
सोमनाथ का ज्योतिर्लिंग इस धरती का पहला ज्योतिर्लिंग है। इस ज्योतिर्लिंग की महिमा बड़ी विचित्र है। शिव पुराण की कथा के हिसाब से प्राचीन काल में राजा दक्ष ने अश्विनी समेत अपनी सत्ताईस कन्याओं की शादी चंद्रमा से की थी।
सत्ताईस कन्याओं का पति बन के चंद्रमा बेहद खुश हुए। कन्याएं भी चंद्रमा को वर के रूप में पाकर अति प्रसन्न थीं। लेकिन ये प्रसन्नता ज्यादा दिनों तक कायम नहीं रह सकी। क्योंकि कुछ दिनों के बाद चंद्रमा उनमें से एक रोहिणी पर ज्यादा मोहित हो गए।
ये बात जब राजा दक्ष को पता चली तो वो चंद्रमा को समझाने गए। चंद्रमा ने उनकी बातें सुनीं, लेकिन कुछ दिनों के बाद फिर रोहिणी पर उनकी आसक्ति और तेज हो गई।
जब राजा दक्ष को ये बात फिर पता चली तो वो गुस्से में चंद्रमा के पास गए। उनसे कहा कि मैं तुमको पहले भी समझा चुका हूं। लेकिन लगता है तुम पर मेरी बात का असर नहीं होने वाला। इसलिए मैं तुम्हें शाप देता हूं कि तुम क्षय रोग के मरीज हो जाओ।
राजा दक्ष के इस श्राप के तुरंत बाद चंद्रमा क्षय रोग से ग्रस्त होकर धूमिल हो गए। उनकी रौशनी जाती रही। ये देखकर ऋषि मुनि बहुत परेशान हुए। इसके बाद सारे ऋषि मुनि और देवता इंद्र के साथ भगवान ब्रह्मा की शरण में गए।
फिर ब्रह्मा जी ने उन्हें एक उपाय बताया। उपाय के हिसाब से चंद्रमा को सोमनाथ के इसी जगह पर आना था। भगवान शिव का तप करना था और उसके बाद ब्रह्मा जी के हिसाब से भगवान शिव के प्रकट होने के बाद वो दक्ष के शाप से मुक्त हो सकते थे।
इस जगह पर चंद्रमा आए। भगवान वृषभध्वज का महामृत्युंजय मंत्र से पूजन किया।
फिर छह महीने तक शिव की कठोर तपस्या करते रहे। चंद्रमा की कठोर तपस्या को देखकर भगवान शिव खुश हुए। उनके सामने आए और वर मांगने को कहा।
चंद्रमा ने वर मांगा कि हे भगवन अगर आप खुश हैं तो मुझे इस क्षय रोग से मुक्ति दीजिए और मेरे सारे अपराधों को क्षमा कर दीजिए।
भगवान शिव ने कहा कि तुम्हें जिसने शाप दिया है वो भी कोई साधारण व्यक्ति नहीं है। लेकिन मैं तुम्हारे लिए कुछ करूंगा जरूर। इसके बाद भगवान शिव ने चंद्रमा के साथ जो किया उसे देखकर चंद्रमा न ज्यादा खुश हो सके और न ही उदास रह सके। लेकिन शिव ने ऐसा किया क्या।
चंद्रमा की तपस्या से भगवान शिव प्रसन्न थे। उन्हें वर देना चाहते थे लेकिन संकट देखिए। जिन्होंने चंद्रमा को श्राप दिया है वो भी कोई साधारण हस्ती नहीं थे। असमंजस था ऐसा असमंजस जिसमें भगवान शिव भी पड़ गए थे।
खैर, शिव एक रास्ता निकालते हैं। चंद्रमा से कहते हैं कि मैं तुम्हारे लिए ये कर सकता हूं एक माह में जो दो पक्ष होते हैं, उसमें से एक पक्ष में तुम निखरते जाओगे। लेकिन दूसरे पक्ष में तुम क्षीण भी होओगे। ये पौराणिक राज है चंद्रमा के शुक्ल और कृष्ण पक्ष का जिसमें एक पक्ष में वो बढ़ते हैं और दूसरे में वो घटते जाते हैं।
भगवान शिव के इस वर से भी चंद्रमा काफी खुश हो गए। उन्होंने भगवान शिव का आभार प्रकट किया उनकी स्तुति की।
यहां पर एक बड़ा अच्छा रहस्य है। अगर आप साकार और निराकर शिव का रहस्य जानते हैं तो आप इसे समझ जाएंगे, क्योंकि चंद्रमा की स्तुति के बाद इसी जगह पर भगवान शिव निराकार से साकार हो गए थे। और साकार होते ही देवताओं ने उन्हें यहां सोमेश्वर भगवान के रूप में मान लिया। यहां से भगवान शिव तीनों लोकों में सोमनाथ के नाम से विख्यात हुए।
जब शिव सोमनाथ के रूप में यहां स्थापित हो गए तो देवताओं ने उनकी तो पूजा की ही, चंद्रमा को भी नमस्कार किया। क्योंकि चंद्रमा की वजह से ही शिव का ये स्वरूप इस जगह पर मौजूद है।
समय गुजरा। इस जगह की पवित्रता बढ़ती गई। शिव पुराण में कथा है कि जब शिव सोमनाथ के रूप में यहां निवास करने लगे तो देवताओं ने यहां एक कुंड की स्थापना की। उस कुंड का नाम रखा गया सोमनाथ कुंड।
कहते हैं कि कुंड में भगवान शिव और ब्रह्मा का साक्षात निवास है। इसलिए जो भी उस कुंड में स्नान करता है, उसके सारे पाप धुल जाते हैं। उसे हर तरह के रोगों से निजात मिल जाता है।
शिव पुराण में लिखा है कि असाध्य से असाध्य रोग भी कुंड में स्नान करने के बाद खत्म हो जाता है। लेकिन एक विधि है जिसको मानना पड़ता है। अगर कोई व्यक्ति क्षय रोग से ग्रसित है तो उसे उस कुंड में लगातार छह माह तक स्नान करना होगा। ये महिमा है सोमनाथ की।
शिव पुराण में ये भी लिखा है कि अगर किसी वजह से आप सोमनाथ के दर्शन नहीं कर पाते हैं तो सोमनाथ की उत्पति की कथा सुनकर भी आप वही पौराणिक लाभ उठा सकते हैं।
इस तीर्थ पर और भी तमाम मुरादें हैं जिन्हें पूरा किया जा सकता है। क्योंकि ये तीर्थ बारह ज्योतिर्लिंगों में से सबसे महत्वपूर्ण है।
धरती का सबसे पहला ज्योतिर्लिंग सौराष्ट्र में काठियावाड़ नाम की जगह पर स्थित है। इस मंदिर में जो सोमनाथ देव हैं उनकी पूजा पंचामृत से की जाती है। कहा जाता है कि जब चंद्रमा को शिव ने शाप मुक्त किया तो उन्होंने जिस विधि से साकार शिव की पूजा की थी, उसी विधि से आज भी सोमनाथ की पूजा होती है।
यहां जाने वाले जातक अगर दो सोमवार भी शिव की पूजा को देख लेते हैं तो उनके सारे मनोरथ पूरे हो जाते हैं। अगर आप सावन की पूर्णिमा में कोई मनोरथ लेकर आते हैं तो भरोसा रखिए उसके पूरा होने में कोई विलंब नहीं होगा।
अगर आप शिवरात्रि की रात यहां महामृत्युंजय मंत्र का महज एक सौ आठ बार भी जाप कर देते हैं तो वो सारी चीजें आपको हासिल हो सकती जिसके लिए आप परेशान हैं।
ये है इस धरती के सबसे पहले ज्योतिर्लिंग की महिमा। शिव पुराण में ये कथा महर्षि सूरत जी ने दूसरे ऋषियों को सुनाई है। जो जातक इस कथा को ध्यान से सुनते हैं या फिर सुनाते हैं उनपर चंद्रमा और शिव दोनों की कृपा होती है। चंद्रमा शीतलता के वाहक हैं। उनके खुश होने से इंसान मानसिक तनाव से दूर होता है। और शिव इस जगत के सार हैं। उनके खुश होने से जीवन के सारे मकसद पूरे हो जाते हैं।


 


2.   Mallikarjuna , also called marker, is the name of the pillar located on a mountain on the river Krishna. Srisailam, near Kurnoolmarker in Andhra Pradeshmarker enshrines Mallikarjuna in an ancient temple that is architecturally and sculpturally rich. Adi Shankara composed his Sivananda Lahiri here.
 श्री मल्लिकार्जुन:-
आंध्रप्रदेश में कृष्णा नदी के तट पर दक्षिण का कैलास कहे जाने वाले श्रीशैलपर्वत पर श्रीमल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग स्थित है। महाभारत, शिवपुराण तथा पद्मपुराण आदि धर्मग्रंथों में इसकी महिमा और महत्ता का विस्तार से वर्णन किया

गया है।

पुराणों में इस ज्योतिर्लिंग की कथा इस प्रकार से वर्णन है। एक समय की बात है, भगवान शंकरजी के दोनों पुत्र श्रीगणेश और श्रीकार्त्तिकेय स्वामी विवाह के लिए परस्पर झगड़ने लगे। प्रत्येक का आग्रह था कि पहले मेरा विवाह किया जाए।

उन्हें लड़ते-झगड़ते देखकर भगवान्‌ शंकर और माँ भवानी ने कहा- तुम लोगों में से जो पहले पूरी पृथ्वी का चक्कर लगाकर यहाँ वापस लौट आएगा उसी का विवाह पहले किया जाएगा।' माता-पिता की यह बात सुनकर श्रीकार्त्तिकेय स्वामी तो अपने वाहन मयूर पर विराजित हो तुरंत पृथ्वी-प्रदक्षिणा के लिए दौड़ पड़े। लेकन गणेशजी के लिए तो यह कार्य बड़ा ही कठिन था। एक तो उनकी काया स्थूल थी, दूसरे उनका वाहन भी मूषक-चूहा था। भला, वे दौड़ में स्वामी कार्त्तिकेय की बराबरी किस प्रकार कर पाते?

लेकिन उनकी काया जितनी स्थूल थी बुद्धि उसी के अनुपात में सूक्ष्म और तीक्ष्ण थी। उन्होंने अविलंब पृथ्वी की परिक्रमा का एक सुगम उपाय खोज निकाला सामने बैठे माता-पिता का पूजन करने के पश्चात उनकी सात प्रदक्षिणाएँ करके उन्होंने पृथ्वी-प्रदक्षिणा का कार्य पूरा कर लिया। उनका यह कार्य शास्त्रानुमोदित था-

पित्रोश्च पूजनं कृत्वा प्रक्रान्तिं च करोति यः ।
तस्य वै पृथिवीजन्यं फलं भवति निश्चितम्‌ ॥
पूरी पृथ्वी का चक्कर लगाकर स्वामी कार्त्तिकेय जब तक लौटे तब तक गणेशजी का 'सिद्धि' और 'बुद्धि' नाम वाली दो कन्याओं के साथ विवाह हो चुका था और उन्हें 'क्षेम' तथा 'लाभ' नामक दो पुत्र भी प्राप्त हो चुके थे। यह सब देखकर स्वामी कार्त्तिकेय अत्यंत रुष्ट होकर क्रौञ्च(श्री शैलम्) पर्वत पर चले गए। माता पार्वती वहाँ उन्हें मनाने पहुँचीं। पीछे शंकर भगवान्‌ वहाँ पहुँचकर ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट हुए और तब से मल्लिकार्जुन-ज्योतिर्लिंग के नाम से प्रख्यात हुए। इनकी अर्चना सर्वप्रथम मल्लिका-पुष्पों से की गई थी। मल्लिकार्जुन नाम पड़ने का यही कारण है।
एक दूसरी कथा यह भी कही जाती है- इस शैल पर्वत के निकट किसी समय राजा चंद्रगुप्त की राजधानी थी। किसी विपत्ति विशेष के निवारणार्थ उनकी एक कन्या महल से निकलकर इस पर्वतराज के आश्रम में आकर यहाँ के गोपों के साथ रहने लगी। उस कन्या के पास एक बड़ी ही शुभ लक्षरा सुंदर श्यामा गौ थी। उस गौ का दूध रात में कोई चोरी से दुह ले जाता था। एक दिन संयोगवश उस राजकन्या ने चोर को दूध दुहते देख लिया और क्रुद्ध होकर उस चोर की ओर दौड़ी, किंतु गौ के पास पहुँचकर उसने देखा कि वहाँ शिवलिंग के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। राजकुमारी ने कुछ समय पश्चात उस शिवलिंग पर एक विशाल मंदिर का निर्माण कराया। यही शिवलिंग मल्लिकार्जुन के नाम से प्रसिद्ध है। शिवरात्रि के पर्व पर यहाँ बहुत बड़ा मेला लगता है।
इसी पहाड़ी पर पार्वती भ्रमराम्बा देवी के रूप में प्रकट हुईं।
रावण का वध करने के बाद राम और सीता ने भी मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग के दर्शन किए थे। द्वापर युग में युधिष्ठिर, अर्जुन, भीम, नकुल और सहदेव ने इनकी पूजा-अर्चना की थी। राक्षसों का राजा हिरण्यकश्यप भी इनकी पूजा करता था। कालांतर में सातवाहन, वाकाटक, काकातिय और विजयनगर के राजा श्रीकृष्णदेव राय आदि राजाओं ने मंदिर पुनर्निमाण कर इसका वैभव बढ़ाया। बाद के वर्षों में मराठा शासक शिवाजी द्वारा भी मंदिर के गोपुरम का निर्माण कराया। धर्मग्रन्थों में यह महिमा बताई गई है कि श्री शैल शिखर के दर्शन मात्र से मनुष्य सब कष्ट दूर हो जाते हैं और अपार सुख प्राप्त कर जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति मिलती है|दैहिक, दैविक, भौतिक सभी प्रकार की बाधाओं से वे मुक्त हो जाते हैं अर्थात् मोक्ष प्राप्त होता है।



  3.  Mahakal, Ujjainmarker (or Avanti) in Madhya Pradeshmarker is home to the Mahakaleshwar Jyotirlinga temple. The Lingam at Mahakal is believed to be Swayambhu, the only one of the 12 Jyotirlingams to be so. It is also the only one facing south and also the temple to have a Shree Yantra perched upside down at the ceiling of the Garbhagriha (where the Shiv Lingam sits).
 श्री महाकालेश्वर:-
भगवान शिव का यह तीसरा ज्योतिर्लिंङ्ग मध्यप्रदेश के उज्जैन नगर में है।पुण्यसलिला क्षिप्रा नदी के तट पर स्थित उज्जैन प्राचीनकाल में उज्जयिनी के नाम से विख्यात था, इसे अवन्तिकापुरी भी कहते थे। यह भारत की परम पवित्र सप्तपुरिय

ों में से एक है। महाभारत, शिवपुराण एवं स्कन्दपुराण में महाकाल ज्योतिर्लिंग की महिमा का पूरे विस्तार के साथ वर्णन किया गया है।
इस ज्योतिर्लिंग की कथा पुराणों में इस प्रकार वर्णित है- प्राचीनकाल में उज्जयिनी में राजा चंद्रसेन राज्य करते थे। वह परम शिव-भक्त थे। एक दिन श्रीकर नामक एक पाँच वर्ष का गोप-बालक अपनी माँ के साथ उधर से गुजर रहा था। राजा का शिवपूजन देखकर उसे बहुत विस्मय और कौतूहल हुआ। वह स्वयं उसी प्रकार की सामग्रियों से शिवपूजन करने के लिए लालायित हो उठा।
सामग्री का साधन न जुट पाने पर लौटते समय उसने रास्ते से एक पत्थर का टुकड़ा उठा लिया। घर आकर उसी पत्थर को शिव रूप में स्थापित कर पुष्प, चंदन आदि से परम श्रद्धापूर्वक उसकी पूजा करने लगा। माता भोजन करने के लिए बुलाने आई, किंतु वह पूजा छोड़कर उठने के लिए किसी भी प्रकार तैयार नहीं हुआ। अंत में माता ने झल्लाकर पत्थर का वह टुकड़ा उठाकर दूर फेंक दिया। इससे बहुत ही दुःखी होकर वह बालक जोर-जोर से भगवान्‌ शिव को पुकारता हुआ रोने लगा। रोते-रोते अंत में बेहोश होकर वह वहीं गिर पड़ा।
बालक की अपने प्रति यह भक्ति और प्रेम देखक भोलेनाथ भगवान्‌ शिव अत्यंत प्रसन्न हो गए। बालक ने जैसे ही होश में आकर अपने नेत्र खोले तो उसने देखा कि उसके सामने एक बहुत ही भव्य और अतिविशाल स्वर्ण और रत्नों से बना हुआ मंदिर खड़ा है। उस मंदिर के अंदर एक बहुत ही प्रकाशपूर्ण, भास्वर, तेजस्वी ज्योतिर्लिंग खड़ा है। बच्चा प्रसन्नता और आनंद से विभोर होकर भगवान्‌ शिव की स्तुति करने लगा।
माता को जब यह समाचार मिला तब दौड़कर उसने अपने प्यारे लाल को गले से लगा लिया। पीछे राजा चंद्रसेन ने भी वहाँ पहुँचकर उस बच्चे की भक्ति और सिद्धि की बड़ी सराहना की। धीरे-धीरे वहाँ बड़ी भीड़ जुट गई। इतने में उस स्थान पर हनुमानजी प्रकट हो गए। उन्होंने कहा- 'मनुष्यों! भगवान शंकर शीघ्र फल देने वाले देवताओं में सर्वप्रथम हैं। इस बालक की भक्ति से प्रसन्न होकर उन्होंने इसे ऐसा फल प्रदान किया है, जो बड़े-बड़े ऋषि-मुनि करोड़ों जन्मों की तपस्या से भी प्राप्त नहीं कर पाते।
इस गोप-बालक की आठवीं पीढ़ी में धर्मात्मा नंदगोप का जन्म होगा। द्वापरयुग में भगवान्‌ विष्णु कृष्णावतार लेकर उनके वहाँ तरह-तरह की लीलाएँ करेंगे।' हनुमान्‌जी इतना कहकर अंतर्धान हो गए। उस स्थान पर नियम से भगवान शिव की आराधना करते हुए अंत में श्रीकर गोप और राजा चंद्रसेन शिवधाम को चले गए।
इस ज्योतिर्लिंग के विषय में एक दूसरी कथा इस प्रकार कही जाती है- किसी समय अवन्तिकापुरी में वेदपाठी तपोनिष्ठ एक अत्यंत तेजस्वी ब्राह्मण रहते थे। एक दिन दूषण नामक एक अत्याचारी असुर उनकी तपस्या में विघ्न डालने के लिए वहाँ आया। ब्रह्माजी से वर प्राप्तकर वह बहुत शक्तिशाली हो गया था। उसके अत्याचार से चारों ओर त्राहि-त्राहि मची हुई थी। ब्राह्मण को कष्ट में पड़ा देखकर प्राणिमात्र का कल्याण करने वाले भगवान शंकर वहाँ प्रकट हो गए। उन्होंने एक हुँकार मात्र से उस दारुण अत्याचारी दानव को वहीं जलाकर भस्म कर दिया। भगवान्‌ वहाँ हुँकार सहित प्रकट हुए इसीलिए उनका नाम महाकाल पड़ गया। इसीलिए परम पवित्र ज्योतिर्लिंग को 'महाकाल' के नाम से जाना जाता है।

महाकालेश्वर एकमात्र ऐसा ज्योतिर्लिंङ्ग हैं जहां प्रतिदिन प्रात: चार बजे भस्म से आरती होती है। इसे भस्मार्ती कहते हैं। मान्यता है कभी श्मशान की चिता की भस्म भगवान को चढ़ाई जाती थी। इसके बाद जो आरती होती थी वह भस्मार्ती के रूप में विश्व प्रसिद्ध हुई। आजकल गाय के गोबर से बने कंडे की राख भगवान को भस्म के रूप में आरती के दौरान चढ़ाई जाती है। भस्मार्ती के अलावा मंदिर में प्रात: 10 से 11 बजे तक नैवेद्य आरती, संध्या 5 से 6 बजे तक अभ्यंग शृंगार, संध्या 6 से 7 बजे तक सायं आरती होती है। रात्रि 10.30 बजे से 11 बजे तक शयन आरती होती है। इसके बाद मंदिर के पट बंद हो जाते हैं। भगवान महाकालेश्वर को भक्ति, शक्ति एवं मुक्ति का देव माना जाता है । इसलिए इनके दर्शन मात्र से सभी कामनाओं की पूर्ति एवं मोक्ष प्राप्ति होती है ।
उज्जैन नगर का महत्व :- उज्जैन नगर का पुराणों एवं महाभारत में भी महिमा बताई गई है । यहॉं भगवान श्रीकृष्ण और बलराम ने सांदिपनी आश्रम में शिक्षा ग्रहण की । यहॉं प्रति बारह साल में बृहस्पति के सिंह राशि में आने पर कुम्भ मेला लगता है । जिसे सिंहस्थ मेला नाम से जाना जाता है । यहाँ पुण्य सलिला क्षिप्रा नदी है, जिसका महत्व गंगा के समान बताया गया है ।


 4.   Omkareshwar in Madhya Pradesh on an island in the Narmada rivermarker is home to a Jyotirlinga shrine and the Mamaleshwar temple.
 श्री ओंकारेश्वर:-
यह ज्योतिर्लिंग मध्यप्रदेश में पवित्र नर्मदा नदी के तट पर स्थित है। इस स्थान पर नर्मदा के दो धाराओं में विभक्त हो जाने से बीच में एक टापू-सा बन गया है। इस टापू को मान्धाता-पर्वत या शिवपुरी कहते हैं। नदी की एक धारा इस पर्वत

के उत्तर और दूसरी दक्षिण होकर बहती है।
दक्षिण वाली धारा ही मुख्य धारा मानी जाती है। इसी मान्धाता-पर्वत पर श्री ओंकारेश्वर-ज्योतिर्लिंग का मंदिर स्थित है। पूर्वकाल में महाराज मान्धाता ने इसी पर्वत पर अपनी तपस्या से भगवान्‌ शिव को प्रसन्न किया था। इसी से इस पर्वत को मान्धाता-पर्वत कहा जाने लगा।
इस ज्योतिर्लिंग-मंदिर के भीतर दो कोठरियों से होकर जाना पड़ता है। भीतर अँधेरा रहने के कारण यहाँ निरंतर प्रकाश जलता रहता है। ओंकारेश्वर लिंग मनुष्य निर्मित नहीं है। स्वयं प्रकृति ने इसका निर्माण किया है। इसके चारों ओर हमेशा जल भरा रहता है। संपूर्ण मान्धाता-पर्वत ही भगवान्‌ शिव का रूप माना जाता है। इसी कारण इसे शिवपुरी भी कहते हैं लोग भक्तिपूर्वक इसकी परिक्रमा करते हैं।
कार्त्तिकी पूर्णिमा के दिन यहाँ बहुत भारी मेला लगता है। यहाँ लोग भगवान्‌ शिवजी को चने की दाल चढ़ाते हैं रात्रि की शिव आरती का कार्यक्रम बड़ी भव्यता के साथ होता है। तीर्थयात्रियों को इसके दर्शन अवश्य करने चाहिए।

इस ओंकारेश्वर-ज्योतलिंग के दो स्वरूप हैं। एक को ममलेश्वर के नाम से जाना जाता है। यह नर्मदा के दक्षिण तट पर ओंकारेश्वर से थोड़ी दूर हटकर है पृथक होते हुए भी दोनों की गणना एक ही में की जाती है।

लिंग के दो स्वरूप होने की कथा पुराणों में इस प्रकार दी गई है- एक बार विन्ध्यपर्वत ने पार्थिव-अर्चना के साथ भगवान्‌ शिव की छः मास तक कठिन उपासना की। उनकी इस उपासना से प्रसन्न होकर भूतभावन शंकरजी वहाँ प्रकट हुए। उन्होंने विन्ध्य को उनके मनोवांछित वर प्रदान किए। विन्ध्याचल की इस वर-प्राप्ति के अवसर पर वहाँ बहुत से ऋषिगण और मुनि भी पधारे। उनकी प्रार्थना पर शिवजी ने अपने ओंकारेश्वर नामक लिंग के दो भाग किए। एक का नाम ओंकारेश्वर और दूसरे का अमलेश्वर पड़ा। दोनों लिंगों का स्थान और मंदिर पृथक्‌ होते भी दोनों की सत्ता और स्वरूप एक ही माना गया है।

शिवपुराण में इस ज्योतिर्लिंग की महिमा का विस्तार से वर्णन किया गया है। श्री ओंकारेश्वर और श्री ममलेश्वर के दर्शन का पुण्य बताते हुए नर्मदा-स्नान के पावन फल का भी वर्णन किया गया है। प्रत्येक मनुष्य को इस क्षेत्र की यात्रा अवश्य ही करनी चाहिए। लौकिक-पारलौकिक दोनों प्रकार के उत्तम फलों की प्राप्ति भगवान्‌ ओंकारेश्वर की कृपा से सहज ही हो जाती है। अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष के सभी साधन उसके लिए सहज ही सुलभ हो जाते हैं। अंततः उसे लोकेश्वर महादेव भगवान्‌ शिव के परमधाम की प्राप्ति भी हो जाती है।

भगवान्‌ शिव तो भक्तों पर अकारण ही कृपा करने वाले हैं। फिर जो लोग यहाँ आकर उनके दर्शन करते हैं, उनके सौभाग्य के विषय में कहना ही क्या है? उनके लिए तो सभी प्रकार के उत्तम पुण्य-मार्ग सदा-सदा के लिए खुल जाते हैं।




5. Vaidyanath jyotirlinga temple also called Baidyanth Temple is in the Santhal Parganas division of the state of Jharkhand.It is the only place in India where the jyotirlinga and the saktipeeth are together. They lay side by side. Baijnath Shivdham in Kangara Himachal Pradesh also claimed as Jyotirlinga of Vaidyanath also associated with Ravana.

 श्री वैद्यनाथ:-
भगवान श्री वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग का मन्दिर जिस स्थान पर अवस्थित है, उसे वैद्यनाथधाम कहा जाता है. यह स्थान झारखण्ड के सन्थाल परगना के दुमका नामक जनपद में पड़ता है.
पुराणों में ‘परल्यां वैद्यनाथं च’ ऐसा उल्लेख मिलता है, जिसके

आधार पर कुछ लोग वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग का स्थान 'परलीग्राम' को बताते हैं. 'परलीग्राम' निज़ाम हैदराबाद क्षेत्र के अंतर्गत पड़ता है. हैदराबाद शहर से जो रेलमार्ग परभणी जंक्शन की ओर जाता है, उस परभनी जंक्शन से परली स्टेशन के लिए रेल की एक उपशाखा जाती है. इसी परली स्टेशन से थोड़ी ही दूरी पर परलीग्राम है, जिसके पास ही ‘श्री वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग अवस्थित है. यहाँ का मन्दिर अत्यन्त पुराना है, जिसका जीर्णोद्धार रानी अहिल्याबाई ने कराया था. यह मन्दिर एक पहाड़ी के ऊपर निर्मित है. पहाड़ी से नीचे एक छोटी नदी भी बहती है तथा एक छोटा-सा शिवकुण्ड भी है. पहाड़ी के ऊपर जाने के लिए सीढ़ियाँ बनाई गई हैं. लोगों की मान्यता है कि परली ग्राम के पास स्थित वैद्यनाथ ही वास्तविक वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग है.
शिव पुराण के अनुसार
मान्य ग्रन्थ प्राचीन शिव पुराण के अनुसार झारखण्ड प्रान्त के जसीडीह रेलवे स्टेशन के समीप स्थित देवघर का श्री वैद्यनाथ शिवलिंग ही वास्तविक वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग है–
वैद्यनाथावतारो हि नवमस्तत्र कीर्तित:.
आविर्भूतो रावणार्थं बहुलीलाकर: प्रभु:..
तदानयनरूपं हि व्याजं कृत्वा महेश्वर:.
ज्योतिर्लिंगस्वरूपेण चिताभूमौ प्रतिष्ठित:..
वैद्यनाथेश्वरो नाम्ना प्रसिद्धोऽभूज्जगत्त्रये.
दर्शनात्पूजनाद्भभक्या भुक्तिमुक्तिप्रद: स हि..[1]
श्री शिव महापुराण के उपर्युक्त द्वादश ज्योतिर्लिंग की गणना के क्रम मे श्री वैद्यनाथ को नौवां ज्योतिर्लिंग बताया गया है. स्थान का संकेत करते हुए लिखा गया है कि ‘चिताभूमौ प्रतिष्ठित:’. इसके अतिरिक्त अन्य स्थानों पर भी ‘वैद्यनाथं चिताभूमौ’ ऐसा लिखा गया है. ‘चिताभूमौ’ शब्द का विश्लेषण करने पर परली के वैद्यनाथ द्वादश ज्योतिर्लिंगों में नहीं आते हैं, इसलिए उन्हें वास्तविक वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग मानना उचित नहीं है. सन्थाल परगना जनपद के जसीडीह रेलवे स्टेशन के समीप देवघर पर स्थित स्थान को 'चिताभूमि' कहा गया है. जिस समय भगवान शंकर सती के शव को अपने कन्धे पर रखकर इधर-उधर उन्मत्त की तरह घूम रहे थे, उसी समय इस स्थान पर सती का हृत्पिण्ड अर्थात हृदय भाग गलकर गिर गया था. भगवान शंकर ने सती के उस हृत्पिण्ड का दाह-संस्कार उक्त स्थान पर किया था, जिसके कारण इसका नाम ‘चिताभूमि’ पड़ गया. श्री शिव पुराण में एक निम्नलिखित श्लोक भी आता है, जिससे वैद्यनाथ का उक्त चिताभूमि में स्थान माना जाता है.
प्रत्यक्षं तं तदा दृष्टवा प्रतिष्ठाप्य च ते सुरा:.
वैद्यनाथेति सम्प्रोच्य नत्वा नत्वा दिवं ययु:..
अर्थात ‘देवताओं ने भगवान का प्रत्यक्ष दर्शन किया और उसके बाद उनके लिंग की प्रतिष्ठा की. देवगण उस लिंग को ‘वैद्यनाथ’ नाम देकर, उसे नमस्कार करते हुए स्वर्गलोक को चले गये.’
वैद्यनाथ लिंग की स्थापना के सम्बन्ध में लिखा है कि एक बार राक्षसराज रावण ने हिमालय पर स्थिर होकर भगवान शिव की घोर तपस्या की. उस राक्षस ने अपना एक-एक सिर काट-काटकर शिवलिंग पर चढ़ा दिये. इस प्रकिया में उसने अपने नौ सिर चढ़ा दिया तथा दसवें सिर को काटने के लिए जब वह उद्यत (तैयार) हुआ, तब तक भगवान शंकर प्रसन्न हो उठे. प्रकट होकर भगवान शिव ने रावण के दसों सिरों को पहले की ही भाँति कर दिया. उन्होंने रावण से वर माँगने के लिए कहा. रावण ने भगवान शिव से कहा कि मुझे इस शिवलिंग को ले जाकर लंका में स्थापित करने की अनुमति प्रदान करें. शंकरजी ने रावण को इस प्रतिबन्ध के साथ अनुमति प्रदान कर दी कि यदि इस लिंग को ले जाते समय रास्ते में धरती पर रखोगे, तो यह वहीं स्थापित (अचल) हो जाएगा. जब रावण शिवलिंग को लेकर चला, तो मार्ग में ‘चिताभूमि’ में ही उसे लघुशंका (पेशाब) करने की प्रवृत्ति हुई. उसने उस लिंग को एक अहीर को पकड़ा दिया और लघुशंका से निवृत्त होने चला गया. इधर शिवलिंग भारी होने के कारण उस अहीर ने उसे भूमि पर रख दिया. वह लिंग वहीं अचल हो गया. वापस आकर रावण ने काफ़ी ज़ोर लगाकर उस शिवलिंग को उखाड़ना चाहा, किन्तु वह असफल रहा. अन्त में वह निराश हो गया और उस शिवलिंग पर अपने अँगूठे को गड़ाकर (अँगूठे से दबाकर) लंका के लिए ख़ाली हाथ ही चल दिया. इधर ब्रह्मा, विष्णु इन्द्र आदि देवताओं ने वहाँ पहुँच कर उस शिवलिंग की विधिवत पूजा की. उन्होंने शिव जी का दर्शन किया और लिंग की प्रतिष्ठा करके स्तुति की. उसके बाद वे स्वर्गलोक को चले गये.
यह वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग मनुष्य को उसकी इच्छा के अनुकूल फल देने वाला है. इस वैद्यनाथ धाम में मन्दिर से थोड़ी ही दूरी पर एक विशाल सरोवर है, जिस पर पक्के घाट बने हुए हैं. भक्तगण इस सरोवर में स्नान करते हैं. यहाँ तीर्थपुरोहितों (पण्डों) के हज़ारों घाट हैं, जिनकी आजीविका मन्दिर से ही चलती है. परम्परा के अनुसार पण्डा लोग एक गहरे कुएँ से जल भरकर ज्योतिर्लिंग को स्नान कराते हैं. अभिषेक के लिए सैकड़ों घड़े जल निकाला जाता हैं. उनकी पूजा काफ़ी लम्बी चलती है. उसके बाद ही आम जनता को दर्शन-पूजन करने का अवसर प्राप्त होता है.
यह ज्योतिर्लिंग रावण के द्वारा दबाये जाने के कारण भूमि में दबा है तथा उसके ऊपरी सिरे में कुछ गड्ढा सा बन गया है. फिर भी इस शिवलिंग मूर्ति की ऊँचाई लगभग ग्यारह अंगुल है. सावन के महीने में यहाँ मेला लगता है और भक्तगण दूर-दूर से काँवर में जल लेकर बाबा वैद्यनाथ धाम (देवघर) आते हैं. वैद्यनाथ धाम में अनेक रोगों से छुटकारा पाने हेतु भी बाबा का दर्शन करने श्रद्धालु आते हैं. ऐसी प्रसिद्धि है कि श्री वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग की लगातार आरती-दर्शन करने से लोगों को रोगों से मुक्ति मिलती है.
कोटि रुद्र संहिता के अनुसार
श्री शिव महापुराण के कोटि रुद्र संहिता में श्री वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग की कथा इस प्रकार लिखी गई है–
राक्षसराज रावण अभिमानी तो था ही, वह अपने अहंकार को भी शीघ्र प्रकट करने वाला था. एक समय वह कैलास पर्वत पर भक्तिभाव पूर्वक भगवान शिव की आराधना कर रहा था. बहुत दिनों तक आराधना करने पर भी जब भगवान शिव उस पर प्रसन्न नहीं हुए, तब वह पुन: दूसरी विधि से तप-साधना करने लगा. उसने सिद्धिस्थल हिमालय पर्वत से दक्षिण की ओर सघन वृक्षों से भरे जंगल में पृथ्वी को खोदकर एक गड्ढा तैयार किया. राक्षस कुल भूषण उस रावण ने गड्ढे में अग्नि की स्थापना करके हवन (आहुतियाँ) प्रारम्भ कर दिया. उसने भगवान शिव को भी वहीं अपने पास ही स्थापित किया था. तप के लिए उसने कठोर संयम-नियम को धारण किया.
वह गर्मी के दिनों में पाँच अग्नियों के बीच में बैठकर पंचाग्नि सेवन करता था, तो वर्षाकाल में खुले मैदान में चबूतरे पर सोता था और शीतकाल (सर्दियों के दिनों में) में आकण्ठ (गले के बराबर) जल के भीतर खड़े होकर साधना करता था. इन तीन विधियों के द्वारा रावण की तपस्या चल रही थी. इतने कठोर तप करने पर भी भगवान महेश्वर उस पर प्रसन्न नहीं हुए. ऐसा कहा जाता है कि दुष्ट आत्माओं द्वारा भगवान को रिझाना बड़ा कठिन होता है. कठिन तपस्या से जब रावण को सिद्धि नहीं प्राप्त हुई, तब रावण अपना एक-एक सिर काटकर शिव जी की पूजा करने लगा. वह शास्त्र विधि से भगवान की पूजा करता और उस पूजन के बाद अपना एक मस्तक काटता तथा भगवान को समर्पित कर देता था. इस प्रकार क्रमश: उसने अपने नौ मस्तक काट डाले. जब वह अपना अन्तिम दसवाँ मस्तक काटना ही चाहता था, तब तक भक्तवत्सल भगवान महेश्वर उस पर सन्तुष्ट और प्रसन्न हो गये. उन्होंने साक्षात प्रकट होकर रावण के सभी मस्तकों को स्वस्थ करते हुए उन्हें पूर्ववत जोड़ दिया.
भगवान ने राक्षसराज रावण को उसकी इच्छा के अनुसार अनुपम बल और पराक्रम प्रदान किया. भगवान शिव का कृपा-प्रसाद ग्रहण करने के बाद नतमस्तक होकर विनम्रभाव से उसने हाथ जोड़कर कहा– ‘देवेश्वर! आप मुझ पर प्रसन्न होइए. मैं आपकी शरण में आया हूँ और आपको लंका में ले चलता हूँ. आप मेरा मनोरथ सिद्ध कीजिए.’ इस प्रकार रावण के कथन को सुनकर भगवान शंकर असमंजस की स्थिति में पड़ गये. उन्होंने उपस्थित धर्मसंकट को टालने के लिए अनमने होकर कहा– ‘राक्षसराज! तुम मेरे इस उत्तम लिंग को भक्तिभावपूर्वक अपनी राजधानी में ले जाओ, किन्तु यह ध्यान रखना- रास्ते में तुम इसे यदि पृथ्वी पर रखोगे, तो यह वहीं अचल हो जाएगा. अब तुम्हारी जैसी इच्छा हो वैसा करो’–
प्रसन्नोभव देवेश लंकां च त्वां नयाम्यहम्.
सफलं कुरू मे कामं त्वामहं शरणं गत:..
इत्युक्तश्च तदा तेन शम्भुर्वै रावणेन स:.
प्रत्युवाच विचेतस्क: संकटं परमं गत:..
श्रूयतां राक्षसश्रेष्ठ वचो मे सारवत्तया.
नीयतां स्वगृहे मे हि सदभक्त्या लिंगमुत्तमम्..
भूमौ लिंगं यदा त्वं च स्थापयिष्यसि यत्र वै.
स्थास्यत्यत्र न सन्देहो यथेच्छसि तथा कुरू..[2]
भगवान शिव द्वारा ऐसा कहने पर ‘बहुत अच्छा’ ऐसा कहता हुआ राक्षसराज रावण उस शिवलिंग को साथ लेकर अपनी राजधानी लंका की ओर चल दिया. भगवान शंकर की मायाशक्ति के प्रभाव से उसे रास्ते में जाते हुए मूत्रोत्सर्ग (पेशाब करने) की प्रबल इच्छा हुई. सामर्थ्यशाली रावण मूत्र के वेग को रोकने में असमर्थ रहा और शिवलिंग को एक ग्वाल के हाथ में पकड़ा कर स्वयं पेशाब करने के लिए बैठ गया. एक मुहूर्त बीतने के बाद वह ग्वाला शिवलिंग के भार से पीड़ित हो उठा और उसने लिंग को पृथ्वी पर रख दिया. पृथ्वी पर रखते ही वह मणिमय शिवलिंग वहीं पृथ्वी में स्थिर हो गया.
जब शिवलिंग लोक-कल्याण की भावना से वहीं स्थिर हो गया, तब निराश होकर रावण अपनी राजधानी की ओर चल दिया. उसने राजधानी में पहुँचकर शिवलिंग की सारी घटना अपनी पत्नी मंदोदरी से बतायी. देवपुर के इन्द्र आदि देवताओं और ऋषियों ने लिंग सम्बन्धी समाचार को सुनकर आपस में परामर्श किया और वहाँ पहुँच गये. भगवान शिव में अटूट भक्ति होने के कारण उन लोगों ने अतिशय प्रसन्नता के साथ शास्त्र विधि से उस लिंग की पूजा की. सभी ने भगवान शंकर का प्रत्यक्ष दर्शन किया–
तस्मिँल्लिंगे स्थिते तत्र सर्वलोकहिताय वै.
रावण: स्वगृहं गत्वा वरं प्राप्य महोत्तमम्..
तच्छुत्वा सकला देवा: शक्राद्या मुनयस्तथा.
परस्परं समामन्त्र्य शिवसक्तधियोऽमला:..
तस्मिन् काले सुरा: सर्वे हरिब्रह्मदयो मुने.
आजग्मुस्तत्र सुप्रीत्या पूजां चक्रुर्विशेषत:..
प्रत्यक्षं तं तदा दृष्टवा प्रतिष्ठाप्य च ते सुरा:.
वैद्यनाथेति संप्रोच्य नत्वा – नत्वा दिवं ययु:..[3]
इस प्रकार रावण की तपस्या के फलस्वरूप श्री वैद्यनाथेश्वर ज्योतिर्लिंग का प्रादुर्भाव हुआ, जिसे देवताओं ने स्वयं प्रतिष्ठित कर पूजन किया. जो मनुष्य श्रद्धा भक्तिपूर्वक भगवान श्री वैद्यनाथ का अभिषेक करता है, उसका शारीरिक और मानसिक रोग अतिशीघ्र नष्ट हो जाता है. इसलिए वैद्यनाथधाम में रोगियों व दर्शनार्थियों की विशेष भीड़ दिखाई पड़ती है.






6.   Bhimashankar marker is very much debated. There is a Bhimashankara temple near Punemarker in Maharastra, which was referred to as Daakini country, Kashipur was also referred to as Daakini country in ancient days. A Bhimashkar Temple is also present there which is also known as Shree Moteshwar Mahadev. Another Bhimashankar is in the Sahyadri range of Maharashtramarker. Bhimshankar temple near Guwahatimarker, Assam is the jyotirlinga according to Sivapuran.

 श्री भीमेश्वर:-
यह ज्योतिर्लिंग पुणे से लगभग 100 किलोमिटर दूर सेह्याद्री की पहाड़ी पर स्थित है। इसे भीमाशंकर भी कहते हैं। इस ज्योतिर्लिंग की स्थापना के विषय में शिवपुराण में यह कथा वर्णित है- प्राचीनकाल में भीम नामक एक महाप्रतापी राक्षस था।

वह कामरूप प्रदेश में अपनी माँ के साथ रहता था। वह महाबली राक्षस, राक्षसराज रावण के छोटे भाई कुंभकर्ण का पुत्र था। लेकिन उसने अपने पिता को कभी देखा न था।

उसके होश संभालने के पूर्व ही भगवान्‌ राम के द्वारा कुंभकर्ण का वध कर दिया गया था। जब वह युवावस्था को प्राप्त हुआ तब उसकी माता ने उससे सारी बातें बताईं। भगवान्‌ विष्णु के अवतार श्रीरामचंद्रजी द्वारा अपने पिता के वध की बात सुनकर वह महाबली राक्षस अत्यंत संतप्त और क्रुद्ध हो उठा। अब वह निरंतर भगवान्‌ श्री हरि के वध का उपाय सोचने लगा।

उसने अपने अभीष्ट की प्राप्ति के लिए एक हजार वर्ष तक कठिन तपस्या की। उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी ने उसे लोक विजयी होने का वर दे दिया। अब तो वह राक्षस ब्रह्माजी के उस वर के प्रभाव से सारे प्राणियों को पीड़ित करने लगा। उसने देवलोक पर आक्रमण करके इंद्र आदि सारे देवताओं को वहाँ से बाहर निकाल दिया।

पूरे देवलोक पर अब भीम का अधिकार हो गया। इसके बाद उसने भगवान्‌ श्रीहरि को भी युद्ध में परास्त किया। श्रीहरि को पराजित करने के पश्चात उसने कामरूप के परम शिवभक्त राजा सुदक्षिण पर आक्रमण करके उन्हें मंत्रियों-अनुचरों सहित बंदी बना लिया। इस प्रकार धीरे-धीरे उसने सारे लोकों पर अपना अधिकार जमा लिया। उसके अत्याचार से वेदों, पुराणों, शास्त्रों और स्मृतियों का सर्वत्र एकदम लोप हो गया। वह किसी को कोई भी धार्मिक कृत्य नहीं करने देता था। इस प्रकार यज्ञ, दान, तप, स्वाध्याय आदि के सारे काम एकदम रूक गए।

भीम के अत्याचार की भीषणता से घबराकर ऋषि-मुनि और देवगण भगवान्‌ शिव की शरण में गए और उनसे अपना तथा अन्य सारे प्राणियों का दुःख कहा। उनकी यह प्रार्थना सुनकर भगवान शिव ने कहा, 'मैं शीघ्र ही उस अत्याचारी राक्षस का संहार करूँगा। उसने मेरे प्रिय भक्त, कामरूप-नरेश सुदक्षिण को भी सेवकों सहित बंदी बना लिया है। वह अत्याचारी असुर अब और अधिक जीवित रहने का अधिकारी नहीं रह गया।' भगवान्‌ शिव से यह आश्वासन पाकर ऋषि-मुनि और देवगण अपने-अपने स्थान को वापस लौट गए।

इधर राक्षस भीम के बंदीगृह में पड़े हुए राजा सदक्षिण ने भगवान्‌ शिव का ध्यान किया। वे अपने सामने पार्थिव शिवलिंग रखकर अर्चना कर रहे थे। उन्हें ऐसा करते देख क्रोधोन्मत्त होकर राक्षस भीम ने अपनी तलवार से उस पार्थिव शिवलिंग पर प्रहार किया। किंतु उसकी तलवार का स्पर्श उस लिंग से हो भी नहीं पाया कि उसके भीतर से साक्षात्‌ शंकरजी वहाँ प्रकट हो गए। उन्होंने अपनी हुँकारमात्र से उस राक्षस को वहीं जलाकर भस्म कर दिया।

भगवान्‌ शिवजी का यह अद्भुत कृत्य देखकर सारे ऋषि-मुनि और देवगण वहाँ एक होकर उनकी स्तुति करने लगे। उन लोगों ने भगवान्‌ शिव से प्रार्थना की कि महादेव! आप लोक-कल्याणार्थ अब सदा के लिए यहीं निवास करें। यह क्षेत्र शास्त्रों में अपवित्र बताया गया है। आपके निवास से यह परम पवित्र पुण्य क्षेत्र बन जाएगा। भगवान्‌ शिव ने सबकी यह प्रार्थना स्वीकार कर ली। वहाँ वह ज्योतिर्लिंग के रूप में सदा के लिए निवास करने लगे। उनका यह ज्योतिर्लिंग भीमेश्वर के नाम से विख्यात हुआ।

शिवपुराण में यह कथा पूरे विस्तार से दी गई है। इस ज्योतिर्लिंग की महिमा अमोघ है। इसके दर्शन का फल कभी व्यर्थ नहीं जाता। भक्तों की सभी मनोकामनाएँ यहाँ आकर पूर्ण हो जाती हैं।





 
7. Rameshwaram marker in Tamil Nadumarker is home to the vast Ramalingeswarar Jyotirlinga temple and is revered as the southernmost of the twelve Jyotirlinga shrines of India. It enshrines the ("Lord of Rama") pillar.
 श्री रामेश्वर:-
इस ज्योतिर्लिंग की स्थापना मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान्‌ श्रीरामंद्रजी ने की थी। स्कंदपुराण में इसकी महिमा विस्तार से वर्णित है। इसके विषय में यह कथा कही जाती है- जब भगवान्‌ श्रीरामंद्रजी लंका पर चढ़ाई करने के लिए जा रहे थे तब

इसी स्थान पर उन्होंने समुद्र की बालू से शिवलिंग बनाकर उसका पूजन किया था।

ऐसा भी कहा जाता है कि इस स्थान पर ठहरकर भगवान्‌ राम जल पी रहे थे कि आकाशवाणी हुई कि मेरी पूजा किए बिना ही जल पीते हो? इस वाणी को सुनकर भगवान्‌ श्रीराम ने बालू से शिवलिंग बनाकर उसकी पूजा की तथा भगवान्‌ शिव से रावण पर विजय प्राप्त करने का वर माँगा। उन्होंने प्रसन्नता के साथ यह वर भगवान्‌ श्रीराम को दे दिया। भगवान्‌ शिव ने लोक-कल्याणार्थ ज्योतिर्लिंग के रूप में वहाँ निवास करने की सबकी प्रार्थना भी स्वीकार कर ली। तभी से यह ज्योतिर्लिंग यहाँ विराजमान है।

इस ज्योतिर्लिंग के विषय में एक-दूसरी कथा इस प्रकार कही जाती है- जब भगवान्‌ श्रीराम रावण का वध करके लौट रहे थे तब उन्होंने अपना पहला पड़ाव समुद्र के उस पार गन्धमादन पर्वत पर डाला था। वहाँ बहुत से ऋषि और मुनिगण भगवान्‌ श्रीराम दर्शन के लिए उनके पास आए। उन सभी का आदर-सत्कार करते हुए भगवान्‌ राम ने उनसे कहा कि पुलस्य के वंशज रावण का धव करने के कारण मुझ पर ब्रह्महत्या का पाप लग गया है, आप लोग मुझे इससे निवृत्ति का कोई उपाय बताइए। यह बात सुनकर वहाँ उपस्थित सारे ऋषियों-मुनियों ने एक स्वर से कहा कि आप यहाँ शिवलिंग की स्थापना कीजिए। इससे आप ब्रह्म हत्या के पाप से छुटकारा पा जाएँगे।

भगवान्‌ श्रीराम ने उनकी यह बात स्वीकार कर हनुमान्‌जी को कैलास पर्वत जाकर वहाँ से शिवलिंग लाने का आदेश दिया। हनुमानजी तत्काल ही वहाँ जा पहुँचे किंतु उन्हें उस समय वहाँ भगवान्‌ शिव के दर्शन नहीं हुए। अतः वे उनका दर्शन प्राप्त करने के लिए वहीं बैठकर तपस्या करने लगे। कुछ काल पश्चात्‌्‌ शिवजी के दर्शन प्राप्त कर हनुमानजी शिवलिंग लेकर लौटे किंतु तब तक शुभ मुहूर्त्त बीत जाने की आशंका से यहाँ सीताजी द्वारा लिंग की स्थापना का कार्य कराया जा चुका था।

हनुमानजी को यह सब देखकर बहुत दुःख हुआ। उन्होंने अपनी व्यथा भगवान्‌ श्रीराम से कह सुनाई। भगवान्‌ ने पहले ही लिंग स्थापित किए जाने का कारण हनुमानजी को बताते हुए कहा कि यदि तुम चाहो तो इस लिंग को यहाँ से उखाड़कर हटा दो। हनुमानजी अत्यंत प्रसन्न होकर उस लिंग को उखाड़ने लगे, किंतु बहुत प्रत्यन करने पर भी वह टस-से मस नहीं हुआ।

अंत में उन्होंने उस शिवलिंग को अपनी पूँछ में लपेटकर उखाड़ने का प्रयत्न किया, फिर भी वह ज्यों का त्यों अडिग बना रहा। उलटे हनुमानजी ही धक्का खाकर एक कोस दूर मूर्च्छित होकर जा गिरे। उनके शरीर से रक्त बहने लगा यह देखकर सभी लोग अत्यंत व्याकुल हो उठे। माता सीताजी पुत्र से भी प्यारे अपने हनुमान के शरीर पर हाथ फेरती हुई विलाप करने लगीं।

मूर्च्छा दूर होने पर हनुमानजी ने भगवान्‌ श्रीराम को परम ब्रह्म के रूप में सामने देखा। भगवान ने उन्हें शंकरजी की महिमा बताकर उनका प्रबोध किया। अपने भक्त हनुमान पर कृपा करते हुए भगवान श्री राम ने उनके द्वारा कैलास से लाये गये लिंग को भी वहीं समीप में ही स्थापित कर दिया, जिससे हनुमान जी को बड़ी प्रसन्नता हुई। श्री राम ने ही उस लिंग का नाम ‘हनुमदीश्वर’ रखा। रामेश्वर तथा हनुमदीश्वर शिवलिंग की प्रशंसा भगवान श्री राम ने स्वयं की है–
स्वयं हरेण दत्तं हनुमान्नामकं शिवम्।
सम्पश्यन् रामनाथं च कृतकृत्यो भवेन्नर:।।
योजनानां सहस्त्रेऽपि स्मृत्वा लिंग हनूमत:।
रामनाथेश्वरं चापि स्मृत्वा सायुज्यमाप्नुयात्।।
तेनेष्टं सर्वयज्ञैश्च तपश्चकारि कृत्स्नश:।
येन इष्टौ महादेवौ हनूमद्राघवेश्वरौ।।
अर्थात ‘भगवान शंकर के द्वारा प्रदत्त हनुमान नामक लिंग का दर्शन करने से मनुष्य का जीवन धन्य हो जाता है। जो कोई मनुष्य हज़ार योजन की दूरी से भी यदि हनुमदीश्वर और श्रीरामनाथेश्वर-लिंग का स्मरण और भाव पूर्वक चिन्तन करता है, वह शिवसायुज्य (शिव की समीपता या शिवलोक की प्राप्ति) नामक मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। इस लिंग की महिमा का बखान करते हुए कहा गया है कि जिसने हनुमदीश्वर और श्री रामनाथेश्वर लिंग का दर्शन कर लिया है, मानों उसने सभी प्रकार के यज्ञ तथा तप को कर लिया है।’
श्री रामेश्वर मन्दिर में परिसर के भीतर ही चौबीस कुओं का निर्माण कराया गया है, जिनको ‘तीर्थ’ कहा जाता है। इनके जल से स्नान करने का विशेष महत्त्व बताया गया है। इन कुओं का मीठा जल पीने योग्य भी है। मन्दिर के बाहर भी बहुत से कुएँ बने हुए हैं, किन्तु उन सभी का जल खारा है। मन्दिर-परिसर के भीतर के कुओं के सम्बन्ध में ऐसी प्रसिद्धि है कि ये कुएं भगवान श्री राम ने अपने अमोघ बाणों के द्वारा तैयार किये थे। उन्होंने अनेक तीर्थों का जल मँगाकर उन कुओं में छोड़ा था, जिसके कारण उन कुओं को आज भी तीर्थ कहा जाता है। उनमें कुछ के नाम इस प्रकार हैं– गंगा, यमुना, गया, शंख, चक्र, कुमुद आदि। श्री रामेश्वरधाम में कुछ अन्य भी दर्शनीय तीर्थ हैं, जिनके नाम हैं– रामतीर्थ, अमृतवाटिका, हनुमान कुण्ड, ब्रह्म हत्या तीर्थ,विभीषण तीर्थ, माधवकुण्ड, सेतुमाधव, नन्दिकेश्वर तथा अष्टलक्ष्मीमण्डप आदि।
श्रीरामेश्वरम से लगभग तीस किलोमीटर की दूरी पर धनुष्कोटि नाम स्थान है। यहाँ अरब सागर और हिंद महासागर का संगम होने के कारण श्राद्धतीर्थ मानकर पितृकर्म करने का विधान है। यहाँ लक्ष्मणतीर्थ में भी मुण्डन और श्राद्ध करने का प्रचलन है। इस स्थान पर समुद्र में स्नान करने के बाद अर्ध्यदान किया जाता है। यहाँ के गन्धमादन पर्वत पर ‘रामझरोखे’ नाम स्थान है। इस रामझरोखे से समुद्र तथा श्रीरामसेतु के दर्शन करने का विशेष माहात्म्य (महिमा) बताया गया है। श्रीराम सेतु के मध्य में बहुत से तीर्थ बने हुए हैं, जिनमे प्रमुख तीर्थों के नाम इस प्रकार है– चक्रतीर्थ, वेतालवरद, पापविनाशन, सीतासर, मंगलतीर्थ, अमृतवाटिका, ब्रह्मकुण्ड, अगस्त्यतीर्थ, जयतीर्थ,लक्ष्मीतीर्थ, अग्नितीर्थ, शुकतीर्थ, शिवतीर्थ, कोटितीर्थ, साध्यामृततीर्थ तथा मानसतीर्थ आदि। भगवान श्रीरामेश्वर ज्योतिर्लिंग को गंगोत्री का गंगाजल विशेष प्रिय है। शिवभक्तों की यह प्रथा उत्तर और दक्षिण भारत की यात्रा कराकर राष्ट्रीय अखण्डता को मज़बूत करती है।


 

  

  8.  Nageshvara Jyotirlinga shrine in Daruka Vana. The location of this jyotirlinga is in dispute with Dwarkamarker in Gujaratmarker and Aundha Nagnath in Hingoli district of Maharashtramarker claiming to be the correct location. Jageshwar is a place in Almora, Uttarakhand, where there is a temple called Jageshwar also claims to be Nageswar Jyotirlinga.

The narratives on Nageshvara Jyotirlinga

The Shiva Purana says Nageshvara is in the Darukavana, which is an ancient epic name of forest in India. Darukavana finds mention in Indian epics like kamyakavana, Dvaitavana, Dandakavana,etc.

According to a narrative, the
Balakhilyas, a group of dwarf sages worshipped Shiva in darukavana for long time. To test their devotion and patience, Shiva came to the Darukavana as an digambara (nude) ascetic, wearing only Nagas[serpants] in his body. Wives of sages were attracted and ran after the ascetic, leaving back their husbands. Sages got very disturbed and frustruated with this. They lost their patience and cursed ascetic to loose his linga. Shivalinga fell on the earth and whole world trempled. Brahma and Vishnu came to Shiva, requested him to save earth from destruction and take back his linga. Shiva consoled them and took back his linga.(Vamana Purana Ch.6 and 45)

Shiva promised his divine presence in Darukavana as
Jyotirlinga for ever. Later Darukavana became favourate place of Nagas and Vasuki worshipped Shiva here for long and there after the Jyotirlinga came to be known as Nagnath or Nageshvara.

Also, there is a narrative in the Shiva Purana on the Nageshvara
Jyotirlinga. It says, a demon named Daaruka attacked a Shiva devotee by name Supriya and imprisoned her along with several others in his city of Darukavana. This place was a city of snakes and Daruka was the king of the snakes. On the insistence of Supriya, all the prisoners started to chant the holy mantra of Shiva and instantly Lord Shiva appeared and vanquished the demon and later started to reside here in the form of a Jyotirlinga.


श्री नागेश्वर:-
भगवान्‌ शिव का यह प्रसिद्ध ज्योतिर्लिंग गुजरात प्रांत में द्वारकापुरी से लगभग 17 मील की दूरी पर स्थित है। इस पवित्र ज्योतिर्लिंग के दर्शन की शास्त्रों में बड़ी महिमा बताई गई है। कहा गया है कि जो श्रद्धापूर्वक इसकी उत्पत्ति    औ
र माहात्म्य की कथा सुनेगा वह सारे पापों से छुटकारा पाकर समस्त सुखों का भोग करता हुआ अंत में भगवान्‌ शिव के परम पवित्र दिव्य धाम को प्राप्त होगा।
एतद् यः श्रृणुयान्नित्यं नागेशोद्भवमादरात्‌।
सर्वान्‌ कामानियाद् धीमान्‌ महापातकनाशनम्‌॥

इस ज्योतिर्लिंग के संबंध में पुराणों यह कथा वर्णित है-

सुप्रिय नामक एक बड़ा धर्मात्मा और सदाचारी वैश्य था। वह भगवान्‌ शिव का अनन्य भक्त था। वह निरंतर उनकी आराधना, पूजन और ध्यान में तल्लीन रहता था। अपने सारे कार्य वह भगवान्‌ शिव को अर्पित करके करता था। मन, वचन, कर्म से वह पूर्णतः शिवार्चन में ही तल्लीन रहता था। उसकी इस शिव भक्ति से दारुक नामक एक राक्षस बहुत क्रुद्व रहता था।
उसे भगवान्‌ शिव की यह पूजा किसी प्रकार भी अच्छी नहीं लगती थी। वह निरंतर इस बात का प्रयत्न किया करता था कि उस सुप्रिय की पूजा-अर्चना में विघ्न पहुँचे। एक बार सुप्रिय नौका पर सवार होकर कहीं जा रहा था। उस दुष्ट राक्षस दारुक ने यह उपयुक्त अवसर देखकर नौका पर आक्रमण कर दिया। उसने नौका में सवार सभी यात्रियों को पकड़कर अपनी राजधानी में ले जाकर कैद कर लिया। सुप्रिय कारागार में भी अपने नित्यनियम के अनुसार भगवान्‌ शिव की पूजा-आराधना करने लगा।

अन्य बंदी यात्रियों को भी वह शिव भक्ति की प्रेरणा देने लगा। दारुक ने जब अपने सेवकों से सुप्रिय के विषय में यह समाचार सुना तब वह अत्यंत क्रुद्ध होकर उस कारागर में आ पहुँचा। सुप्रिय उस समय भगवान्‌ शिव के चरणों में ध्यान लगाए हुए दोनों आँखें बंद किए बैठा था। उस राक्षस ने उसकी यह मुद्रा देखकर अत्यंत भीषण स्वर में उसे डाँटते हुए कहा- 'अरे दुष्ट वैश्य! तू आँखें बंद कर इस समय यहाँ कौन- से उपद्रव और षड्यंत्र करने की बातें सोच रहा है?' उसके यह कहने पर भी धर्मात्मा शिवभक्त सुप्रिय की समाधि भंग नहीं हुई। अब तो वह दारुक राक्षस क्रोध से एकदम पागल हो उठा। उसने तत्काल अपने अनुचरों को सुप्रिय तथा अन्य सभी बंदियों को मार डालने का आदेश दे दिया। सुप्रिय उसके इस आदेश से जरा भी विचलित और भयभीत नहीं हुआ।

वह एकाग्र मन से अपनी और अन्य बंदियों की मुक्ति के लिए भगवान्‌ शिव से प्रार्थना करने लगा। उसे यह पूर्ण विश्वास था कि मेरे आराध्य भगवान्‌ शिवजी इस विपत्ति से मुझे अवश्य ही छुटकारा दिलाएँगे। उसकी प्रार्थना सुनकर भगवान्‌ शंकरजी तत्क्षण उस कारागार में एक ऊँचे स्थान में एक चमकते हुए सिंहासन पर स्थित होकर ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट हो गए।

उन्होंने इस प्रकार सुप्रिय को दर्शन देकर उसे अपना पाशुपत-अस्त्र भी प्रदान किया। इस अस्त्र से राक्षस दारुक तथा उसके सहायक का वध करके सुप्रिय शिवधाम को चला गया। भगवान्‌ शिव के आदेशानुसार ही इस ज्योतिर्लिंग का नाम नागेश्वर पड़ा।
नागेश्वर ज्योतिर्लिंग के स्थान को लेकर भक्तों में मतैक्य नहीं है. कुछ लोग मानते हैं की यह ज्योतिर्लिग महाराष्ट्र के हिंगोली जिले में स्थित औंढा नागनाथ नामक जगह पर है, वहीँ अन्य लोगों का मानना है की यह ज्योतिर्लिंग उत्तराखंड राज्य के अल्मोड़ा के समीप जागेश्वर नामक जगह पर स्थित है, इन सारे मतभेदों के बावजूद तथ्य यह है की प्रति वर्ष लाखों की संख्या में भक्त गुजरात में द्वारका के समीप स्थित नागेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर में दर्शन, पूजन और अभिषेक के लिए आते हैं.
नागेश्वर के वर्तमान मंदिर का पुनर्निर्माण, सूपर केसेट्स इंडस्ट्री के मालिक स्वर्गीय श्री गुलशन कुमार ने करवाया था. उन्होंने इस जीर्णोद्धार का कार्य 1996 में शुरू करवाया, तथा इस बीच उनकी हत्या हो जाने के कारण उनके परिवार ने इस मंदिर का कार्य पूर्ण करवाया. मंदिर निर्माण में लगभग 1.25 करोड़ की लागत आई जिसे गुलशन कुमार चेरिटेबल ट्रस्ट ने अदा किया. नागेश्वर ज्योतिर्लिंग के परिसर में भगवान शिव की ध्यान मुद्रा में एक बड़ी ही मनमोहक अति विशाल प्रतिमा है जिसकी वजह से यह मंदिर को दो किलोमीटर की दुरी से ही दिखाई देने लगता है, यह मूर्ति 125 फीट ऊँची तथा 25 फीट चौड़ी है. मुख्य द्वार साधारण लेकिन सुन्दर है. मंदिर में पहले एक सभाग्रह है, जहाँ पूजन सामग्री की छोटी छोटी दुकानें लगी हुई हैं. सभामंड़प के आगे तलघर नुमा गर्भगृह में श्री नागेश्वर ज्योतिर्लिंग स्थापित है.
गर्भगृह:

गर्भगृह सभामंड़प से निचले स्तर पर स्थित है, ज्योतिर्लिंग मध्यम बड़े आकार का है जिसके ऊपर एक चांदी का आवरण चढ़ा रहता है. ज्योतिर्लिंग पर ही एक चांदी के नाग की आकृति बनी हुई है. ज्योतिर्लिंग के पीछे माता पार्वती की मूर्ति स्थापित है. गर्भगृह में पुरुष भक्त सिर्फ धोती पहन कर ही प्रवेश कर सकते हैं, वह भी तभी जब उन्हें अभिषेक करवाना है.

मंदिर समय सारणी:

मंदिर सुबह पांच बजे प्रातः आरती के साथ खुलता है, आम जनता के लिए मंदिर छः बजे सुबह खुलता है. भक्तों के लिए शाम चार बजे श्रृंगार दर्शन होता है तथा उसके बाद गर्भगृह में प्रवेश बंद हो जाता है. शयन आरती शाम सात बजे होती है तथा रात नौ बजे मंदिर बंद हो जाता है.

विभिन्न पूजाएँ:

नागेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर में मंदिर प्रबंधन समिति के द्वारा भक्तों की सुविधा के लिए रु. 105 से लेकर रु. 2101 के बीच विभिन्न प्रकार की पूजाएँ सशुल्क सम्पन्न कराई जाती हैं. जिन भक्तों को पूजन अभिषेक करवाना होता है, उन्हें मंदिर के पूजा काउंटर पर शुल्क जमा करवाकर रसीद प्राप्त करनी होती है, तत्पश्चात मंदिर समिति भक्त के साथ एक पुरोहित को अभिषेक के लिए भेजती है जो भक्त को लेकर गर्भगृह में लेकर जाता है तथा शुल्क के अनुसार पूजा करवाता है.






 9. Kashi Vishwanath Templemarker in Varanasimarker, Uttar Pradeshmarker is home to the Vishwanath Jyotirling temple, which is perhaps the most sacred of Hindu Temples.

श्री विश्वनाथ:-
यह ज्योतिर्लिंग उत्तर भारत की प्रसिद्ध नगरी काशी में स्थित है। इस नगरी का प्रलयकाल में भी लोप नहीं होता। उस समय भगवान्‌ अपनी वासभूमि इस पवित्र नगरी को अपने त्रिशूल पर धारण कर लेते हैं और सृष्टिकाल आने पर पुनः यथास्थान रख देते है। सृष्टि की आदि स्थली भी इसी नगरी को बताया जाता है।

भगवान्‌ विष्णु ने इसी स्थान पर सृष्टि-कामना से तपस्या करके भगवान्‌ शंकरजी को प्रसन्न किया था। अगस्त्य मुनि ने भी इसी स्थान पर अपनी तपस्या द्वारा भगवान्‌ शिव को संतुष्ट किया था। इस पवित्र नगरी की महिमा ऐसी है कि यहाँ जो भी प्राणी अपने प्राण त्याग करता है, उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। भगवान्‌ शंकर उसके कान में 'तारक' मंत्र का उपदेश करते हैं। इस मंत्र के प्रभाव से पापी से पापी प्राणी भी सहज ही भवसागर की बाधाओं से पार हो जाते हैं।

विषयासक्तचित्तोऽपि त्यक्तधर्मरतिर्नरः।
इह क्षेत्रे मृतः सोऽपि संसारे न पुनर्भवेत्‌॥

अर्थात्‌ 'विषयों में आसक्त, अधर्मी व्यक्ति भी यदि इस काशी क्षेत्र में मृत्यु को प्राप्त हो तो उसे भी पुनः संसार बंधन में नहीं आना पड़ता।' मत्स्य पुराण में इस नगरी का महत्व बताते हुए कहा गया है- 'जप, ध्यान और ज्ञानरहित तथा दुःखों से पीड़ित मनुष्यों के लिए काशी ही एकमात्र परमगति है। श्री विश्वनाथ के आनंद-कानन में दशाश्वमेध, लोलार्क, बिंदुमाधव, केशव और मणिकर्णिका- ये पाँच प्रश्न तीर्थ हैं। इसी से इसे 'अविमुक्त क्षेत्र' कहा जाता है।'
जपध्यानविहीनानां ज्ञानवर्जितचेतसाम्‌।
ततो दुःखाहतानां च गतिर्वाराणसी नृणाम्‌॥

तीर्थानां पञ्चकं सारं विश्वेशानंदकानने।
दशाश्वमेधं लोलार्कः केशवो बिंदुमाधवः॥

पञ्चमी तु महाश्रेष्ठा प्रोच्यते मणिकर्णिका।
एभिस्तु तीर्थवर्यैश्च वर्ण्यते ह्यविमुक्तकम्‌॥

इस परम पवित्र नगरी के उत्तर की तरफ ओंकारखंड, दक्षिण में केदारखंड और बीच में विश्वेश्वरखंड है। प्रसिद्ध विश्वनाथ-ज्योतिर्लिंग इसी खंड में स्थित है। पुराणों में इस ज्योतिर्लिंग के संबंध में यह कथा दी गई है-

भगवान्‌ शंकर पार्वतीजी से विवाह करके कैलास पर्वत रह रहे थे। लेकिन वहाँ पिता के घर में ही विवाहित जीवन बिताना पार्वतीजी को अच्छा न लगता था। एक दिन उन्होंने भगवान्‌ शिव से कहा- 'आप मुझे अपने घर ले चलिए। यहाँ रहना मुझे अच्छा नहीं लगता। सारी लड़कियाँ शादी के बाद अपने पति के घर जाती हैं, मुझे पिता के घर में ही रहना पड़ रहा है।' भगवान्‌ शिव ने उनकी यह बात स्वीकार कर ली। माता पार्वतीजी को साथ लेकर अपनी पवित्र नगरी काशी में आ गए। यहाँ आकर वे विश्वनाथ-ज्योतिर्लिंग के रूप में स्थापित हो गए।

इस ज्योतिर्लिंग के दर्शन-पूजन द्वारा मनुष्य समस्त पापों-तापों से छुटकारा पा जाता है। प्रतिदिन नियम से श्री विश्वनाथ के दर्शन करने वाले भक्तों के योगक्षेम का समस्त भार भगवान शंकर अपने ऊपर ले लेते हैं। ऐसा भक्त उनके परमधाम का अधिकारी बन जाता है। भगवान्‌ शिवजी की कृपा उस पर सदैव बनी रहती है।




                                                            
  10.  Trimbakeshwar  marker, near Nasikmarker in Maharashtramarker, has a Jyotirlinga shrine associated with the origin of the Godavari river.

 श्री त्र्यम्बकेश्वर:-
यह ज्योतिर्लिंग महाराष्ट्र प्रांत में नासिक से 30 किलोमीटर दूर पश्चिम में स्थित है। इस ज्योतिर्लिंग की स्थापना के विषय में शिवपुराण में यह कथा वर्णित है-

एक बार महर्षि गौतम के तपोवन में रहने वाले ब्राह्मणों की पत्नियाँ किसी बात पर उनकी पत्नी अहिल्या से नाराज हो गईं। उन्होंने अपने पतियों को ऋषि गौतम का अपकार करने के लिए प्रेरित किया। उन ब्राह्मणों ने इसके निमित्त भगवान्‌ श्रीगणेशजी की आराधना की।

उनकी आाधना से प्रसन्न हो गणेशजी ने प्रकट होकर उनसे वर माँगने को कहा उन ब्राह्मणों ने कहा- 'प्रभो! यदि आप हम पर प्रसन्न हैं तो किसी प्रकार ऋषि गौतम को इस आश्रम से बाहर निकाल दें।' उनकी यह बात सुनकर गणेशजी ने उन्हें ऐसा वर माँगने के लिए समझाया। किंतु वे अपने आग्रह पर अटल रहे।

अंततः गणेशजी को विवश होकर उकी बात माननी पड़ी। अपने भक्तों का मन रखने के लिए वे एक दुर्बल गाय का रूप धारण करके ऋषि गौतम के खेत में जाकर रहने लगे। गाय को फसल चरते देखकर ऋषि बड़ी नरमी के साथ हाथ में तृण लेकर उसे हाँकने के लिए लपके। उन तृणों का स्पर्श होते ही वह गाय वहीं मरकर गिर पड़ी। अब तो बड़ा हाहाकार मचा।
सारे ब्राह्मण एकत्र हो गो-हत्यारा कहकर ऋषि गौतम की भर्त्सना करने लगे। ऋषि गौतम इस घटना से बहुत आश्चर्यचकित और दुःखी थे। अब उन सारे ब्राह्मणों ने कहा कि तुम्हें यह आश्रम छोड़कर अन्यत्र कहीं दूर चले जाना चाहिए। गो-हत्यारे के निकट रहने से हमें भी पाप लगेगा। विवश होकर ऋषि गौतम अपनी पत्नी अहिल्या के साथ वहाँ से एक कोस दूर जाकर रहने लगे। किंतु उन ब्राह्मणों ने वहाँ भी उनका रहना दूभर कर दिया। वे कहने लगे- 'गो-हत्या के कारण तुम्हें अब वेद-पाठ और यज्ञादि के कार्य करने का कोई अधिकार नहीं रह गया।' अत्यंत अनुनय भाव से ऋषि गौतम ने उन ब्राह्मणों से प्रार्थना की कि आप लोग मेरे प्रायश्चित और उद्धार का कोई उपाय बताएँ।

तब उन्होंने कहा- 'गौतम! तुम अपने पाप को सर्वत्र सबको बताते हुए तीन बार पूरी पृथ्वी की परिक्रमा करो। फिर लौटकर यहाँ एक महीने तक व्रत करो। इसके बाद 'ब्रह्मगिरी' की 101 परिक्रमा करने के बाद तुम्हारी शुद्धि होगी अथवा यहाँ गंगाजी को लाकर उनके जल से स्नान करके एक करोड़ पार्थिव शिवलिंगों से शिवजी की आराधना करो। इसके बाद पुनः गंगाजी में स्नान करके इस ब्रह्मगरी की 11 बार परिक्रमा करो। फिर सौ घड़ों के पवित्र जल से पार्थिव शिवलिंगों को स्नान कराने से तुम्हारा उद्धार होगा।

ब्राह्मणों के कथनानुसार महर्षि गौतम वे सारे कार्य पूरे करके पत्नी के साथ पूर्णतः तल्लीन होकर भगवान्‌ शिव की आराधना करने लगे। इससे प्रसन्न हो भगवान्‌ शिव ने प्रकट होकर उनसे वर माँगने को कहा। महर्षि गौतम ने उनसे कहा- 'भगवान्‌ मैं यही चाहता हूँ कि आप मुझे गो-हत्या के पाप से मुक्त कर दें।' भगवान्‌ शिव ने कहा- 'गौतम ! तुम सर्वथा निष्पाप हो। गो-हत्या का अपराध तुम पर छलपूर्वक लगाया गया था। छलपूर्वक ऐसा करवाने वाले तुम्हारे आश्रम के ब्राह्मणों को मैं दण्ड देना चाहता हूँ।'

इस पर महर्षि गौतम ने कहा कि प्रभु! उन्हीं के निमित्त से तो मुझे आपका दर्शन प्राप्त हुआ है। अब उन्हें मेरा परमहित समझकर उन पर आप क्रोध न करें।' बहुत से ऋषियों, मुनियों और देवगणों ने वहाँ एकत्र हो गौतम की बात का अनुमोदन करते हुए भगवान्‌ शिव से सदा वहाँ निवास करने की प्रार्थना की। वे उनकी बात मानकर वहाँ त्र्यम्ब ज्योतिर्लिंग के नाम से स्थित हो गए। गौतमजी द्वारा लाई गई गंगाजी भी वहाँ पास में गोदावरी नाम से प्रवाहित होने लगीं। यह ज्योतिर्लिंग समस्त पुण्यों को प्रदान करने वाला है।






 
11.   Kedarnathmarker in Uttarakhandmarker is the northernmost of the Jyotirlingas. Kedarnath, nestled in the snow-clad Himalayasmarker, is an ancient shrine, rich in legend and tradition. It is accessible only by foot, and only for six months a year.
 श्री केदारनाथ:-
यह ज्योतिर्लिंग पर्वतराज हिमालय की केदार नामक चोटी पर स्थित है। पुराणों एवं शास्त्रों में श्री केदारेश्वर-ज्योतिर्लिंग की महिमा का वर्णन बारंबार किया गया है। यहाँ की प्राकृतिक शोभा देखते ही बनती है। इस चोटी के पश्चिम भाग में पुण्यमती मंदाकिनी नदी के तट पर स्थित केदारेश्वर महादेव का मंदिर अपने स्वरूप से ही हमें धर्म और अध्यात्म की ओर बढ़ने का संदेश देता है।
चोटी के पूर्व में अलकनंदा के सुरम्य तट पर बद्रीनाथ का परम प्रसिद्ध मंदिर है। अलकनंदा और मंदाकिनी- ये दोनों नदियाँ नीचे रुद्रप्रयाग में आकर मिल जाती हैं। दोनों नदियों की यह संयुक्त धारा और नीचे देवप्रयाग में आकर भागीरथी गंगा से मिल जाती हैं। इस प्रकार परम पावन गंगाजी में स्नान करने वालों को भी श्री केदारेश्वर और बद्रीनाथ के चरणों को धोने वाले जल का स्पर्श सुलभ हो जाता है।
इस अतीव पवित्र पुण्यफलदायी ज्योतिर्लिंग की स्थापना के विषय में पुराणों में यह कथा वर्णित है- अनंत रत्नों के जनक, अतिशय पवित्र, तपस्वियों, ऋषियों, सिद्धों, देवताओं की निवास-भूमि पर्वतराज हिमालय के केदार नामक अत्
यंत शोभाशाली श्रृंग पर महातपस्वी श्रीनर और नारायण ने बहुत वर्षों तक भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए बड़ी कठिन तपस्या की।
कई हजार वर्षों तक वे निराहार रहकर एक पैर पर खड़े होकर शिव नाम का जप करते रहे। इस तपस्या से सारे लोकों में उनकी चर्चा होने लगी। देवता, ऋषि-मुनि, यक्ष, गन्धर्व सभी उनकी साधना और संयम की प्रशंसा करने लगे। चराचर के पितामह ब्रह्माजी और सबका पालन-पोषण करने वाले भगवान विष्ण भी महापस्वी नर-नारायण के तप की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे, अंत में भगवान शंकरजी भी उनकी उस कठिन साधना से प्रसन्न हो उठे। उन्होंने प्रत्यक्ष प्रकट होकर उन दोनों ऋषियों को दर्शन दिए।
नर और नारायण ने भगवान्‌ भोलेनाथ के दर्शन से भाव-विह्वल और आनंद-विभोर होकर बहुत प्रकार की पवित्र स्तुतियों और मंत्रो से उनकी पूजा-अर्चना की। भगवान्‌ शिवजी ने अत्यंत प्रसन्न होकर उनसे वर माँगने को कहा। भगवान्‌ शिव की यह बात सुनकर दोनों ऋषियों ने उनसे कहा, 'देवाधिदेव महादेव! यदि आप हम पर प्रसन्न हैं तो भक्तों के कल्याण हेतु आप सदा-सर्वदा के लिए अपने स्वरूप को यहाँ स्थापित करने की कृपा करें।
आपके यहाँ निवास करने से यह स्थान सभी प्रकार से अत्यंत पवित्र हो उठेगा। यहाँ आपका दर्शन-पूजन करने वाले मनष्यों को आपकी अविनाशिनी भक्ति प्राप्त हुआ करेगी। प्रभो! आप मनुष्यों के कल्याण और उनके उद्धार के लिए अपने स्वरूप को यहाँ स्थापित करने की हमारी प्रार्थना अवश्य ही स्वीकार करें।'
उनकी प्रार्थना सुनकर भगवान्‌ शिव ने ज्योतिर्लिंग के रूप में वहाँ वास करना स्वीकार किया। केदार नामक हिमालय-श्रृंग पर स्थित होने के कारण इस ज्योतिर्लिंग को श्री केदारेश्वर-ज्योतिर्लिंग के रूप में जाना जाता है।

भगवान्‌ शिव से वर माँगते हुए नर और नारायण ने इस ज्योतिर्लिंग और इस पवित्र स्थान के विषय में जो कुछ कहा है, वह अक्षरशः सत्य है। इस ज्योतिर्लिंग के दर्शन-पूजन तथा यहाँ स्नान करने से भक्तों को लौकिक फलों की प्राप्ति होने के साथ-साथ अचल शिवभक्ति तथा मोक्ष की प्राप्ति भी हो जाती है

 

                                                                       
  
12.    Grishneshwar Jyotirlinga shrine, in Aurangabad Maharashtra, is located near the rock-cut temples of Elloramarker. This shrine is also known as Ghushmeshwar.

 श्री घुश्मेश्वर:-
द्वादश ज्योतिर्लिंगों में यह अंतिम ज्योतिर्लिंग है। इसे घुश्मेश्वर, घुसृणेश्वर या घृष्णेश्वर भी कहा जाता है। यह महाराष्ट्र प्रदेश में दौलताबाद से बारह मीर दूर वेरुलगाँव के पास स्थित है। 

इस ज्योतिर्लिंग के विषय में पुराणो

ं में यह कथा वर्णित है- दक्षिण देश में देवगिरिपर्वत के निकट सुधर्मा नामक एक अत्यंत तेजस्वी तपोनिष्ट ब्राह्मण रहता था। उसकी पत्नी का नाम सुदेहा था दोनों में परस्पर बहुत प्रेम था। किसी प्रकार का कोई कष्ट उन्हें नहीं था। लेकिन उन्हें कोई संतान नहीं थी। 

ज्योतिष-गणना से पता चला कि सुदेहा के गर्भ से संतानोत्पत्ति हो ही नहीं सकती। सुदेहा संतान की बहुत ही इच्छुक थी। उसने सुधर्मा से अपनी छोटी बहन से दूसरा विवाह करने का आग्रह किया।

पहले तो सुधर्मा को यह बात नहीं जँची। लेकिन अंत में उन्हें पत्नी की जिद के आगे झुकना ही पड़ा। वे उसका आग्रह टाल नहीं पाए। वे अपनी पत्नी की छोटी बहन घुश्मा को ब्याह कर घर ले आए। घुश्मा अत्यंत विनीत और सदाचारिणी स्त्री थी। वह भगवान्‌ शिव की अनन्य भक्ता थी। प्रतिदिन एक सौ एक पार्थिव शिवलिंग बनाकर हृदय की सच्ची निष्ठा के साथ उनका पूजन करती थी। 

भगवान शिवजी की कृपा से थोड़े ही दिन बाद उसके गर्भ से अत्यंत सुंदर और स्वस्थ बालक ने जन्म लिया। बच्चे के जन्म से सुदेहा और घुश्मा दोनों के ही आनंद का पार न रहा। दोनों के दिन बड़े आराम से बीत रहे थे। लेकिन न जाने कैसे थोड़े ही दिनों बाद सुदेहा के मन में एक कुविचार ने जन्म ले लिया। वह सोचने लगी, मेरा तो इस घर में कुछ है नहीं। सब कुछ घुश्मा का है। 
मेरे पति पर भी उसने अधिकार जमा लिया। संतान भी उसी की है। यह कुविचार धीरे-धीरे उसके मन में बढ़ने लगा। इधर घुश्मा का वह बालक भी बड़ा हो रहा था। धीरे-धीरे वह जवान हो गया। उसका विवाह भी हो गया। अब तक सुधर्मा के मन का कुविचार रूपी अंकुर एक विशाल वृक्ष का रूप ले चुका था। अंततः एक दिन उसने घुश्मा के युवा पुत्र को रात में सोते समय मार डाला। उसके शव को ले जाकर उसने उसी तालाब में फेंक दिया जिसमें घुश्मा प्रतिदिन पार्थिव शिवलिंगों को फेंका करती थी। 
सुबह होते ही सबको इस बात का पता लगा। पूरे घर में कुहराम मच गया। सुधर्मा और उसकी पुत्रवधू दोनों सिर पीटकर फूट-फूटकर रोने लगे। लेकिन घुश्मा नित्य की भाँति भगवान्‌ शिव की आराधना में तल्लीन रही। जैसे कुछ हुआ ही न हो। पूजा समाप्त करने के बाद वह पार्थिव शिवलिंगों को तालाब में छोड़ने के लिए चल पड़ी। जब वह तालाब से लौटने लगी उसी समय उसका प्यारा लाल तालाब के भीतर से निकलकर आता हुआ दिखलाई पड़ा। वह सदा की भाँति आकर घुश्मा के चरणों पर गिर पड़ा। 
जैसे कहीं आस-पास से ही घूमकर आ रहा हो। इसी समय भगवान्‌ शिव भी वहाँ प्रकट होकर घुश्मा से वर माँगने को कहने लगे। वह सुदेहा की घिनौनी करतूत से अत्यंत क्रुद्ध हो उठे थे। अपने त्रिशूल द्वारा उसका गला काटने को उद्यत दिखलाई दे रहे थे। घुश्मा ने हाथ जोड़कर भगवान्‌ शिव से कहा- 'प्रभो! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मेरी उस अभागिन बहन को क्षमा कर दें। निश्चित ही उसने अत्यंत जघन्य पाप किया है किंतु आपकी दया से मुझे मेरा पुत्र वापस मिल गया। अब आप उसे क्षमा करें और प्रभो! 

मेरी एक प्रार्थना और है, लोक-कल्याण के लिए आप इस स्थान पर सर्वदा के लिए निवास करें।' भगवान्‌ शिव ने उसकी ये दोनों बातें स्वीकार कर लीं। ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट होकर वह वहीं निवास करने लगे। सती शिवभक्त घुश्मा के आराध्य होने के कारण वे यहाँ घुश्मेश्वर महादेव के नाम से विख्यात हुए। घुश्मेश्वर-ज्योतिर्लिंग की महिमा पुराणों में बहुत विस्तार से वर्णित की गई है। इनका दर्शन लोक-परलोक दोनों के लिए अमोघ फलदाई है।









 

10 मई, 2012

वर्ष 2012 में 21 मई का दिन-अति दुर्लभ योग



 



वर्ष 2012 में 21 मई का दिन ज्योतिष की नजर से बेहद खास होगा क्योंकि इस समय 9 ग्रहों में से 6 ग्रह एक ही राशि में स्थित होंगे। यह एक अति दुर्लभ योग है। ऐसी ग्रह स्थिति बहुत कम बनती है।

उज्जैन के ज्योतिषाचार्य पं. मनीष शर्मा के अनुसार 21 मई 2012 की रात से एक साथ 6 ग्रह सूर्य, चंद्र, बुध, गुरु, शुक्र और केतु वृषभ राशि में रहेंगे। इस समय रोहिणी  नक्षत्र होगा। वृश्चिक राशि में स्थित राहु इन सभी 6 ग्रहों पर पूर्ण दृष्टि रखेगा। अन्य दो ग्रह शनि और मंगल का इनसे कोई संबंध नहीं रहेगा।

6 ग्रहों की यह स्थिति बुधवार 23 मई की सुबह 5.20 बजे तक रहेगी। पं. शर्मा के अनुसार इसके बाद चंद्र वृषभ से निकलकर मिथुन में चले जाएगा। तब वृषभ राशि में पंचग्रही योग बना रहेगा। ज्योतिष शास्त्र में षष्ठग्रही एवं पंचग्रही योग को ठीक नहीं माना जाता। इस समय जन्म लेने वाले जातक जीवन में अधिकांश समय भ्रमीत हो सकते हैं तथा इनकी कुंडली कालसर्प से ग्रसित होगी।

पं. शर्मा बताते हैं कि इस ज्योतिषीय योग का असर पृथ्वी पर भी पड़ेगा। इस योग के प्रभाव से जलवायु में परिवर्तन होगा। इस समय शुक्र, शनि, राहु, केतु यह सभी मित्र ग्रह वक्री रहेंगे तथा शेष मित्र ग्रह मार्गी होंगे अर्थात इस काल में सभी के मन में सात्विक विचार बने रहेंगे। जनता अन्याय के प्रति आवाज उठाएगी। सरकार के लिए यह समय विपरित रहेगा। वृषभ राशि के लोगों को ज्यादा परेशानियां हो सकती हैं क्योंकि इसी राशि पर पूर्वी भारत सहित दुनिया के कुछ देशों में सूर्य ग्रहण भी लगेगा। इसके अलावा वृश्चिक पर भी मामुली नकारात्मक असर पडेगा।

नवग्रहों के रत्न

नवग्रहों के रत्न

भारतीय ज्योतिष में मान्यता प्राप्त नवग्रहों के रत्न निम्नलिखित हैं :

माणिक्य : यह रत्न ग्रहों के राजा माने जाने वाले सूर्य महाराज को बलवान बनाने के लिए पहना जाता है। इसका रंग हल्के गुलाबी से लेकर गहरे लाल रंग तक होता है। धारक के लिए शुभ होने की स्थिति में यह रत्न उसे व्यवसाय में लाभ, प्रसिद्धि, रोगों से लड़ने की शारीरिक क्षमता, मानसिक स्थिरता, राज-दरबार से लाभ तथा अन्य प्रकार के लाभ प्रदान कर सकता है। किन्तु धारक के लिए अशुभ होने की स्थिति में यह उसे अनेक प्रकार के नुकसान भी पहुंचा सकता है। माणिक्य को आम तौर पर दायें हाथ की कनिष्का उंगली में धारण किया जाता है। इसे रविवार को सुबह स्नान करने के बाद धारण करना चाहिए।



मोती : यह रत्न सब ग्रहों की माता माने जाने वाले ग्रह चन्द्रमा को बलवान बनाने के लिए पहना जाता है। मोती सीप के मुंह से प्राप्त होता है। इसका रंग सफेद से लेकर हल्का पीला, हलका नीला, हल्का गुलाबी अथवा हल्का काला भी हो सकता है। ज्योतिष लाभ की दृष्टि से इनमें से सफेद रंग उत्तम होता है तथा उसके पश्चात हल्का नीला तथा हल्का पीला रंग भी माननीय है। धारक के लिए शुभ होने की स्थिति में यह उसे मानसिक शांति प्रदान करता है तथा विभिन्न प्रकार की सुख सुविधाएं भी प्रदान कर सकता है। मोती को आम तौर पर दायें हाथ की अनामिका या कनिष्का उंगली में धारण किया जाता है। इसे सोमवार को सुबह स्नान करने के बाद धारण करना चाहिए।

पीला पुखराज : यह रत्न समस्त ग्रहों के गुरु माने जाने वाले बृहस्पति को बल प्रदान करने के लिए पहना जाता है। इसका रंग हल्के पीले से लेकर गहरे पीले रंग तक होता है। धारक के लिए शुभ होने की स्थिति में यह उसे धन, विद्या, समृद्धि, अच्छा स्वास्थय तथा अन्य बहुत कुछ प्रदान कर सकता है। इस रत्न को आम तौर पर दायें हाथ की तर्जनी उंगली में गुरुवार को सुबह स्नान करने के बाद धारण किया जाता है।

हीरा ( सफेद पुखराज ) : यह रत्न शुक्र को बलवान बनाने के लिए धारण किया जाता है तथा धारक के लिए शुभ होने पर यह उसे सांसरिक सुख-सुविधा, ऐशवर्य, मानसिक प्रसन्नता तथा अन्य बहुत कुछ प्रदान कर सकता है। हीरे के अतिरिक्त शुक्र को बल प्रदान करने के लिए सफेद पुखराज भी पहना जाता है। शुक्र के यह रत्न रंगहीन तथा साफ़ पानी या साफ़ कांच की तरह दिखते हैं। इन रत्नों को आम तौर पर दायें हाथ की मध्यामा उंगली में शुक्रवार की सुबह स्नान करने के बाद धारण किया जाता है।

लाल मूंगा : यह रत्न मंगल को बल प्रदान करने के लिए पहना जाता है तथा धारक के लिए शुभ होने पर यह उसे शारीरिक तथा मानसिक बल, अच्छे दोस्त, धन तथा अन्य बहुत कुछ प्रदान कर सकता है। मूंगा गहरे लाल से लेकर हल्के लाल तथा सफेद रंग तक कई रगों में पाया जाता है, किन्तु मंगल ग्रह को बल प्रदान करने के लिए गहरा लाल अथवा हल्का लाल मूंगा ही पहनना चाहिए। इस रत्न को आम तौर पर दायें हाथ की कनिष्का अथवा तर्जनी उंगली में मगलवार को सुबह स्नान करने के बाद पहना जाता है।

पन्ना : यह रत्न बुध ग्रह को बल प्रदान करने के लिए पहना जाता है तथा धारक के लिए शुभ होने पर यह उसे अच्छी वाणी, व्यापार, अच्छी सेहत, धन-धान्य तथा अन्य बहुत कुछ प्रदान कर सकता है। पन्ना हल्के हरे रंग से लेकर गहरे हरे रंग तक में पाया जाता है। इस रत्न को आम तौर पर दायें हाथ की अनामिका उंगली में बुधवार को सुबह स्नान करने के बाद धारण किया जाता है।

नीलम : शनि महाराज का यह रत्न नवग्रहों के समस्त रत्नों में सबसे अनोखा है तथा धारक के लिए शुभ होने की स्थिती में यह उसे धन, सुख, समृद्धि, नौकर-चाकर, व्यापरिक सफलता तथा अन्य बहुत कुछ प्रदान कर सकता है किन्तु धारक के लिए शुभ न होने की स्थिती में यह धारक का बहुत नुकसान भी कर सकता है। इसलिए इस रत्न को किसी अच्छे ज्योतिषि के परामर्श के बिना बिल्कुल भी धारण नहीं करना चाहिए। इस रत्न का रंग हल्के नीले से लेकर गहरे नीले रंग तक होता है। इस रत्न को आम तौर पर दायें हाध की मध्यमा उंगली में शनिवार को सुबह स्नान करने के बाद धारण किया जाता है।

गोमेद : यह रत्न राहु महाराज को बल प्रदान करने के लिए पहना जाता है तथा धारक के लिए शुभ होने की स्थिति में यह उसे अक्समात ही कही से धन अथवा अन्य लाभ प्रदान कर सकता है। किन्तु धारक के लिए अशुभ होने की स्थिति में यह रत्न उसका बहुत अधिक नुकसान कर सकता है और धारक को अल्सर, कैंसर तथा अन्य कई प्रकार की बिमारियां भी प्रदान कर सकता है। इसलिए इस रत्न को किसी अच्छे ज्योतिषि के परामर्श के बिना बिल्कुल भी धारण नहीं करना चाहिए। इसका रंग हल्के शहद रंग से लेकर गहरे शहद रंग तक होता है। इस रत्न को आम तौर पर दायें हाथ की मध्यमा अथवा अनामिका उंगली में शनिवार को सुबह स्नान करने के बाद धारण किया जाता है।
लहसुनिया : यह रत्न केतु महाराज को बल प्रदान करने के लिए पहना जाता है तथा धारक के लिए शुभ होने पर यह उसे व्यसायिक सफलता, आध्यात्मिक प्रगति तथा अन्य बहुत कुछ प्रदान कर सकता है किन्तु धारक के लिए अशुभ होने की स्थिति में यह उसे घोर विपत्तियों में डाल सकता है तथा उसे कई प्रकार के मानसिक रोगों से पीड़ित भी कर सकता है। इसलिए इस रत्न को किसी अच्छे ज्योतिषि के परामर्श के बिना बिल्कुल भी धारण नहीं करना चाहिए। इसका रंग लहसुन के रंग से लेकर गहरे भूरे रंग तक होता है किन्तु इस रत्न के अंदर दूधिया रंग की एक लकीर दिखाई देती है जो इस रत्न को हाथ में पकड़ कर धीरे-धीरे घुमाने के साथ-साथ ही घूमना शुरू कर देती है। इस रत्न को आम तौर पर दायें हाथ की मध्यमा उंगली में शनिवार को सुबह स्नान करने के बाद धारण किया जाता है।

काल सर्प योग

कितने प्रकार के होते हैं काल सर्प दोष (Types of Kal sarpa Dosh)



साढ़े साती और काल सर्प योग का नाम सुनते ही लोग घबरा जाते हैं. इनके प्रति लोगों के मन में जो भय बना हुआ है इसका फायदा उठाकर बहुत से ज्योतिषी लोगों को लूट रहे हैं. बात करें काल सर्प योग की तो इसके भी कई रूप और नाम हैं. काल सर्प को दोष नहीं बल्कि योग कहना चाहिये

काल सर्प का सामान्य अर्थ यह है कि जब ग्रह स्थिति आएगी तब सर्प दंश के समान कष्ट होगा. पुराने समय राहु तथा अन्य ग्रहों की स्थिति के आधार पर काल सर्प का आंकलन किया जाता था. आज ज्योतिष शास्त्र को वैज्ञानिक रूप में प्रस्तुत करने के लिए नये नये शोध हो रहे हैं. इन शोधो से कालसर्प योग की परिभाषा और इसके विभिन्न रूप एवं नाम के विषय में भी जानकारी मिलती है. वर्तमान समय में कालसर्प योग की जो परिभाषा दी गई है उसके अनुसार जन्म कुण्डली में सभी ग्रह राहु केतु के बीच में हों या केतु राहु के बीच में हों तो काल सर्प योग बनता है.



कालसर्प योग के नाम (Types of Kal sarpa Dosh)

ज्योतिष शास्त्र में प्रत्येक भाव के लिए अलग अलग कालसर्प योग के नाम दिये गये हैं. इन काल सर्प योगों के प्रभाव में भी काफी कुछ अंतर पाया जाता है जैसे प्रथम भाव में कालसर्प योग होने पर अनन्त काल सर्प योग बनता है.



अनन्त कालसर्प योग (Anant KalsarpaDosh)

जब प्रथम भाव में राहु और सप्तम भाव में केतु होता है तब यह योग बनता है. इस योग से प्रभावित होने पर व्यक्ति को शारीरिक और, मानसिक परेशानी उठानी पड़ती है साथ ही सरकारी व अदालती मामलों में उलझना पड़ता है. इस योग में अच्छी बात यह है कि इससे प्रभावित व्यक्ति साहसी, निडर, स्वतंत्र विचारों वाला एवं स्वाभिमानी होता है.



कुलिक काल सर्प योग (Kulik Kalsarpa Dosh)

द्वितीय भाव में जब राहु होता है और आठवें घर में केतु तब कुलिक नामक कालसर्प योग बनता है. इस कालसर्प योग से पीड़ित व्यक्ति को आर्थिक काष्ट भोगना होता है. इनकी पारिवारिक स्थिति भी संघर्षमय और कलह पूर्ण होती है. सामाजिक तौर पर भी इनकी स्थिति बहुत अच्छी नहीं रहती.



वासुकि कालसर्प योग (Vasuki Kalsarp Dosh)

जन्म कुण्डली में जब तृतीय भाव में राहु होता है और नवम भाव में केतु तब वासुकि कालसर्प योग बनता है. इस कालसर्प योग से पीड़ित होने पर व्यक्ति का जीवन संघर्षमय रहता है और नौकरी व्यवसाय में परेशानी बनी रहती है. इन्हें भाग्य का साथ नहीं मिल पाता है व परिजनों एवं मित्रों से धोखा मिलने की संभावना रहती है. शंखपाल कालसर्प योग (Shankhpal Kalsarp Yoga) राहु जब कुण्डली में चतुर्थ स्थान पर हो और केतु दशम भाव में तब यह योग बनता है. इस कालसर्प से पीड़ित होने पर व्यक्ति को आंर्थिक तंगी का सामना करना होता है. इन्हें मानसिक तनाव का सामना करना होता है. इन्हें अपनी मां, ज़मीन, परिजनों के मामले में कष्ट भोगना होता है.



पद्म कालसर्प योग (Padma Kalsarp Dosh)

पंचम भाव में राहु और एकादश भाव में केतु होने पर यह कालसर्प योग बनता है. इस योग में व्यक्ति को अपयश मिलने की संभावना रहती है. व्यक्ति को यौन रोग के कारण संतान सुख मिलना कठिन होता है. उच्च शिक्षा में बाधा, धन लाभ में रूकावट व वृद्धावस्था में सन्यास की प्रवृत होने भी इस योग का प्रभाव होता है.



महापद्म कालसर्प योग (Mahapadma Kalsarp Dosh)

जिस व्यक्ति की कुण्डली में छठे भाव में राहु और बारहवें भाव में केतु होता है वह महापद्म कालसर्प योग से प्रभावित होता है. इस योग से प्रभावित व्यक्ति मामा की ओर से कष्ट पाता है एवं निराशा के कारण व्यस्नों का शिकार हो जाता है. इन्हें काफी समय तक शारीरिक कष्ट भोगना पड़ता है. प्रेम के ममलें में ये दुर्भाग्यशाली होते हैं.



तक्षक कालसर्प योग (Takshak Kalsarp Dosh)

तक्षक कालसर्प योग की स्थिति अनन्त कालसर्प योग के ठीक विपरीत होती है. इस योग में केतु लग्न में होता है और राहु सप्तम में. इस योग में वैवाहिक जीवन में अशांति रहती है. कारोबार में साझेदारी लाभप्रद नहीं होती और मानसिक परेशानी देती है.



शंखचूड़ कालसर्प योग (Shankhchooda Kalsarp Dosh)

तृतीय भाव में केतु और नवम भाव में राहु होने पर यह योग बनता है. इस योग से प्रभावित व्यक्ति जीवन में सुखों को भोग नहीं पाता है. इन्हें पिता का सुख नहीं मिलता है. इन्हें अपने कारोबार में अक्सर नुकसान उठाना पड़ता है.



घातक कालसर्प योग (Ghatak Kalsarp Dosh)

कुण्डली के चतुर्थ भाव में केतु और दशम भाव में राहु के होने से घातक कालसर्प योग बनता है. इस योग से गृहस्थी में कलह और अशांति बनी रहती है. नौकरी एवं रोजगार के क्षेत्र में कठिनाईयों का सामना करना होता है.



विषधर कालसर्प योग (Vishdhar Kalsarp Dosh)

केतु जब पंचम भाव में होता है और राहु एकादश में तब यह योग बनता है. इस योग से प्रभावित व्यक्ति को अपनी संतान से कष्ट होता है. इन्हें नेत्र एवं हृदय में परेशानियों का सामना करना होता है. इनकी स्मरण शक्ति अच्छी नहीं होती. उच्च शिक्षा में रूकावट एवं सामाजिक मान प्रतिष्ठा में कमी भी इस योग के लक्षण हैं.



शेषनाग कालसर्प योग (Sheshnag Kalsarp Dosh)

व्यक्ति की कुण्डली में जब छठे भाव में केतु आता है तथा बारहवें स्थान पर राहु तब यह योग बनता है. इस योग में व्यक्ति के कई गुप्त शत्रु होते हैं जो इनके विरूद्ध षड्यंत्र करते हैं. इन्हें अदालती मामलो में उलझना पड़ता है. मानसिक अशांति और बदनामी भी इस योग में सहनी पड़ती है. इस योग में एक अच्छी बात यह है कि मृत्यु के बाद इनकी ख्याति फैलती है. अगर आपकी कुण्डली में है तो इसके लिए अधिक परेशान होने की आवश्यक्ता नहीं है. काल सर्प योग के साथ कुण्डली में उपस्थित अन्य ग्रहों के योग का भी काफी महत्व होता है. आपकी कुण्डली में मौजूद अन्य ग्रह योग उत्तम हैं तो संभव है कि आपको इसका दुखद प्रभाव अधिक नहीं भोगना पड़े और आपके साथ सब कुछ अच्छा हो.

कैसा होगा जीवन साथी ..?

प्रश्न कुण्डली से जानिए कैसा होगा जीवन साथी (Know about your Life Partner from prashan Kundli)

विवाह संस्कार से न केवल स्त्री और पुरूष का मिलन होता है, बल्कि एक नई जिन्दगी का आगाज़ भी होता है। वैवाहिक जीवन की सफलता के लिए आवश्यक है कि आपका जीवनसाथी आपके अनुकूल हो। अगर आप जानना चाहते हैं कि आपका जीवन साथी कैसा होगा तो प्रश्न कुण्डली से आपको इसका उत्तर मिल सकता है।

विवाह के विषय में कहा जाता है कि किसकी जोड़ी किससे बनेगी यह विधाता तय करता है, फिर भी हम आप कर्मवश सुयोग्य जीवनसाथी की तलाश करते हैं। ज्योतिषाचार्यों के मतानुसार जीवनसाथी कैसा होगा यह ग्रह तय करते हैं(planets decided your life partner) अर्थात आपकी कुण्डली में स्थित ग्रहों से यह पता लगाया जा सकता है कि आपका विवाह कब होगा(According to the stages of planet in your kundli know when will you get married) और आपका जीवनसाथी कैसा होगा। आपकी प्रश्न कुण्डली में ग्रह किस प्रकार इस रहस्य से पर्दा उठाते हैं आइये इस पर विचार करें।

ज्योतिर्विदों के मतानुसार विवाह के लिए प्रश्नकुण्डली में सप्तम भाव से विचार किया जाता है(According to the Astrologer, Seventh place is very helpful for Marriage in Prashan kundli) । प्रश्न कुण्डली स्त्री की है तो पति के कारक बृहस्पति की स्थिति देखी जाती है(If Prashan kundli is of Female then always see that the stage of Male Factor is Jupiter) । प्रश्न कुण्डली अगर पुरूष की है तो पत्नी के कारक ग्रह शुक्र ग्रह से आंकलन किया जाता है(If prashan kundli is of Male then Planet of Female Factor is always assessment from venus) ।

कुछ अन्य स्थितियों में भी विवाह की संभावना बनती है जिनका जिक्र यहां मौजूद है(Marriage is possible in some other stages also):

1. यदि प्रश्न कुण्डली के लग्न(Ascendent), द्वितीय(Second ), चतुर्थ(Fourth), सप्तम भाव में चन्द्रमा-शुक्र की युति (Conjunction of Moon And Venus in Seventh Place)हो या दोनों ग्रह उपरोक्त भावों को अपनी दृष्टि(Aspect of both the Planets) से देखें तो शीघ्र विवाह होता है।

2.उपरोक्त स्थितियों के अलावा यदि लग्न/लग्नेश(Ascendent or Lord of Ascendent), सप्तम भाव/सप्तमेश(Seventh Place And Lord of Seventh Place) तथा विवाह के कारक ग्रह शुक्र (Planet of Marriage Factor is Venus)एवं बृहस्पति सहित चन्द्रमा यदि शुभ स्थिति में हों तो विवाह की संभावना प्रबल होती है ( if stage of Moon with Jupiter is good the Possibilities of marriage is strong) ।

वैवाहिक जीवन में सबकुछ सामान्य होने के बावजूद कई बार ऐसा भी होता है कि अचानक पति पत्नी के मध्य मतभेद एवं संघर्ष की स्थिति पैदा हो जाती है और वैवाहिक जीवन में गतिरोध दिखने लगता है।

वैवाहिक जीवन में का क्या कारण है आइये इसपर दृष्टि डालते हैं(Causes of break up in marriage life)।

1.प्रश्न कुण्डली के लग्न में चन्द्रमा (Moon in Ascendent of prashan kundli)व सप्तम में मंगल (Mars)हो या पाप ग्रह(Misdeed Planet)लग्न में तथा चन्द्रमा षष्टम या अष्टम भाव(Moon is Sixth and Eighth Place) में हो तो इस स्थिति में वैवाहिक जीवन में तनाव की स्थिति पैदा होती है।

2.आपकी प्रश्न कुण्डली में अगर कृष्ण पक्ष (Aspect of Krishana in your Prashan kundli)का चन्द्रमा समराशि में होकर षष्टम-अष्टम भाव(Seventh and Eighth Place) में स्थित हों तथा इस चन्द्र पर पाप ग्रह की दृष्टि हो तो इस स्थिति में आप तलाक की स्थिति तक पहुंच जाते और कई बार इस ग्रह स्थिति में पति पत्नी के बीच सम्बन्ध विच्छेद भी हो जाता है।

प्रश्न कुण्डली के विभिन्न भावों में स्थित होकर पाप ग्रह किस प्रकार से आपको हानि पहुंचाते हैं आइये इस पर गौर करते हैं।

1.ज्योतिषशास्त्रियों के अनुसार अगर आप वर के सम्बन्ध में प्रश्न करते हैं और इस प्रश्न के जवाब में तैयार किये गये कुण्डली में अगर लग्न(Ascendent) स्थान पर पाप ग्रह हों तो वर के लिए अशुभ स्थिति होती है, इस स्थिति में वर को कष्ट से गुजरना होता है।

2.प्रश्न कुण्डली के पंचम भाव(Fifth House) में पाप ग्रह होने पर संतान के लिए कष्टप्रद होता है अर्थात इस स्थिति में पति पत्नी संतानहीन हो सकते है।

3.प्रश्न कुण्डली के सप्तम भाव(Seventh House) में पाप ग्रह होने पर कन्या के लिए कठिन स्थिति होती है। इस स्थिति में कन्या को संकट से गुज़रना पड़ता है।

4.प्रश्न कुण्डली के अष्टम भाव (Eighth House)में पाप ग्रह की मौजूदगी बहुत ही अनिष्टकारी मानी जाती है, यह ग्रह स्थिति पति व पत्नी दोनों के लिए ही दु:खदायी कही गयी है।

5.ज्योतिर्विदों के मतानुसार यदि प्रश्न कुण्डली के षष्टम/अष्टम भाव में चन्द्रमा शुभ (Moon is good in Sixth and Eighth Place) ग्रहों से युक्त या दृष्ट नहीं हो तो 8 वर्षों के अन्तराल में वर कन्या के जीवन पर आघात होता है।

ज्योतिषशास्त्रियों के अनुसार अगर आपकी प्रश्न कुण्डली में लग्न/लग्नेश, सप्तम भाव/ सप्तमेश तथा विवाह के कारक ग्रह बृहस्पति, शुक्र एवं चन्द्रमा अशुभ अथवा कमजोर स्थिति (Debilitated Stage)में हों तो विवाह के सम्बन्ध में बाधा एवं परेशानियों का सामना करना पड़ता है।

निष्कर्ष से हम कह सकते हैं कि प्रश्न कुण्डली में ग्रहों की स्थिति से हम विवाह से सम्बन्धित तामम प्रश्नों को जान सकते हैं। अगर आपके मन में भी इस विषय से सम्बन्धित कोई प्रश्न है तो प्रश्न कुण्डली से स्पष्ट जवाब प्राप्त कर सकते हैं।

यादें .....

अपनी यादें अपनी बातें लेकर जाना भूल गए  जाने वाले जल्दी में मिलकर जाना भूल गए  मुड़ मुड़ कर पीछे देखा था जाते ...