23 मार्च, 2013

एक चिंतन





*** कर्मों में कुशलता का सूत्र : ; एक चिंतन ***

सम्मानित मित्रो, आइये आज संत तुलसीदास कृत रामचरित-मानस की, कुछ चौपाइयों का वैज्ञानिक विश्लेषण कर, हम इस जीवनोपयोगी सूत्र की खोज करें :----
1. कर्म प्रधान विश्व करि राखा, जो जस करिय सो तस फल चाखा !
2. सकल पदारथ हैं जग माहीं, कर्म हीन नर पावत नाहीं !
3. जो इच्छा करिहऊ मन माहीं, प्रभु प्रताप कछु दुर्लभ नाहीं !......

प्रथम, दो चौपाइयाँ हमें बताती हैं कि :---
1. संसार में कर्म की ही प्रधानता है; हम सब जैंसा कर्म करते हैं, वैसा ही फल पाते हैं ! अर्थात जैसा बीज बोते हैं, वैसी ही फसल काटते हैं .. !
( As we sow, so we reap) ...

2. संसार में सभी पदार्थ उपलब्ध हैं, परन्तु कर्मों में कुशलता से रहित व्यक्ति को, वह प्राप्त नहीं होते ....!
( every thing is available in d world, but in d absence of proper method, we do not find them ..)

और तीसरी चोपाई हमें कर्मों में कुशलता का सूत्र देती है कि :---

3. .हम जो भी इच्छा करेंगे, प्रभु परमेश्वर के प्रताप से, उसे प्राप्त करने में, हमें कभी कोई, परेशानी नहीं जायेगी ....! .
(Nothing is impossible in d world, provided we have d grace of d Almighty with us ...!) ...

परन्तु,
हम इसे मानने के लिए तैयार नहीं होते ..! क्योंकि, यह हमारे अहंकार (ego) पर, गहरी चोट करती हैं ....!

आज तो स्थिति यह है कि,यदि युरॊप को परिभाषित करना हो तो, बहुत ही सरल परिभाषा में कहा जा सकता है कि :---

विश्व के ग्लोव का वह भाग,
जहाँ के अधिकाँश व्यक्तियों की नज़र में, भगवान् नाम की सत्ता ही नहीं है,को युरॊप कहते हैं ...!
(That part of d glob, where God is being declared dead, is known as Europa) ....

सम्मानित मित्रो,
हमारे हिन्दुस्तान में भी प्राचीन समय में एक, नास्तिक मनीषी हुए थे चार्वाक, जिनका सिद्धांत था :--

यावत जीवेत सुखी जीवेत,
रिर्णंम कृत्वा, घिर्तम पीवेत ..!

अर्थात,
जब तक जियें, सुख से जिए, और कर्ज लेकर घी पियें, अर्थात मजा-मौन्ज करें ....!
क्योंकि कौन जाने,
आज ही जीवन का अंतिम दिन हो ?

और फिर मरकर भी वापिस आते, किसने देखा है ?

अतः बस, इसी दिन और इसी जीवन तक, जिन्दगी को सच समझ, मजा-मौज करें ...!

परन्तु, उनको, भारतवर्ष में अधिक अनुयाई (followers) नहीं मिले,

क्योंकि,
ये राम और कृष्ण, और संत कबीर, संत नानक, आदि-गुरु शंकराचार्य, स्वामी विवेकानंद जैंसे, और भी बहुत से, महान अवतारों की भूमि हैं, जिन्होंने, एक बहुत ही उच्च चिंतन को जन्म दिया ...!

कृष्ण ने गीता में, बताया कि,
हे अर्जुन,तेरे और मेरे बहुत से जन्म हो चुके हैं, अंतर सिर्फ इतना है कि, मैं उन सब को जानता हूँ और तूँ उनको नहीं जानता ..!
(We both have taken many births, d difference is only this, that i know all of them, but you have forgotten all of them ..!) ..

अतः फिर्क मत कर, धर्म-युक्त आचरण कर, इससे तूँ अगले जन्म में, येंसे श्रीमानों के घर जन्म लेगा, जहाँ तुझे सुलभता से, आगे के जीवन-विकास में, बहुत सुगमता रहेगी ...!

राजा राम ने भी,
प्रजाजनों को दिए गए सन्देश में यही बताया कि :---
यह मानव जीवन, परलोक सँवारने के लिए मिला है ....! और हम सब तब तक अविरल धर्माचरण करता रहें, जब तक की हमें अपना अंतिम लक्ष, ना प्राप्त हो जाये .... !
(Arise-awake & stop not, till thy goal is reached ...!)...

संत कबीर ने कहा कि :----
मर जाऊं माँगूं नहीं अपने तन के काज,
पर-स्वारथ के कारजे, मोहि ना आवे लाज ...!

{अर्थात, गृहस्थ के रूप में, मुझे मरजाना पसंद है, पर अपना जीवन बचाने के लिए भी, कर्ज (loan) कभी नहीं लूँगा ..! हाँ परमार्थ के कार्यों के लिए मुझे कर्ज लेने में, कोई शर्म महसूस नहीं होगी ...!
(As a house-holder, I would prefer to die, than to survive on a borrowed money, however I would not feel ashamed in borrowing for d welfare of others...!
(जैंसे, आदि-गुरु शंकराचार्य/स्वामी विवेकानंद जैंसे सन्यासियों का जीवन, जो सिर्फ परमार्थ के लिए था ..!)..
The Saints can however can borrow for survival, because they sustain their bodies, only for the welfare of others, as d Messengers on d God, on d earth ...!)} ..

और संत नानक ने तो,
बहुत ही स्पष्ट वाणी में कह दिया कि :---
नानक दुखिया सब संसारा, सुखिया केवल नाम अधारा ....!

{One can never be at ease, without d support of d holy name (d God) ..! } ..

सम्मानित मित्रो,
भारतवर्ष में, प्राचीन-काल में, तो चार्वाक, प्रभाव-हीन हो गए थे .....!
परन्तु, आज यह चितन का विषय है, क्योंकि, आज हम सब भी, धीरे-धीरे, यूरोपीय सभ्यता के अनुयाई होते जा रहे हैं, जो चार्वाक द्वारा दर्शित जीवन-शैली ही है .....!

*सम्मानित मित्रो,
एक प्रश्न हम सब मित्र, अपने अंतर्मन से अवश्य खुद पूँछें कि :---

"क्या कोई भी वैज्ञानिक, किसी भी तथ्य को बगैर, परीक्षण किये ठुकराता है" ? .....यदि नहीं, तो क्यों ना हम भी :---

ये ईस्वर क्या है ? और इसकी क्या जरूरत है ?

का संक्षिप्त वैज्ञनिक-चिंतन कर,
जीवन में कर्मों की कुशलता के जीवनोपयोगी सूत्र को स्वीकार कर लाभान्वित हों ?

*संक्षिप्त-वैज्ञानिक-चिंतन :

जैंसे, आज हमारा, इस भौतिक संसार में, शारीरिक अस्तित्व, इस कारण है कि, हमारी माँ या पिताजी, दोनों में से किसी एक में, यह इच्छा उत्पन्न हुई की वह, अपने स्वरुप का विस्तार करें ...

अतः उन्होंने एक एक येंसे साथी की तलाश की, जो शिव-शक्ति की तरह, एक दूसरे को, अर्द्ध-अंग की तरह, अंगीकार करे ...! और फिर उन्होंने अपने स्वरुप का विस्तार किया,

अर्थात अपने अंश के रूप में, हमें और हमारे अन्य भाई-बहिनों को, जन्म दिया ..!

उन्होंने आपसी टकराव से बचने के लिए,
अपने पति-पत्नी के संबंधों के पहले, ट्राफिक नियमों की तरह, एक आचार-संहिता को, उपसर्ग की तरह जोड़ लिया, जिसे उन्होंने सनातन से, "धर्म" के नाम से पाया ..... !

अर्थात,
वह माता-पिता बनने से पहले, धर्म-पत्नी और धर्म-पति बने ...!
और फिर अपने अपने, नियमों का स्वेक्षा से पालन करते हुए, ना वह स्वयं आपसी टकराव से बचे,
वरन हम बच्चों को भी, शांति-मय जीवन जीने के लिए, इस "सनातन-धर्म' के सूत्रों से अबगत कराया ...!

मित्रो,
हम सब जानते हैं कि, जहाँ भी भौतिक रूप से दो या दो से अधिक, चलायमान वस्तुयें होते हैं, उन्हें, आपसी टकराहट से बचाने के लिए, ट्राफिक-नियमों की, परम आवश्यकता होती है ...!

और इसी कारण, हमारे माता-पिता ने हमें भी, "सनातन-धर्म" की आचार-संहिता, पर चलने का सन्देश दिया !!

सम्मानित मित्रो, "सनातन-धर्म", से अभिप्राय है,
वह आचार-संहिता, जो हमें सनातन काल से, जियो और जीने दो, ( live & let live ) का सूत्र प्रदान कर रही है ...!

विचार करें मित्रो,
क्या कभी किसी पुत्र/पुत्री, को अपने माता-पिता के, उपकारों को भूलना चाहिए ?

यदि वह अपने पूरे के पूरे शरीर भी, माता-पिता के चरणों में, अर्पित कर दें, तो भी माता-पिता के, एहसान से मुक्त नहीं हो सकते, क्योंकि यह शरीर भी, उन्हीं की कृपा/आशीर्वाद, का प्रसाद हैं ...!

अतः,
हमारा भला इसमें है की हम अपने अपने माता-पिता, के आशीवादों को प्राप्त करते रहें ..! इससे हमारे किसी अहंकार को चोट नहीं लगती .!

बस सम्मानित मित्रो,
संत तुलसीदास ने, हमें सिर्फ हमारे सनातन-माता-पिता (जिन्हें भगवान् के नाम की संज्ञा दी गई है), से
आशीर्वाद लेने का कहा है ...!

क्योंकि उन्होंने पाया कि, लौकिक माता-पिता में तो, मोह-जनित, कमियाँ आ जाती हैं, परन्तु अलौकिक माता-पिता ( भगवान्) में, कभी कोई, विक्रति नहीं आती ...!

और संतों ने पाया कि,
वह अलौकिक माता-पिता, हमेशा हमारे ह्रदय में, आत्मा के रूप में बैठे हैं, जरूरत है, सिर्फ उनसे जुड़ने की ..! उनकी वाणी (अंतरात्मा की आवाज) सुनने की ....!

और,
यदि कभी हमें जीवन में, दो में से एक का चुनाव करना पड़े ? अर्थात, लौकिक माता-पिता का आदेश या, अंतरात्मा की आवाज ? तो हम, हमेशा अंतरात्मा की आवाज (अलौकिक माता-पिता), को ही महत्व दें . ....!

अतः,
यदि हम अपनी अंतरात्मा की आवाज के अनुसार चलेंगे, तो जो भी मन में, इच्छा उत्पन्न होगी, वह प्रभु परमेश्वर के आशीर्वाद से, अवश्य ही पूरी होगी .... !

{परन्तु,सम्मानित मित्रो,
हमें अपनी अंतरात्मा से जुड़ने के लिए, अपने जीवन के कुछ पल, ध्यान (meditation) के लिए अवश्य निकालने पड़ेंगे ...! उस ध्यान के लिए, जिसकी सलाह, बचपन से आज तक, हमारे सभी शुभ- चिंतकों ने, किसी भी कार्य को करने से पूर्व, दी है ..!

ध्यान से,
सरलतम भाषा में, सिर्फ इतना अभिप्राय है कि :---

जैंसे,
यदि हमें मोबाइल से बात करनी हो, तो रिसीवर और ट्रांसमीटर, दोनों का कार्य करना आवश्यक है ...!

वैंसे ही हमारे शरीर में,
प्रार्थना (Prayer: अपनी तरफ से आत्मा से अपनी बात कहना) और ध्यान ( Meditation : मौन अर्थात अपनी आवाज बंद कर, आत्मा की आवाज सुनने की क्षमता), दोनों का, कार्य करना आवश्यक हैं ...!

अतः
हमें, ध्यान/मौन (अंतरात्मा की आवाज सुनना) का भी जीवन में, समावेश करना चाहिए ...!
और जीवन में वही कार्य करना चाहिए, जो हमारी अंतरात्मा हमें सलाह दे ...! } ....

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