24 दिसंबर, 2010

महात्मा कबीरदास


 
 
'कबिरा' शरीर सराय है भाड़ा देके बस ।
जब भठियारी खुश रहै तब जीवन का रस ॥१॥

'कबिरा' क्षुधा है कूकरी करत भजन में भंग ।
याको टुकरा डारि के सुमिरन करो निशंक ॥२॥

नींद निसानी नीच की उट्ठ 'कबिरा' जाग ।
और रसायन त्याग के नाम रसाय चाख ॥३॥

चलना है रहना नहीं चलना बिसवें बीस ।
'कबिरा' ऐसे सुहाग पर कौन बँधावे सीस ॥४॥

अपने अपने चोर को सब कोई डारे मारि ।
मेरा चोर जो मोहिं मिले सरवस डारूँ वारि ॥५॥

कहे सुने की है नहीं देखा देखी बात ।
दूल्हा दुल्हिन मिलि गए सूनी परी बरात ॥६॥

नैनन की करि कोठरी पुतरी पलँग बिछाय ।
पलकन की चिक डारि के पीतम लेहु रिझाय ॥७॥

प्रेम पियाला जो पिये सीस दच्छिना देय ।
लोभी सीस न दै सके, नाम प्रेम का लेय ॥८॥

सीस उतारे भुँइ धरै तापे राखै पाँव ।
दास 'कबिरा' यूं कहे ऐसा होय तो आव ॥९॥

निन्दक नियरे राखिये आँखन कुई छबाय ।
बिन पानी साबुन बिना उज्जवल करे सुभाय ॥१०॥

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