13 जून, 2024

शमी का पेड़- Prosopis spicigera.


अति प्रसन्न शमी बृक्ष की दिव्य छटा......











शमी - Prosopis spicigera.


Shami trees are planted for checking desertification, and stabilization of sand dunes.These trees are also planted for the reclamation of land.Shami is a rare medicinal tree and it can grow in very harsh climatic
conditions, and in poor or degraded soil. Roots of shami can grow down as deep as 35 meters in search of water.Being a Legume, it adds nitrogen to the soil and increases its fertility.
Shami the sacred plant is the beloved tree of Lord Rama & the protector of the arms of Pandavas during their one year long "Agyaat Vaas". Shami protects human beings from the bad forces of Shani, and the symbol of victory in all walks of life … Shami samyate papam …”,
Ayurvedic Uses:Shami is an important medicinal plant. Ayurveda recommends it for the treatment of a number of ailments and iseases like mental disorder, Schizophrenia, respiratory tract infection, excessive heat, herpes, loose motion, leucorrhoea etc. but different parts of the plant are used for different purposes.
The extract of leaves of shami tree has been reported to kill intestinal parasitic worms. Its extract is reported to be useful in the treatment of leprosy also.The methanolic extract of shami leaves has anti-inflamatory activities.The pods and roots of the plant have been reported to possess astringent properties, and are used for the treatment of dysentery. Flowers of shami when mixed with sugar, are eaten by women during pregnancy as a safeguard against miscarriage.
The bark of SHAMI is used in Ayurvedic formulations for its medicinal benefits in ailments like: Diarrhea, Anorexia, Piles, Rheumatoid Arthritis, Asthma, Chronic cough & minor Skin diseases. Pods are indicated un Uro-genital conditions.









माता पार्वती ने शमी वृक्ष की महत्ता पर विस्तार से बताने को कहा तो भगवान शिव ने कहा- दुर्योधन ने पांडवों को इस शर्त पर वनवास दिया था कि वे बारह वर्ष प्रकट रूप से वन में घूमें, लेकिन एक वर्ष पूरी तरह से अज्ञातवास में रहें। और अज्ञातवास के दौरान अगर पांडवों का परिचय किसी ने जान लिया तो फिर से उन्हें 12 साल का वनवास भोगना होगा। इस अज्ञातवास के दौरान ही अर्जुन ने शमी वृक्ष पर अपने धनुष और बाण रख थे। राजा विराट के यहां बृहन्नला के रूप में रह रहे अर्जुन दुर्योधन के नेतृत्व में आए कौरवों से गायों की रक्षा के लिए राजा विराट के पुत्र उत्तर के सारथी बने और उस समय शमी वृक्ष से अपने धनुष और बाण उतारे। उत्तर को विश्वास दिलाया कि वह ही अर्जुन है। शमी ने तब तक देवता की तरह अपने खोल में उनके धनुष और बाण की पूरी तरह से रक्षा की। ऐसे ही शमी वृक्ष की पूजा जब भगवान राम ने की तो शमी ने कहा- आपकी विजय होगी। दशहरे के दिन शमी वृक्ष का पूजन राजाओं द्वारा किया जाता है। घर के ईशान कोण में विराजमान शमी का वृक्ष विशेष लाभकारी माना गया है।


कर्म और भाग्य

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अनंतकाल से इस विषय पर बहस चली आ रही है कि कर्म महत्वपूर्ण है या भाग्य। जीवन में अगर आपको कुछ पाना है तो मेहनत तो करनी ही पड़ेगी। मंजिलें उन्हीं को मिलती है जो उसकी ओर कदम बढ़ाते हैं। 

महाभारत में जब अर्जुन ने कुरुक्षेत्र में युद्ध में अपने स्वजनों को अपने सामने खड़ा पाया तो उसका ‍शरीर निस्तेज हो गया। हाथों से धनुष छूट गया। प्राणहीन मनुष्य के समान वह धरती पर गिर गया। तब भगवान श्रीकृष्ण ने उसे गीता के कर्म ज्ञान का उपदेश दिया। 
भगवान कृष्ण ने अर्जुन को कहा कि राज्य तुम्हारे भाग्य में है या नहीं यह तो बाद में, पहले तुम्हें युद्ध तो लड़ना पड़ेगा। तुम्हें अपना कर्म तो करना पड़ेगा अर्थात स्वजनों के खिलाफ युद्ध तो लड़ना पड़ेगा। तुलसीदासजी ने भी श्रीरामचरित मानस में लिखा है- 'कर्म प्रधान विश्व करि राखा'। अर्थात युग तो कर्म का है। 

इसका अर्थ यह हुआ कि हम अपना कार्य करें, फल ‍की चिंता बाद में करें। किसान जब खेत में बीज बोता है तो उसे यह नहीं पता होता कि बारिश होगी या नहीं। जमीन में से बीज से अंकुर फूटेगा या नहीं। अगर पौधे आ भी गए तो उस पर फल आएंगे या नहीं। लेकिन किसान बीजों को जमीन बोता है और फसल की चिंता ईश्वर पर छोड़ देता है। 
भाग्य का समर्थन करने वाले कहते है कि हमें जो सुख, संपत्ति, वैभव प्राप्त होता है वह भाग्य से होता है। जैसे लालूप्रसाद यादव की पत्नी राबड़ीदेवी बिहार की मुख्यमं‍त्री बनीं तो यह उनकी किस्मत थी। डॉ. मनमोहनसिंह भारत के प्रधानमंत्री बने तो उनकी कुंडली में राजयोग था। अगर ‍किसी अभिनेता का बेटा अभिनेता बनता है तो यह उसका भाग्य रहता है कि वह ‍अभिनेता के यहां पैदा हुआ।
जब चार लोग एक समान बुद्धि और ज्ञान रखने वाले एक ही समान कार्य को करें और उनमें से सिर्फ दो को ही सफलता मिले तो हम इसे क्या कहेंगे। दो लोगों के साथ भाग्य साथ नहीं था। ऐसा एक उदाहरण हम यह दे सकते हैं दो व्यक्ति एक साथ लॉटरी का टिकट खरीदते हैं पर लगती लॉटरी एक ही व्यक्ति की है। जब दोनों ने लॉटरी खरीदने का कर्म एक साथ किया तो फल अलग-अलग क्यों? 
अंत में यही कहा जा सकता है कि भाग्य भी उन लोगों का साथ देता है जो कर्म करते हैं। किसी खुरदरे पत्थर को चिकना बनाने के लिए हमें उसे रोज घिसना पड़ेगा। ऐसा ही जिंदगी में समझें हम जिस भी क्षेत्र में हों, स्तर पर हों हम अपना कर्म करते रहें बिना फल की चिंता किए। जैसे परीक्षा देने वाले विद्यार्थी परीक्षा देने के बाद उसके परिणाम का इंतजार करते हैं। 

कर्म और भाग्य एक अन्योन्याश्रित हैं। कर्म के बिना भाग्य फलदायी नहीं होता और भाग्य के बिना कर्म। इस बात को दूसरे शब्दों में इस प्रकार कह सकते हैं कि वे एक दूसरे के पूरक हैं और एक ही सिक्के के पहलू हैं।
       यदि मनुष्य का भाग्य प्रबल होता है तब उसे थोड़ी मेहनत करने पर अधिक फल प्राप्त होता है। यदि वह सोचे कि मैं बड़ा बलवान हूँ मुझे मेहनत करने की क्या आवश्यकता है। सब मेरे पास थाली में परोस कर आ जाएगा तो यह उसका भ्रम है। श्रम न करके वह अपना स्वर्णिम अवसर खो देता है। उस समय अहंकार के वशीभूत वह भूल जाता है कि ईश्वर बार-बार अवसर नहीं देता।
      इसके विपरीत कभी-कभी ऐसा भी होता है कि मनुष्य कठोर श्रम करता है परंतु आशा के अनुरूप उसे ल नहीं मिलता। इसका यह अर्थ नहीं कि वह परिश्रम करना छोड़कर निठल्ला बैठ जाए और भाग्य को कोसे या ईश्वर को।
        मनुष्य को अपने भाग्य और कर्म दोनों को एक समान मानते हुए बार-बार सफलता प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना चाहिए। हमेशा चींटी का श्रम याद रखिए जो पुनः पुनः प्रयास करके अपने लक्ष्य को पाने में सफल हो जाती है।
     
        जब-जब हम अपने बाहुबल पर विश्वास करके कठोर परिश्रम करेंगे तो हमारा भाग्य देर-सवेर अवश्यमेव फल देगा। शर्त यह है कि अवसर की प्रतीक्षा करते हुए हमें हाथ पर हाथ रखकर नहीं बैठना है अन्यथा हम अच्छा अवसर खो देंगे।

30 सितंबर, 2023

टैरिया








टैरिया  , प्रसिद्ध सोहनाग मेला से २ किलोमीटर की दुरी पर स्थित है . उत्तर प्रदेश के जिला
देवरिया के अंतर्गत सलेमपुर नामक ब्लॉक एवं तहसील जिसे जिला बनाए जाने की चर्चा बड़े जोर शोर से बहुत दिनों से चलरही है . सबसे पहले सलेमपुर का नाम जब B B C ने बोल था तो पता चला भारत में सलेमपुर संसदीय छेत्र आबादी के हिसाब से विश्व का सबसे बड़ा संसदीय छेत्र है . इस छेत्र का संयोग यह रहा की ढेर सारी विविधताओं के बावजूद विकास की यात्रा में बहुत आगे नहीं बढ़ नहीं सका . राजनैतिक रूप से यह छेत्र ज्यादे महत्त्व पूर्ण नहीं रहा . इसके समीप वर्ती क्षेत्र से श्री चन्द्रशेखर बलिया से चुनाव लड़ते थे आजीवन जीतते भी रहे . वे देश के प्रधान मंत्री भी रहे .
जब भी मैं  टैरिया  के इतिहास एवं वर्तमान पर विचार करता हूँ तो लगता है यह ब्राह्मणो का एक शांति प्रिय गांव रहा है इतना शांत की इस छेत्र के दरोगा को भी पता नहीं रहता था की टेरिया गांव कहाँ है ?? कभी भी थाने जाने की नौबत नहीं आती थी . सब लोग इतना प्यार से आपस में मिल जुल कर रहते थे , की आपस में कटुता एवं वैमनष्य का प्रश्न ही नहीं उठता था . छोटा सा गांव था इसे टोला भी कह सकते थे , लेकिन यह एक स्वतंत्र गांव था .
कहते हैं बुढ़िया बारी के तिवारी बहुत प्रसिद्ध थे , कुछ तो परिस्थितियां ऐसी रही होंगी वे नए मुकाम की तलाश में लोहरौली आ गए थे . गांव वाले नहीं चाहते थे की वे यहाँ बसे. जहाँ बसे थे वहां जमीन का विवाद हो गया था , भोगी बाबा हल के सामने लेट गए . उन्हें लगा हल जोतने वाला रूक जायेगा , लेकिन ऐसा हुआ नहीं हल का फल उनके पेट से टकरा गया और उनकी वहीँ मृत्यु हो गयी . ब्रह्म हो गए ब्रह्म श्री भोगी बाबा . पूरा टेरिया भोगी बाबा का ही वशज है . टैरी के पेड़ों को काट कर गांव बसाए थे , इसलिए गांव नाम टेरिया पड़ा .
तिवारी परिवार बढ़ने लगा और बटवारा होने लगा इस प्रकार पूरा गांव बस गया . आवश्यकतानुसार हरिजन एवं दुसाध आकर बस गए थे . जिनका परिवार आगे   बढ़ता गया
क्रमशः

01 जून, 2016

The Aga Khan Palace ,PUNE



The Aga Khan Palace was built by Sultan Muhammed Shah Aga Khan III in Pune, India. Built in 1892, it is one of the biggest landmarks in Indian history. The palace was an act of charity by the Sultan who wanted to help the poor in the neighboring areas of Pune, who were drastically hit by famine.


 Aga Khan Palace is a majestic building and is considered to be one of the greatest marvels of India. The palace is closely linked to the Indian freedom movement as it served as a prison for Mahatma Gandhi, his wife Kasturba Gandhi, his secretary Mahadev Desai and Sarojini Naidu. It is also the place where Kasturba Gandhi and Mahadev Desai died. In 2003, Archaeological Survey of India (ASI) declared the place as a monument of national importance.

The Aga Khan Palace
The Agakhan Palace, Pune, is a National Monument of India’s freedom movement. Following the launch of Quit India Movement in 1942, Gandhiji, Kasturba, Mahadevbhai Desai, Sarojini Naidu and other national leaders were intended at the Agakhan Palace from August 5, 1942 to May 6, 1944. Mahadevbhai & Kasturba passed away while in captivity at the Agakhan Palace and their samadhis are located in the campus.



The Agakhan Palace has developed into a National and International place of Pilgrimiga, with over a lakh a visitors every year, who come to pay their homage to the Samadhis.
After the sad demise of Kasturba, Gandhi had expressed a wish that this place should develop into a place of Emancipation of Women. On the occassion of Gandhi Birth Centenary in 1969, H. H. Prince Karim Agakhan donated this Agakhan Palace to the nation, as a mark of respect to Gandhiji and his philosophy.


On August 15, 1972, a Gandhi Museum cum Picture Gallery was inaugurated at The Agakhan Palace. In 1980, the management of the museum, samadhis and the palace campus was transferred to Gandhi National Memorial Society by Gandhi Smarak Nidhi, New Delhi. As a tribute to the memory of Kasturba a National Institute for the development of women was established in 1980 where the main emphasis is on Empowerment of women through training and development.





The Gandhi National Memorial Society has been trying to make this place a Living Memorial to Ba & Bapu by organising a number of activities throughout the year.
Agakhan Palace,
Nagar Road
Pune – 411006, Maharashtra, India 
Tel – 91-20-2668 0250
Fax – 91-20-2661 2700
Email: gandhi_memorial@vsnl.net

31 मई, 2016

NDA, Pune




The National Defence Academy (NDA) is the Joint Services academy of the Indian Armed Forces, where cadets of the three services, the Army, the Navy and the Air Force train together before they go on to pre-commissioning training in their respective service academies. The NDA is located at Khadakwasla near PuneMaharashtra. It is the first tri-service academy in the world.
NDA alumni have led and fought in every major conflict in which the Indian Armed Forces has been called to action since the academy was established. The alumni include 3 Param Vir Chakra recipients and 9 Ashoka Chakra recipients. National Defence Academy has produced 27 service Chiefs Of Staff till date. Current Chiefs Of Staff of the Army, the Navy and the Air Force are all NDA alumni.[2]

The NDA campus is located about 17 km south-west of Pune city, north-west of Khadakwasla Lake. It spans 7,015 acres (28.39 km2) of the 8,022 acres (32.46 km2) donated by the Government of the former Bombay State. The site was chosen for being on a lake shore, the suitability of the neighboring hilly terrain, proximity to the Arabian Sea and other military establishments, an operational air base nearby at Lohegaon as well as the salubrious climate. The existence of an old combined-forces training centre and a disused mock landing ship, HMS Angostura, on the north bank of the Khadakwasla lake which had been used to train troops for amphibious landings, lent additional leverage for the selection of the site.[3] Aptly, NDA is also located in the hunting grounds of the legendary Shivaji, with the Sinhagad Fort as a panoramic backdrop.
The administrative headquarters of the NDA was named the Sudan Block, in honour of the sacrifices of Indian soldiers in the Sudan theatre during the East African Campaign. It was inaugurated by then Ambassador of Sudan to India, Rahmatullah Abdulla, on 30 May 1959. The building is a 3-storey basalt and granite structure constructed with Jodhpur red sandstone. Its architecture features an exterior design comprising a blend of arches, pillars and verandahs, topped by a dome. The foyer has white Italian marble flooring and panelling on the interior walls. On the walls of the foyer hang the portraits of NDA graduates who have been honored with the highest gallantry awards, the Param Vir Chakra or the Ashoka Chakra.
A number of war relics adorn the NDA campus, including legendary captured tanks and aircraft.[8] The Vyas Library offers an extensive collection of over 100,000 printed volumes, in addition to numerous electronic subscriptions and a number of periodicals and journals from around the world in at least 10 languages.

शमी वृक्ष





शमी वृक्ष (अंग्रेज़ी:Prosopis cineraria) को हिन्दू धर्म में बड़ा ही पवित्र माना गया है। भारतीय परंपरा में 'विजयादशमी' पर शमी पूजन का पौराणिक महत्व रहा है। राजस्थान में शमी वृक्ष को 'खेजड़ी' के नाम से जाना जाता है। यह मूलतः रेगिस्तान में पाया जाने वाला वृक्ष है, जो थार मरुस्थल एवं अन्य स्थानों पर भी पाया जाता है। अंग्रेज़ी में शमी वृक्ष प्रोसोपिस सिनेरेरिया के नाम से जाना जाता है।

संरचना

शमी वृक्ष के संदर्भ में कई पौराणिक कथाओं का आधार विद्यमान है। यज्ञ परंपरा में भी शमी के पत्तों का हवन गुणकारी माना गया है। शमी का वृक्ष आठ से दस मीटर तक ऊंचा होता है। शाखाओं पर कांटे होते हैं। इसकी पत्तियां द्विपक्षवत होती हैं। शमी के फूल छोटे पीताभ रंग के होते हैं। प्रौढ पत्तियों का रंग राख जैसा होता है, इसीलिए इसकी प्रजाति का नाम 'सिनरेरिया' रखा गया है अर्थात 'राख जैसा'।

महत्त्व

हिन्दू धर्म में शमी वृक्ष से जुड़ी कई मान्यताएँ है, जैसे-
  • विजयादशमी या दशहरे के दिन शमी के वृक्ष की पूजा करने की प्रथा है। मान्यता है कि यह भगवान श्री राम का प्रिय वृक्ष था औरलंका पर आक्रमण से पहले उन्होंने शमी वृक्ष की पूजा करके उससे विजयी होने का आशीर्वाद प्राप्त किया था। आज भी कई स्थानों पर 'रावण दहन' के बाद घर लौटते समय शमी के पत्ते स्वर्ण के प्रतीक के रूप में एक दूसरे को बाँटने की प्रथा हैं, इसके साथ ही कार्यों में सफलता मिलने कि कामना की जाती है।[1]
  • शमी वृक्ष का वर्णन महाभारत काल में भी मिलता है। अपने 12 वर्ष के वनवास के बाद एक साल के अज्ञातवास में पांडवों ने अपने सारे अस्त्र शस्त्र इसी पेड़ पर छुपाये थे, जिसमें अर्जुन का गांडीव धनुष भी था। कुरुक्षेत्र में कौरवों के साथ युद्ध के लिये जाने से पहले भी पांडवों ने शमी के वृक्ष की पूजा की थी और उससे शक्ति और विजय प्राप्ति की कामना की थी। तभी से यह माना जाने लगा है कि जो भी इस वृक्ष कि पूजा करता है उसे शक्ति और विजय प्राप्त होती है।
शमी शमयते पापम् शमी शत्रुविनाशिनी ।
अर्जुनस्य धनुर्धारी रामस्य प्रियदर्शिनी ॥
करिष्यमाणयात्राया यथाकालम् सुखम् मया ।
तत्रनिर्विघ्नकर्त्रीत्वं भव श्रीरामपूजिता ॥
अर्थात "हे शमी, आप पापों का क्षय करने वाले और दुश्मनों को पराजित करने वाले हैं। आप अर्जुन का धनुष धारण करने वाले हैं और श्री राम को प्रिय हैं। जिस तरह श्री राम ने आपकी पूजा की मैं भी करता हूँ। मेरी विजय के रास्ते में आने वाली सभी बाधाओं से दूर कर के उसे सुखमय बना दीजिये।

अन्य विशेष तथ्य

  • अन्य कथा के अनुसार कवि कालिदास ने शमी के वृक्ष के नीचे बैठ कर तपस्या करके ही ज्ञान की प्राप्ति की थी।
  • शमी वृक्ष की लकड़ी यज्ञ की समिधा के लिए पवित्र मानी जाती है। शनिवार को शमी की समिधा का विशेष महत्त्व है। शनि देव को शान्त रखने के लिये भी शमी की पूजा की जाती है।
  • शमी को गणेश जी का भी प्रिय वृक्ष माना जाता है और इसकी पत्तियाँ गणेश जी की पूजा में भी चढ़ाई जाती हैं।
  • बिहारझारखण्ड और आसपास के कई राज्यों में भी इस वृक्ष को पूजा जाता है। यह लगभग हर घर के दरवाज़े के दाहिनी ओर लगा देखा जा सकता है। किसी भी काम पर जाने से पहले इसके दर्शन को शुभ मना जाता है।
  • राजस्थान के विश्नोई समुदाय के लोग शमी वृक्ष को अमूल्य मानते हैं।
  • ऋग्वेद के अनुसार शमी के पेड़ में आग पैदा करने कि क्षमता होती है और ऋग्वेद की ही एक कथा के अनुसार आदिम काल में सबसे पहली बार पुरुओं[2] ने शमी और पीपल की टहनियों को रगड़ कर ही आग पैदा की थी।
  • कवियों और लेखकों के लिये शमी बड़ा महत्व रखता है। हिन्दू धर्म में भगवान चित्रगुप्त को शब्दों और लेखनी का देवता माना जाता है और शब्द-साधक यम-द्वितीया[3] को यथा-संभव शमी के पेड़ के नीचे उसकी पत्तियों से उनकी पूजा करते हैं।

25 मई, 2016

Firaq Gorakhpuri




Firaq Gorakhpuri's real name was Raghupati Sahay. He was born in 1896 in Gorakhpur, India. He left his imprint on three important genres of Urdu poetry - ghazal, nazm and rubaayee. He wrote more than 40,000 couplets. He was a poet of love and beauty. His poems are published in three anthologies - Rooh-o-Qaayanat, Gul-e-Ra'naa, Nagma-numaa. He passed away in 1982.


He was selected for the Provincial Civil Service (P.C.S.) and the Indian Civil Service (I.C.S.), but he resigned to follow Mahatma Gandhi's Non-cooperation movement, for which he went to jail. Later, he joined Allahabad University as a lecturer in English literature. It was there that he wrote most of his Urdu poetry, including his magnum opus Gul-e-Naghma which earned him the highest literary award of India, the Jnanpith Award, and also the 1960 Sahitya Akademi Award in Urdu. During his life, he was given the positions of Research Professor at the University Grants Commission and Producer Emeritus by All India Radio. After a long illness, he died on 3 March 1982, in New Delhi.
As a distinguished poet, Firaq Gorakhpuri was well-versed in all traditional metrical forms such as ghazalnazmrubaai and qat'aa. He was a prolific writer, having written more than a dozen volumes of Urdu poetry, a half dozen of Urdu prose, several volumes on literary themes in Hindi, as well as four volumes of English prose on literary and cultural subjects.
His biography, Firaq Gorakhpuri: The Poet of Pain & Ecstasy, written by his nephew Ajai Mansingh will be published by Roli Books in 2015.[The book included anecdotes from his life and translations of some of his best work.

ये तो नहीं कि ग़म नहीं
हाँ! मेरी आँख नम नहीं 

तुम भी तो तुम नहीं हो आज 
हम भी तो आज हम नहीं 

अब न खुशी की है खुशी
ग़म भी अब तो ग़म नहीं 

मेरी नशिस्त है ज़मीं 
खुल्द नहीं इरम नहीं 

क़ीमत-ए-हुस्न दो जहाँ 
कोई बड़ी रक़म नहीं 

लेते हैं मोल दो जहाँ 
दाम नहीं दिरम नहीं

सोम-ओ-सलात से फ़िराक़ 
मेरे गुनाह कम नहीं 

मौत अगरचे मौत है
मौत से ज़ीस्त कम नहीं




यादें .....

अपनी यादें अपनी बातें लेकर जाना भूल गए  जाने वाले जल्दी में मिलकर जाना भूल गए  मुड़ मुड़ कर पीछे देखा था जाते ...